फीस बढ़ोत्तरी : व्यवसाय से इतर भी सोचें
पिछले सप्ताह दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने प्रेस कांफ्रेंस में बताया कि कोरोना आपदा के चलते लॉक-डाउन के इस कठिन दौर में भी अधिकांश स्कूलों द्वारा फीस बढ़ोत्तरी और स्कूलों की छुट्टियां होने के बावजूद यातायात शुल्क के जबरन वसूली की बहुतायत शिकायतें आ रही हैं।
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इस क्रम में सरकार के फैसले के बारे में बताते हुए सिसोदिया ने कहा कि लॉक-डाउन के दौरान कोई भी स्कूल बच्चों के फीस के नाम पर केवल ट्यूशन फीस ही लेगा, वो भी मासिक।
अभिभावकों को बड़ी राहत देने वाले इस सराहनीय फैसले के आगे एक चेतावनी भी दी गई कि आपदा की इस घड़ी में कोई भी स्कूल ना तो यातायात शुल्क लेगा और ना ही सरकार के बिना पूर्व अनुमति के अपने फीस में कोई बढ़ोत्तरी करेगा अन्यथा उसके ऊपर दिल्ली बेसिक एजुकेशन एक्ट और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 के तहत कार्रवाई होगी। विदित हो कि किसी भी फैसले की कीमत इस बात पर निर्भर करती है कि फैसला कब, कैसे और किसके द्वारा लिए जाता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि दिल्ली सरकार ने सही समय पर सही फैसला लेते हुए अपना फर्ज पूरा किया है, लेकिन अगर ये फैसला स्कूल प्रशासन या स्कूल एसोसिएशन के पदाधिकारियों द्वारा लिया जाता, तो इसे और भी प्रभावीऔर खुबसूरत बनाया जा सकता था।
हर राज्य की स्थिति कमोबेश एक जैसी है, लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि दिल्ली की जिस शिक्षा व्यवस्था को वैश्विक स्तर पर सराहा जा रहा है; वहां के स्कूलों की इतनी भी समझ नहीं रही कि लॉक-डाउन में जब स्कूल बंद हैं तो कैसा यातायात शुल्क? उक्त फैसला अगर स्कूल प्रशासन द्वारा लिया जाता तो तनाव की इस घड़ी में न केवल सरकार को बल मिलता बल्कि स्कूल और अभिभावक के रिश्तें भी प्रगाढ़ होते।। साथ ही स्कूलों की व्यावसायिक छवि में भी सुधार होता; पर ऐसा नहीं हुआ। और एक बार फिर इस बात को बल मिला कि स्कूलों के लिए शिक्षा, संस्कार और समाज निर्माण की नहीं बल्कि व्यवसाय की विषयवस्तु है। नैतिकता पढ़ाने वाले स्कूलों ने नैतिकता को जीने का एक बड़ा मौका गवां दिया है।। ऐसे में स्कूल प्रशासन सरकार पर कोई अतिरिक्त बोझ डाले बगैर, सरकार के अपील का क्रियान्वयन कर लेता है तो ये भी एक सराहनीय कदम होगा। दिल्ली सरकार के इस फैसले का राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव भी एक बड़ा विमर्श है। इस फैसले से दिल्ली के अभिभावक राहत में जरूर हैं। लेकिन दूसरे राज्य के अभिभावकों की गुफ्तगू कुछ यूं है कि काश वो भी दिल्ली में होते। इसमें कोई दो राय नहीं कि राज्य सरकारें अपने लोगों के लिए बेहतर और सराहनीय फैसले ले रहीं हैं, लेकिन इन अलग-अलग लिये जा रहे फैसलों से राहत के अवसरों में भारी असमानता का वातावरण बन रहा है।। कोरोना एक राष्ट्रीय आपदा है तो इससे राहत के प्रयासों में भी राष्ट्रीय समन्वय लाजिमी है, ताकि हम आपदा से बचाव के साथ साथ प्रत्येक नागरिक के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करते हुए सबको समान अवसर मुहैया करा सकें। ठीक इसी प्रकार कर्नाटक सरकार द्वारा कंपनियों से कर्मचारियों की छंटनी पर एक एडवायजरी जारी करनी पड़ी। कर्नाटक सरकार ने कंपनियों को सुझाया कि वो कर्मचारियों को निकालने के बजाय वेतन में कटौती कर काम चलाए।
लॉक-डाउन के दौरान दिल्ली सरकार द्वारा बच्चों के फीस से संबंधित निर्णय हो या कर्नाटक सरकार द्वारा कंपनियों से कर्मचारियों को ना निकाले जाने संबंधी अपील; इस विकट परिस्थिति में सहयोग, संयम और समझदारी भरी सामान्य सी बातों पर सरकारों द्वारा एडवायजरी के साथ-साथ, उसे न मानने संबंधी चेतावनी जारी करना भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए शर्मनाक है। अपने कर्मचारियों द्वारा अधिकतम उत्पादन कराने में माहिर, कंपनियों के मानव संसाधन विभाग का कर्मचारियों के सुरक्षा के मामलें में हाथ खड़ा कर देना, लाचारी कम गैरजिम्मेदारी ज्यादा है।
कर्तव्यविमुखता का आलम यही रहा तो यह कोरोना से भी बड़ा संकट बन सकता है। वर्तमान आपदा से निपटने की एक स्वस्थ परिपाटी के साथ देश में एक संवेदनशील लोकतांत्रिक सोच विकसित करने की जरूरत है। सरकार हमारी है और हम सरकार के हैं। वर्तमान लड़ाई हम सब को मिल-जुलकर लड़ने की जरूरत है। आपदा किसी के लिए भी जिम्मेदारी है अवसर नहीं। औपचारिक और अनौपचारिक सभी प्रकार के प्रयासों के समन्वय से ही जीत संभव है।
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