अर्नब प्रकरण : ये कैसी राजनीति?

Last Updated 28 Apr 2020 01:21:50 AM IST

कांग्रेस बनाम अर्नब गोस्वामी और रिपब्लिक मीडिया मामले में जिस तरह पूरा देश आलोड़ित हुआ वैसा पहले नहीं देखा गया।


अर्नब प्रकरण : ये कैसी राजनीति?

पत्रकारों पर पहले भी मुकदमे हुए, उनको गिरफ्तार कर यातनाएं दी गई, उनके परिवारों को परेशान किया गया, अनेकों की हत्याएं भी हुई, लेकिन ऐसा संभवत: पहली बार हुआ है कि एक पार्टी बाजाब्ता खुल्लम-खुल्ला किसी पत्रकार के खिलाफ आपराधिक मामलों में अलग-अलग राज्यों में कई सौ की संख्या प्राथमिकी दर्ज करा रही हो तथा न्यायालय में मामला भी।
अर्नब के खिलाफ कांग्रेस शासित राज्यों राजस्थान, छत्तीसगढ़, पंजाब, महाराष्ट्र, झारखंड के अलावा तेलांगना एवं जम्मू एवं कश्मीर में प्राथमिकी पार्टी के नेताओं द्वारा दर्ज कराई गई। कुल मिलाकर पूरी रणनीति ऐसी थी कि चारों ओर से पुलिस उनको गिरफ्तार करने पहुंचे, एक जगह गिरफ्तारी हो और जमानत मिले तो दूसरी जगह गिरफ्तार हो जाएं। यह नहीं कहा जा सकता कि बिना केंद्रीय नेतृत्व की सहमति के पार्टी में चारों ओर बड़े-बड़े नेता मुकदमा दर्ज कराने लगें। जम्मू एवं कश्मीर के अंदर एक बड़ा कश्मीरी तबका हर उस पत्रकार से नाराज है, जिसने वहां अलगाववाद से लेकर कश्मीर के विशेषाधिकार का विरोध किया था। अर्नब इस श्रेणी की बड़ी आवाज रहे हैं। इसलिए संभव है मुकदमा करने वाले ने सोचा हो कि उन्हें पुलिस का सहयोग मिल जाएगा।

बहरहाल, सर्वोच्च न्यायालय ने अर्नब को राहत दे दिया है। सारे मामले पर स्थगनादेश मिल गया, नागपुर के मामले को मुंबई स्थानांतरित करने का आदेश हुआ तथा तीन सप्ताह तक उनके खिलाफ किसी कार्रवाई पर रोक रहेगी। इस तरह कांग्रेस की पूरी कुटिल रणनीति तत्काल विफल हो गई। हालांकि इसे अंतिम आदेश नहीं मानना चाहिए। संभव है आगे वे कुछ नई अपील के साथ आ जाएं। यदि पार्टी में उच्च स्तर पर यह तय हुआ है कि रिपब्लिक मीडिया एवं अर्नब को सबक सिखाना है तो वे अपने तई हरसंभव कोशिश करेंगे। मुंबई पुलिस ने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद 12 घंटों में पूछताछ का दो नोटिस दिया मानो सर्वाधिक आवश्यक यही हो। इस मामले ने लोकतंत्र के अंदर पत्रकारिता और राजनीतिक दलों की भूमिका, दोनों के अंतर्सबंध, एक दूसरे के प्रति व्यवहार आदि को फिर से बहस में ला दिया है। देश का संविधान हर व्यक्ति को कुछ निश्चित सीमा के साथ अभिव्यक्ति का अधिकार देता है। पत्रकारों के लिए संविधान में कोई अलग से व्यवस्था नहीं है। जन सूचना, जन शिक्षण, राजनीतिक दलों को मर्यादा में रहने तथा जन सेवा की मूल अवधारणा से आवद्ध रखने के लिए काम करने की भूमिका के कारण पत्रकारिता का दायित्व बढ़ जाता है। संविधान में कहीं नहीं लिखा है कि हमें राजनीति को इस तरह दबाव में रखना है कि वो लोकतांत्रिक आचरण तथा जन हित से बाहर जाने से बचें, पर हमारी भूमिका में वो है। जब हम समाचार लिखते या बोलते हैं तो हम विचार देने से बचते हैं। जहां विचार प्रस्तुत करना है, बहस करनी है वहां तो हर पत्रकार को उसी तरह अपना राजनीतिक मत रखने का अधिकार है जैसे किसी अन्य को। अगर किसी पत्रकार को लगता है कि कोई पार्टी या सरकार गलत दिशा में जा रही है, तो वह पार्टी एवं नेताओं की तीखी आलोचना करेगा। इसी तरह उसे लगता है कि कोई पार्टी या सरकार अच्छा काम कर रहा है तो वह प्रशंसा करेगा।
अगर अर्नब गोस्वामी के मत में कांग्रेस और उसका प्रथम परिवार तथा अन्य नेता गलत हैं तो इसे रखने का उनको पूरा अधिकार है। पालघर में साधुओं की योजनापूर्वक हुई हत्या के बाद कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी पार्टयिों ने जैसी शर्मनाक चुप्पी साधी उससे पूरे देश में गुस्सा बढ़ा। इसको अभिव्यक्त करना भी पत्रकार के नाते हमारी भूमिका है। जब किसी मुसलमान की भीड़ द्वारा हत्या होती है तो सोनिया गांधी से लेकर, राहुल, प्रियंका और कांग्रेस के अन्य नेता हाहाकार मचा देते हैं, बिना जांच के भाजपा और आरएसस को अपराधी साबित कर देते हैं। लेकिन जब किसी हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख और उसमें भी भगवाधारी साधू-संत-संन्यासी की हत्या कर दी जाए तो इनके मुंह में दही जम जाता है। अगर अर्नब गोस्वामी ने यह प्रश्न उठाया और सोनिया, राहुल, प्रियंका वाड्रा पर तीखे प्रहार किए तो इसमें गलत क्या है? हम सब लोगों ने अपने-अपने तरीके से इस पहलू को उठाया है। तब भी यदि कांग्रेस को आपत्ति थी तो उसका लोकतांत्रिक तरीका यही है कि आप पत्रकार वार्ता बुलाकर उसमें विरोध दर्ज करा सकते थे। मानहानि का भी मुकदमा किया जा सकता था, लेकिन देश भर में आपराधिक मुकदमा दर्ज करने का अर्थ है कि आप आतंकित कर पत्रकार का मुंह बंद कराना चाहते हैं। केवल छत्तीसगढ़ में 103 मुकदमे हुए।
आपका यह भी उद्देश्य हो सकता है कि अगर अर्नब जैसे शक्तिशाली पत्रकार को कानूनी रूप से परेशान कर दिया या कुछ दिनों जेल में रहने को मजबूर कर दिया तो मीडिया के दूसर घराने भय से तीखी आलोचना से बचेंगे। संसदीय लोकतंत्र में किसी पार्टी की यह सोच डर पैदा करती है। यह अलोकतांत्रिक, अनैतिक, अधिनायकवादी, फासीवादी सोच और व्यवहार का पर्याय है। यह तो देश का दुर्भाग्य है कि पत्रकारों में वैचारिक तौर पर इतने तीखे विभाजन हो गए हैं कि राष्ट्रवादी सोच वालों के साथ स्वनामधन्य पत्रकारिता के पुरोधा, एडिटर्स गिल्ड, प्रेस क्लब कोई खड़ा नहीं होता। लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देने वाले इन पत्रकारों ने एक ट्वीट तक इसके विरोध में नहीं किया। जिनने किया वो भी इनकी नजर में घृणा के पात्र हैं। यह एक लड़ाई जिसे हमें लड़ना ही होगा। कांग्रेस के अंदर किस तरह का वातावरण बना है कि प्रदेश सरकार के मंत्री और अध्यक्ष तक प्राथमिकी दर्ज करा रहे हैं। युवा कांग्रेस के जिन दो नेताओं ने अर्नब और उनकी पत्नी को पीछा कर हमला करने या स्याही फेंकने की कोशिश की; उसके बारे में कहा जा रहा है कि उसे सोनिया, राहुल या प्रियंका ने तो कहा नहीं होगा।
मूल बात है पार्टी के अंदर के वातावरण का। अंदर जब यह माहौल बना दिया गया हो सोनिया जी, राहुल जी और प्रियंका जी अर्नब एवं रिपब्लिक को सबक सिखाना चाहते हैं तो फिर ऐसे लोग हमले की कोशिश करेंगें। इसलिए कांग्रेस नेतृत्व इससे अपने को बरी नहीं कर सकता। यहां विचार करने वाली बात यह भी है कि अर्नब समर्थ हैं तो उनके लिए शीर्ष न्ययालय में बड़े वकील खड़े हो गए। अगर छोटे और कम सामथ्र्य वाले पत्रकारों के साथ ऐसा हो तो उनका क्या होगा? इसलिए ऐसे आचरण का जितना संभव है विरोध किया जाएगा।

अवधेश कुमार


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