पालघर : अनसुलझे सवालों के बरक्स

Last Updated 30 Apr 2020 12:45:54 AM IST

महाराष्ट्र का पालघर जिला इन दिनों सुर्खियों में है। बीती 16 अप्रैल को यहां दो साधुओं और एक ड्राइवर की हत्या उन्मादी भीड़ ने कर दी।


पालघर : अनसुलझे सवालों के बरक्स

इस मामले में एक पक्ष ग्रामीणों का भी है। क्या विचार नहीं किया जाना चाहिए कि किस कारण ग्रामीण कानून हाथ में लेने को मजबूर हो रहे हैं? कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि भारत में आदिवासियों के साथ न केवल ऐतिहासिक वरन सांस्कृतिक विश्वासघात भी हुआ है।
स्वयं भारत सरकार की आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट, 2020 में यह बात सामने आई है कि आदिवासियों के लिए स्पेशल कंपोनेंट प्लान के तहत तय राशि का पूरा व्यय नहीं हो पाता। सामान्य तौर पर आदिवासी इलाकों में सड़कों आदि के निर्माण को विकास कार्य की श्रेणी में शामिल मान लिया जाता है। यद्यपि आदिवासी देश की कुल आबादी का केवल 8 प्रतिशत हैं परंतु विस्थापितों में उनका प्रतिशत 40 से अधिक है। विस्थापित आदिवासियों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इससे जमीन से बेदखली की उनकी मूल समस्या और गंभीर हो जाती है। महाराष्ट्र के प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता एवं लेखक भरत पतंकर के मुताबिक पालघर मामले में उन सवालों को नहीं उठाया जा रहा है, जिसके कारण यह पूरा इलाका आग के ढेर पर है। यहां जमीन बड़ी तेजी से दलितों और आदिवासियों के हाथों से जा रही है। इसके लिए धन के लोभ से लेकर जोर-जबरदस्ती भी की जा रही है। दरअसल, 2014 के बाद पालघर की स्थिति में बहुत बदलाव आया है। इसी वर्ष यह जिला बना। यह मुंबई-अहमदाबाद नेशनल हाईवे पर है। मुंबई से इसकी दूरी केवल 87 किलोमीटर है। मुंबई का विस्तार तेजी से हो रहा है और लोग धीरे-धीरे पालघर के इलाकों में जाकर बसने लगे हैं। इस कारण भी वहां एक सामाजिक बदलाव आया है। पतंकर के मुताबिक पूरे इलाके में गरीबी-गुरबत के सारे मसले मौजूद हैं। वे सवाल उठाते हैं कि जब देश भर में लॉकडाउन है तो फिर घटना के दिन साधुओं को गाड़ी से सूरत जाने की अनुमति किसने दी? क्या वे बिना अनुमति पत्र के यात्रा कर रहे थे? फिर जब तीन दिन पहले ही बच्चा चोरी को लेकर ग्रामीणों के आक्रोशित होने की खबर आई थी तब समय रहते उस मामले में कार्रवाई क्यों नहीं की गई?

मॉब लिंचिंग की घटनाओं से जुड़े संदभरे को छोड़ भी दें तो पतंकर जिन सवालों की ओर इशारा कर रहे हैं, वे पालघर तक सीमित नहीं हैं। पूरे देश में संसाधनों पर कब्जा करने की होड़ मची है। अनेक राज्यों में इसके खिलाफ आंदोलन चलाए जा रहे हैं। चाहे छत्तीसगढ़ में नंदराज पहाड़ को बचाने के लिए आदिवासियों का आंदोलन हो या अपनी विरासत को बचाए रखने के लिए आदिवासियों का पत्थलगड़ी आंदोलन। सभी आंदोलनों के केंद्र में कोई सवाल है तो यही है कि ये आदिवासी अपने अस्तित्व की रक्षा कैसे करें। हालांकि संविधान में इनके अधिकारों की रक्षा के लिए प्रावधान हैं। एक प्रावधान तो पांचवीं अनुसूची का है। लेकिन यह भी इतनी सच है कि अधिकांश राज्य सरकारों ने पांचवीं अनुसूची के प्रावधानों को लागू नहीं किया है जबकि इसका अनुपालन हो तो बहुत हद तक जंगलों में रहने वाले लोगों के हक-हुकूककी रक्षा हो सकती है। मसलन, पांचवीं अनुसूची की धारा 244 (1) में स्पष्ट कहा गया है कि अनुसूचित क्षेत्रों में जनजाति सलाहकार परिषद (टीएसी) का गठन किया जाएगा जिसके सदस्य केवल आदिवासी समुदाय के व्यक्ति होंगे। वहीं पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996 (पेसा) में भी प्रावधान हैं कि ग्रामसभाओं को अधिक से अधिक स्वायत्ता प्रदान की जाएगी और संबंधित इलाके में विकास, भूमि अधिग्रहण व खरीद-बिक्री के मामले में ग्राम सभा की सहमति अनिवार्य होगी परंतु इन प्रावधानों के अनुपालन पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं और हाल के वर्षो में तो बेतहाशा सवाल उठे हैं।
एक बार फिर पालघर की चर्चा करते हैं लेकिन इसके पहले एक आंदोलन जो सुर्खियों में भी रहा और पूर्ववर्ती देवेंद्र फड़णवीस सरकार ने रातों-रात खत्म कर दिया। सरकार जंगल के रास्ते मेट्रो ट्रैक ले जाना चाहती थी। दूसरी ओर लोग इसका विरोध कर रहे थे और आंदोलनरत थे। यह आंदोलन था मुंबई में जंगल को बचाने की। निश्चित तौर पर इस जंगल को बचाने की मुहिम को राष्ट्रीय स्तर पर तब मान्यता मिली जब एक के बाद एक कई फिल्मी सितारों ने इसमें अपनी सहभागिता प्रदर्शित की। लोग जंगल बचाने को दिन-रात जुटे थे। पंतकर अपने वक्तव्य में इस समस्या की ओर ध्यान आकृष्ट करते हैं। शहरीकरण की प्रक्रिया पर सवाल उठाते हैं और पूछते हैं कि इस अंधाधुंध शहरीकरण से स्थानीय ग्रामीणों को क्या लाभ मिलता है? सिवाय इसके कि उनकी जमीनों को औने-पौने दाम में खरीद लिया जाता है और एक खेतिहर किसान को देखते ही देखते दिहाड़ी मजदूर बनने पर मजबूर कर दिया जाता है। पालघर के ग्रामीणों की त्रासदी यह है कि यह न केवल मुंबई के नजदीक है, बल्कि गुजरात की सीमा पर भी है। इस कारण इस इलाके में लोगों में जमीन खरीदने की होड़ मची है। राज्य सरकार ने इस इलाके में जमीन की खरीदगी को आसान बनाते हुए नियमों में बदलाव किया। मसलन, 2014 में ही पालघर को जिला बनाने के साथ ही यहां खेती योग्य जमीनों को औद्योगिक भूमि में तब्दील करने की नीति को अमलीजामा पहनाया गया। इस इलाके में जमीन की कीमत में किस तरह वृद्धि हुई है, इसकी जानकारी राज्य सरकार के आधिकारिक वेबसाइट पर उपलब्ध है। मसलन, 2018-2019 में पालघर के इलाके में प्रति एक वर्ग मीटर जमीन की सरकारी कीमत 2040 रु पए थी। वहीं मुंबई के नजदीक वाले इलाकों में यह दर 2090 थी। वर्तमान वित्तीय वर्ष में यानी ठीक एक साल में यहां की जमीन की सरकारी कीमत 5950 रु पये है। मतलब पिछले वर्ष की तुलना में लगभग तीन गुना। बहरहाल, पालघर की घटना सरकार और उसके तंत्र के लिए एक संकेत भी है कि इलाके के लोगों में पनप रहे आक्रोश को समझें। यह भी समझना चाहिए कि गांव शहरों के लिए न तो डंपिंग यार्ड हैं और न ही उनके अंधाधुंध विस्तार का हिस्सा।

नवल किशोर कुमार
फॉर्वड प्रेस, नई दिल्ली के हिंदी संपादक


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