स्वास्थ्य सुविधा : बिहार को तैयारी की ज्यादा जरूरत
विश्व स्वास्थ्य संगठन के स्वास्थ्य इंडेक्स में भारत 112वें स्थान पर है। इसमें कोई अचरज भी नहीं क्योंकि जहां अमेरिका अपने जीडीपी के 8।5 प्रतिशत से ज्यादा जन स्वास्थ्य पर खर्च करता है वहीं भारत अपने जीडीपी का मात्र एक से डेढ़ प्रतिशत के बीच जन स्वास्थ्य पर खर्च करता रहा है।
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जन स्वास्थ्य के मामले में नीति आयोग के अनुसार विगत वर्षो में आंध्र प्रदेश आठवें से दूसरे और महाराष्ट्र छठे से तीसरे स्थान पर आ गया है। यहां तक की राजस्थान ने भी बेहतर काम कर चार पायदान ऊपर चढ़ा। पर बिहार सबसे खराब प्रदर्शन करते हुए जन स्वास्थ्य सुविधा में उन्नीसवें से अब बीसवें स्थान पर आ गया है। यानी सबसे नीचे से एक ऊपर। अच्छा प्रदर्शन करने वाले राज्यों में यह अनायास ही नहीं हुआ बल्कि राज्य का बजट बनाते समय जन स्वास्थ्य सुविधाओं को प्राथमिकताओं में लेते हुए अपने स्टेट जीडीपी का औसतन ज्यादा खर्च किया। जिला अस्पतालों को ही नहीं बल्कि प्राथमिक स्वास्थय केंद्रों की मूलभूत संरचना को भी मजबूत किया। इन राज्यों में नर्स, एएनएम, डॉक्टर, टेक्नीशियन के दस से पंद्रह प्रतिशत से भी कम पद रिक्त हैं।
यह दीगर है कि मानव संसाधन के बिना जन स्वास्थ्य सुविधओं के किसी भी सूचकांक को बेहतर नहीं किया जा सकता। बिहार के स्वास्थ्य विभाग पर नजर डालें तो दिखता है कि नीतीश सरकार की जन स्वास्थ्य सेवा कभी प्राथमिकता में रही ही नहीं। बिहार के स्वास्थ्य विभाग में लम्बे समय से नियमित डॉक्टर, नर्स, एएनएम की घोर कमी के बाद 2016 से पहले ही संविदा पर बहाली के लिए डॉक्टर के 2314 पद स्वीकृत किए गए, जिसमें चार साल गुजरने के बाद भी मात्र 531 डॉक्टर ही बहाल हुए। उसी तरह संविदा पर नर्स के लिए 1719 पद स्वीकृत किए गए, जिसमें अब तक सिर्फ 308 नर्स की ही बहाली हुई। डॉक्टर्स और शिक्षक जहां नियमित होने चाहिए; वहां बिहार सरकार नियमित बहाली कि बात तो दूर रही विभाग को कामचलाऊ रखने के लिए सरकार संविदा पर बहाली के लिए वर्षो पहले निर्णय लिये। और जितने पदों को स्वीकृत किया वह भी नहीं भरा। नतीजतन पूरे विभाग में करीब 70 प्रतिशत पद खाली हैं। कल्पना करना मुश्किल नहीं की सरकार आमजनों को कैसी स्वास्थ्य सुविधा मुहैया करा रही है और आगे कोरोना से कैसे लड़ेगी? कोरोना के मद्देनजर कई जिलों के बारे में मिली जानकारियां चिंता में इजाफा ही करती है। मसलन; शिवहर जिला के सदर अस्पताल में विशेषज्ञ चिकित्सकों की तो बात छोड़े वहां न तो आसीयू यूनिट और ना ही एक भी वेंटिलेटर है। उसी तरह शेखपुरा जिले के सदर अस्पताल में भी कोई वेंटिलेटर नहीं है। आईसीयू यूनिट लगाया गया पर उसके संचालन के लिए कर्मी ही नहीं दिए गए। वहां के सदर अस्पताल में गाइनिक, सर्जन ही नहीं मेडिसिन तक के डॉक्टर नहीं हैं। कई जिला सदर अस्पताल में महिला चिकित्सक तक नहीं है। पीपीई (पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्यूपमेंट) की बात तो दूर; मेडिकल कॉलेज के डाक्टरों एवं स्वास्थ्यकर्मिंयों ने ग्लव्स और मास्क नहीं मिलने पर इलाज करने में असमर्थता जाहिर की है। कोरोना जैसे महामारी से लड़ाई में हमारे डॉक्टर और स्वास्थकर्मी ही सेनानी हैं। यदि इस लड़ाई 70 प्रतिशत अधिक सैनिक ही बिना असलहे के हों और जो हैं वो सब कुछ दांव पर लगाकर लड़ने की हिम्मत दिखाए और उन्हें भी सरकार बुनियादी सुविधा मुहैया नहीं करा पाई तो स्थितियां भयावहता की तरफ इशारा करती है। अन्य सभी राज्य औसतन जहां शिक्षा, स्वास्थ्य और समाज कल्याण पर प्रति व्यक्ति 9524 रु पये खर्च करते हैं, वहीं बिहार महज 5043 रु पये खर्च करती है।
नीतीश सरकार ने सड़क एवं भवन निर्माण इत्यादि पर तो खर्च किया, जिसका असर बढ़ा हुआ जीडीपी में भी दिखा पर स्वास्थ्य सहित उन तमाम क्षेत्रों को नजरअंदाज किया, जिसकी परिणति है कि बिहार विभिन्न मानविकी सूचकांकों के निचली पायदान पर दिखता है। कोरोना वायरस कि मूल उत्पत्ति का कारण, उपयुक्त दवा और टीका अभी भी नहीं आ पाया है। बताया जाता है कि कोरोना से संक्रमित लोगों में 20 प्रतिशत से भी कम लोगों कि मृत्यु होती है। बीसीजी का टीका लेने वालों और जिनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बेहतर है; उनमें कोरोना के संक्रमण का खतरा थोड़ा कम है। भारत में यह टीका नियमित तौर पर बच्चों को दिया जाता है। बिहार सरकार फिलहाल स्थिति सामान्य होने तक निजी अस्पताल के डॉक्टर्स एवं स्वास्थ्यकर्मिंयों को तत्काल बहाल करे। ये ठीक है कि बिहार में कोरोना संक्रमितों कि संख्या अभी सौ से कम है, पर जिस तरह से सीवान में एक ही परिवार से 23 व्यक्ति कोरोना संक्रमित मिले; वह इसी तरफ इशारा करती है कि हालात कभी भी बदल सकते हैं।
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