महाराष्ट्र : सूरज पड़ा मद्धम
महाराष्ट्र का राजनैतिक नाटक अगर षड्यंत्रकारी ढंग से मुख्यमंत्री बने देवेन्द्र फडणवीस के इस्तीफे के साथ एक मुकाम पर पहुंची लगता है तो काफी राहत देने वाली चीज है।
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राहत आगे के लिए बहुत सुधार की उम्मीद से न होकर गिरावट की इंतहा न दिखने से है। भाजपा-शिवसेना का गठबंधन विधानसभा चुनाव जरूर जीत गया था पर पूर्व से ही दांव-पेंच चालू हो गए थे। मुकाबले वाला कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन कहीं लड़ाई में नहीं लग रहा था। चुनावी लाभ के लिए एनसीपी नेता शरद पवार और उनके भतीजे अजित पवार ही नहीं, उनके करीबी माने जाने वाले पूर्व केंद्रीय मंत्री प्रफुल्ल पटेल के खिलाफ के भ्रष्टाचार के मामलों का इस्तेमाल उन्हें दबाने के लिए किया जाने लगा था। शायद यही तरीका नाराज शिवसेना को बराबर-बराबर की सीट लड़ने के आम चुनाव के वायदे से नीचे उतरने के लिए किया गया। कांग्रेस तो मरी सी रही पर शरद पवार ने प्रवर्त्तन निदेशालय के नोटिस समेत केंद्र सरकार के इस ‘भ्रष्टाचार निवारण अभियान’ को यह घोषित करके चुनावी मुद्दा बनाया कि वे खुद से सरेंडर करने जा रहे हैं। तब चुनावी हवा प्रभावित होते देखकर इस तरीके को रोका गया पर चुनावी नतीजे आते ही वही खेल शुरू हो गया। पर शरद ‘बड़े चाणक्य’ हैं और नरेन्द्र मोदी के ‘चाणक्य’ अमित शाह अभी प्रोबेशन पर हैं, यह साबित हो गया।
चुनाव में भाजपा गठबंधन को मिली साफ जीत भी मोदी-शाह के व्यवहार और अहंकार की भेंट चढ़ गई क्योंकि शिवसेना ने काफी समय से अपने साथ किए जा रहे व्यवहार और अपनी घटती ताकत को आधार बनाकर सत्ता की ज्यादा बड़ी सौदेबाजी शुरू की। महाराष्ट्र में पिछले चार बार से सत्ता, मंत्रालय, और मंत्रालयों के बजट के आधार जो गठबंधन सरकारें बनती रही हैं, इस बार भी यह क्रम बना रहा तो सबको लगा कि यह स्वाभाविक मोल-तोल है, या जनता के हाथ से लोकतंत्र की बागडोर छूटते ही नेताओं की धंधेबाजी। पर जब काठ की तलवार की लड़ाई ने ही ऐसी स्थिति बना दी कि भाजपा और शिवसेना, दोनों के लिए झुकना मुश्किल हो गया तो असली चाणक्य सक्रिय हुए। उन्हें अपनी एनसीपी के साथ कांग्रेसी विधायकों की तरफ से भी खेल करने का लाभ था। भाजपा शायद आखिर तक सत्ता की अकड़, शिवसेना की कुछ मजबूरियों और ईडी-सीबीआई जैसी एजेंसियों की ताकत के भरोसे अकड़ी रही। उसके किसी भी ढंग के नेता ने शिवसेना से कोई बात करनी जरूरी नहीं मानी।
और शायद अपनी राजनैतिक मैनेजरी (जिसके सहारे इस जोड़ी और ‘चाणक्य अमित शाह ने कम से कम आधा दर्जन राज्यों में हारकर भी सरकार बनवा ली थी) पर अत्यधिक भरोसा ही था कि पहले शरद पवार को शिवसेना से गठबंधन करने दिया गया और जब ‘तीन पहिया’ की सवारी बनती लगी तो अजित पवार को साथ लेकर रातोंरात सरकार बनवा ली गई। इसमें ईडी-सीबीआई या राजनैतिक-मौद्रिक लाभ का कितना इस्तेमाल हुआ यह बताना मुश्किल है पर उनके बगैर यह सरकार बनी हो यह मान लेना उससे भी ज्यादा मुश्किल है। देर रात से शुरू हुआ नाटक सुबह शपथ ग्रहण के रूप में समाप्त हुआ और सीधे प्रधानमंत्री ने अपना आशीर्वाद (ट्विटर के जरिए) देकर इस बेमेल शादी पर मोहर भी लगा दी। इससे पहले राज्यपाल को किस तरह ‘नचाया’ गया, राष्ट्रपति का ‘इस्तेमाल’ हुआ और प्रधानमंत्री ने किस आफत के चलते कैबिनेट की बैठक के बिना ही अपनी स्वीकृति दी यह सवाल उठाने वाला कोई न था। अपयश का ठीकरा शरद पवार के सिर फोड़ा गया जिन्होंने सरकार बनने वाले दौर में ही राज्य के किसानों को राहत दिलवाने के लिए प्रधानमंत्री से मिलने की ‘गलती’ कर ली थी। और कुछ नहीं तो सरकार बनने के बाद अपने एक सांसद को शरद पवार से मिलने जाने की खबर ही उड़वा दी गई।
पर शरद पवार असली चाणक्य निकले। बढ़ती उम्र और गिरते स्वास्थ्य के बावजूद उन्होंने अगर जबरदस्त चुनाव अभियान चलाकर भाजपा-शिवसेना गठबंधन की चुनावी सफलता को (जिसको 225 सीटें आने की भविष्यवाणी की जा रही थी) थामा तो हर तरह से बेमेल ताकतों का गठबंधन बनाकर मोदी-अमित शाह की अपार शक्ति को खुली चुनौती दी और ‘बिल्ली’ के गले में घंटी बांधकर ही माने। महाराष्ट्र के झटके के बाद अचानक मोदी-शाह की जोड़ी और उसकी कार्यशैली सवालों के घेरे में आ गई है। मोहन भागवत जैसे शुभचिंतक तो नीति-वक्तव्य के सहारे कुछ सुधार चाहते हैं पर झारखंड में भाजपा के सहयोगी ही नहीं, उसके लोग भी बागी हो गए हैं। जदयू और लोक जनशक्ति पार्टी ही नहीं, सरकार में भागीदार आजसु भी अलग चुनाव लड़ रहा है। बिहार में जदयू के तेवर बदले हैं। हरियाणा में मंत्रिमंडल विस्तार आसान नहीं रहा। एनडीए को जिंदा करने की मांग खुलकर उठाई जाने लगी है।
दूसरी ओर, महाराष्ट्र के बहाने ही यूपीए के सहयोगी ज्यादा व्यवस्थित ढंग से न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर सबकी सहमति बनाकर आगे बढ़ना चाहते हैं। आगे क्या-क्या होगा यह भविष्यवाणी करना इस लेख का मकसद नहीं है। ना ही किसी एक जमात को तमगा देना ही क्योंकि जमाने तक कांग्रेस गठबंधन के साझीदार ढूंढ़ने की जगह उसकी सत्ता की पालकी ढोने वाले ही तलाशती रही है। उसे भी गठबंधन चलाना तभी आया जब अटलबिहारी वाजपेयी और जॉर्ज फर्नाडिस जैसे लोगों ने छह साल तक बीसेक दलों की सरकार सफलतापूर्वक चला ली। भारत जितनी विविधताओं का देश है, उसमें एक दल, एक नेता द्वारा हर क्षेत्र, हर सामाजिक और राजनैतिक समूह की इच्छा-आकांक्षाओं को पूरा करना असंभव है। जब कांग्रेस का एकछत्र राज था, तब भी तमिलनाडु, पंजाब और कश्मीर ही नहीं पूरे पूर्वोत्तर में नाराजगी थी, मध्य जातियां कांग्रेस से छिटकती थीं (इनका वोट समाजवादियों को जाता था) और मजदूर नाराज रहते थे। ये नाराज समूह कई रंग-रूप में विकसित हुए, राजनैतिक ताकत बने और धीरे-धीरे क्षेत्रीय राजनीति केंद्रीय भूमिका में आ गई थी। उसके क्या गुण-दोष थे, वह क्यों बढ़ी, क्यों बदनाम और कमजोर हुई और राष्ट्रीय दलों और नेताओं की क्या खूबी-खामी रही; यह चर्चा बहुत विस्तार की मांग करती है। पर अभी मोदी-शाह का सूरज शीर्ष पर पहुंच कर मद्धिम पड़ता दिखता है, तो उसे रेखांकित करने की जरूरत है। यह जरूरत और भी बढ़ जाती है जब लगता है कि यह जोड़ी मुल्क और समाज के बुनियादी स्वभाव या धर्म को न समझ कर अपनी चलाने लगी थी। महाराष्ट्र की चेतावनी उन्हें जगा दे तो उनका ही भला होगा।
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