सामयिक : भारत-निंदक सैंडर्स का हटना

Last Updated 15 Apr 2020 12:21:46 AM IST

सीनेटर बर्नी सैंडर्स, मशहूर भारत-निंदक, रण छोड़ गए। अमेरिका के 46वें राष्ट्रपति निर्वाचन में बिना दौड़े अपनी पराजय स्वीकारी।


सामयिक : भारत-निंदक सैंडर्स का हटना

अब डेमोक्रेटिक पार्टी के एकमात्र प्रत्याशी जोई बिडेन वर्तमान डोनाल्ड ट्रंप को चुनौती देंगे। सात माह बाद मतदान है। बिडेन उपराष्ट्रपति थे, जब बराक ओबामा राष्ट्रपति रहे। अब ट्रंप को पटकनी देने के लिए डेमोक्रेटिक पार्टी का प्रयास अनवरत है कि मिशेल ओबामा को जोई बिडेनको उपराष्ट्रपति का प्रत्याशी नामित करे। अेत वोटों के दबाव से तराजू के पलड़े झुक जाते हैं। चार साल पूर्व एक बिल्डर लॉबी का व्यापारी डोनाल्ड जॉन ट्रंप अप्रत्याशित रूप से चुनाव जीता केवल इसीलिए कि ट्रंप ने ेत वोटरों को उलाहना की थी। वे सब घर पर आराम करते रहे और अेतों के वोट से ओबामा जीत गए थे। अब माजरा बदल गया। आलोचकों और विरोध के बावजूद ट्रंप ने अत्यंत सुदृढ़ प्रत्याशी हिलेरी क्लिंटन को 2011 में हरा दिया था।
सैंडर्स के कारण संयुक्त राज्य अमेरिका में श्रमजीवी वर्ग, युवजन, नारी समुदाय और निम्न मध्यम वर्ग वाले को गत माह तक डेमोक्रेटिक पार्टी की स्थिति बेहतर लगी थी। सैंडर्स अपने को लोकतांत्रिक समाजवादी बताते हैं। उनका जन हितकारी कार्यक्रम भी बहुत लुभावना था। सभी को स्वास्थ्य और निशुल्क चिकित्सा लाभ का वादा था। वंचितों को शिक्षा मुफ्त थी। मगर सभी अभियान भ्रूण की अवस्था में रह गए। गर्भपात जैसा हो गया, जब सैंडर्स ने गत सप्ताह अपना नाम वापसी घोषित कर दी। हालांकि सैंडर्स का समाजवादी समाज वाले अभियान से ज्यादा दिलचस्प होता कि सैंडर्स पहले यहूदी राष्ट्रपति होते।

जॉन कैनेडी प्रथम रोमन कैथोलिक धर्म के राष्ट्रपति थे।  यूं तो अमेरिका यहूदी इस्रइल का श्रेष्ठतम मित्र है, पर आम इसाई वोटर यहूदी से दूरी रखता है। सैंडर्स के साथ दूसरी बाधा है कि उनसे प्रभावित जनसमूह में वे लोग अधिक हैं, जो मतदाता नहीं हैं। मसलन विदेशी घुसपैठिये, छात्रवर्ग, आयातित श्रमिक वर्ग आदि। इस बार कोरोना विषाणु भी खास मसला है। अभी तक ट्रंप के विरोधी इसे मुद्दा नहीं बना पाए। और चीन पर ट्रंप के लगातार हमलों से ट्रंप पर अक्षमता का दोषारोपण चिपक नहीं रहा है। सैंडर्स के नामांकन की खबर से भारत में असहजता काफी हो गई थी। खान मोहम्मद इमरान खान से अपनी भेंट पर सैंडर्स ने कश्मीर के मसले पर भारत पर काफी तीव्र हमला किया था। इस्लामाबाद में हुई इस निंदा की गूंज छह सौ किलोमीटर दूर नई दिल्ली में भी तेजी से प्रतिध्वनित हुई थी। मोदी सरकार द्वारा धारा 370 को निरस्त करना, राज्य के दरजे से सिकोड़कर घाटी और जम्मू को केवल केंद्र शासित प्रदेश बना डालना, लद्दाख को स्वायत्त बना देना आदि गत सात दशकों के वे दुखती रगें थीं जिन्हें सैंडर्स ने फिर दबाया और इस्लामी पाकिस्तान से अपना अनुराग दर्शाया। इसी कारण से जब सैंडर्स ने राष्ट्रपति निर्वाचन से अपना प्रस्ताव वापस ले लिया तो भारतीय राजनियकों को सुकून मिलना स्वाभाविक था । यूं भी अमेरिकी राष्ट्रपति और रूस का प्रधानमंत्री कौन है, कैसा है?  और दृष्टिकोण कैसा रहेगा? इसी पर भारत की विदेश नीति बड़े पैमाने पर निर्भर करती है। सोवियत संघ के विखंडन के बाद से पूर्वी गुट से भारत का रिश्ता कुछ उदासीन जैसा हुआ है।
अमेरिका में जब भी रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति रहे; पाकिस्तान भारत पर बीस पड़ता रहा। पहली बार ट्रंप के आने से अमेरिका-भारत रिश्ते काफी मधुर हुए हैं। इसका श्रेय केवल नरेंद्र मोदी को जाता है। स्वतंत्रता के तुरंत बाद प्रत्येक अमेरिकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा एक महती घटना बनती रही है। ताजा तो ट्रंप की रही। मगर सर्वप्रथम थी दिसम्बर 1969 में जब द्वितीय विश्व युद्ध के महानायक जनरल डी.डी. आइजनहोवर ने दिल्ली की यात्रा की थी। हिटलर और टोजो (जापानी तानाशाह) को हराने वाले आइजनहोवर के प्रति आम भारतीय का आकषर्ण सहज और गहरा था। उनकी यात्रा पर अमेरिकी राष्ट्रपति चाहते थे कि तिब्बत पर कम्युनिस्ट चीन का साम्राज्यवादी कब्जा मुख्य विषय हो। पर उस दौर में नेहरू ‘भारत-चीनी भाई-भाई’ के नशे में डूबे थे। जब थमा तो चीन ने लद्दाख, अरुणाचल और पाकिस्तान-अधिकृत कश्मीर के टुकड़े को हथिया लिया था। संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में भारत की सदस्यता पर भी वार्ता टल ही गई। इतना नेहरू ने कहा जरूर कि ‘जनरल आइजनहोवर मेरे दिल के टुकड़े को ले गया।’
आइजनहोवर के साथ उपराष्ट्रपति रहे र्रिचड निक्सन भी दो बार भारत आए थे। पर निक्सन भारत, विशेषकर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से रिश्तों में ऊष्मा नदारद थी। तभी बांग्लादेश मुक्ति का मसला भी सफलतापूर्वक हल हो गया। निक्सन ने अपने मित्र पाकिस्तानी राष्ट्रपति मार्शल आगा मोहम्मद याह्या खान की मदद में अमेरिका के युद्धपोत को रवाना कर दिया। यह आणविक हथियार से लैस था। तब तक माशर्ल सैम मानेक शॉ ने पाकिस्तान तोड़ दिया था। ढाका आजाद हो गया था। खिन्न निक्सन ने इंदिरा गांधी को ‘बूढ़ी डायन’ कहा था। व्हाइट हाउस टेप में निक्सन की टिप्पणी दर्ज है। निक्सन समझते थे कि इंदिरा गांधी सोवियत गुट में शामिल हो गई हैं। हालाँकि इसके पूर्व चीन द्वारा सीमा पर आक्रमण (अक्टूबर 1962)  पर नेहरू ने राष्ट्रपति कैनेडी से एक दिन में दो-दो पत्र लिखकर सैनिक मदद मांगी थी। अमेरिका से मधुरतम रिश्ते रहे, जब जिमी कार्टर राष्ट्रपति के रूप में यात्रा पर 1978 में आए थे। तब मोरारजी देसाई जनता पार्टी के प्रधानमंत्री थे। बिल क्लिंटन की मार्च 2000 में अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में अत्यधिक सफल रही। दो दशकों के अंतराल में किसी अमेरिकी राष्ट्रपति की यह पहली भारत यात्रा थी। रोनाल्ड रीगन तथा जॉर्ज बुश कभी नहीं आए। उन्हें रूचि भी नहीं थी।
क्लिंटन से अधिक उनकी पत्नी हिलेरी ही जनप्रिय थीं। वे अकेले भी भारत आई। वस्तुत: जब वे चार वर्ष पूर्व ट्रंप से पराजित हुई थीं तो कई भारतीय बड़े गमगीन हुए थे। जॉर्ज बुश (कनिष्ठ) की मार्च 2006 की भारत यात्रा से पुराने नाते हरे हो उठे। बुश ने प्रधान मंत्री सरदार मनमोहन सिंह का रेखाचित्र भी बनाया था। उसका कारण भी रहा कि पहली बार भारत और अमेरिका में आणविक संधि पर हस्ताक्षर हुए थे। बराक ओबामा और उनकी पत्नी की दोनों यात्रा (2010 तथा 2015 में)  संबंधों को सुधारने में सहायक थे। तभी मुंबई में कसाब का हमला हुआ था। जब 2015  के गणतंत्र दिवस पर ओबामा मुख्य अतिथि बनकर आये थे तो नरेन्द्र मोदी का नारा था, ‘चले साथ, साथ।’ अब ट्रंप के साथ मोदी ऐसा ही साथ चाहते हैं।

के. विक्रम राव


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