मिलावटखोरी : इस ‘खेल’ को रौंदना जरूरी

Last Updated 28 Nov 2019 12:24:37 AM IST

अभी वायु प्रदूषण और दिल्ली में पेयजल विवाद खत्म भी नहीं हुआ था कि जीरे में मिलावटखोरी की खबर ने लोगों की चिंता कई गुना बढ़ा दी है।


मिलावटखोरी : इस ‘खेल’ को रौंदना जरूरी

पिछले हफ्ते दिल्ली में नकली जीरा बनाने वाले गैंग का पर्दाफाश किया है। गैंग झाड़ू वाली घास और पत्थर का चूरा मिलाकर नकली जीरा बना देता है। यह गैंग अब तक कई हजार किलो जीरा बनाकर बेच चुका है। ये नकली जीरे को असली जीरे में मिलाकर बेचते हैं ताकि कोई नकली जीरा पकड़ न सके। अब तक दूध, घी, मसाले, अनाजों में ही मिलावट की खबरें सुनते थे, लेकिन जीरे में मिलावट की खबर ने सबको सकते में डाल दिया है।  विशेषज्ञों के मुताबिक इसके सेवन से स्टोन का खतरा तो है ही, शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी कमजोर हो जाती है। बताया जा रहा है कि यह कैंसर की वजह भी बन सकता है।
लोगों में नैतिकता की कमी का ही नतीजा है कि मुनाफाखोरी के लिए उन्होंने खाने-पीने की राजमर्रा की चीजों को तो छोड़िये, सीमेंट जैसे उत्पाद को भी नहीं छोड़ा है। पिछले महीने ही दिल्ली से सटे नोएडा में ब्रांडेड कंपनियों के हजारों बोरी नकली सीमेंट का खेप पकड़ा गया। दिल्ली-एनसीआर समेत उत्तराखंड तक नकली सीमेंट बनाने वाले गोदामों के बारे में पता चला है। लिहाजा यह तो तय हो गया कि जिन्दगी पर हमला करने के नये-नये जानलेवा नुस्खे ईजाद किए जा रहे हैं और लोगों तक आसानी से पहुंच भी रहे हैं। कहने का आशय कि नकली और मिलावटी पदाथरे पर नजर रखने और उसकी रोकथाम का जिम्मा उठाने वाला विभाग औंधे मुंह पड़ा है।

उसकी सुस्ती या काहिली के चलते सैकड़ों लोगों की जान पर बन आई है। इसे किसी भी हालत में जमींदोज करने की जरूरत है। कहने की जरूरत नहीं कि नकली सीमेंट से किया गया निर्माण कमजोर होने के साथ ही कभी भी टूट कर गिर सकता है और इससे लोगों की जिन्दगी खतरे में आएगी। हाल ही में भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण ने दूध पर एक गुणवत्ता सर्वेक्षण रिपोर्ट जारी की थी। दूध के नमूनों में एफ्लाटॉक्सिन-एम1, यूरिया, डिटर्जेंट की मिलावट पाई गई और ये सभी प्रदूषक कैंसर को जन्म देने वाले हैं। कितनी चिंताजनक बात है कि हमलोग जिस दूध को पीकर सेहतमंद बनना चाह रहे हैं, वह पहले से ही प्रदूषित है। जो जीरा स्वास्थ्य के लिए बेहद फायदेमंद है, वह भी मिलावट की वजह से बीमारी की बड़ी वजह बनता जा रहा है। अलबत्ता सरकार ने मिलावट को रोकने के लिए सिंगापुर के ‘सेल्स आफ फूड एक्ट’ कानून की तर्ज पर खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम, 2006 जरूर बनाया है, मगर विडंबना है कि यह कानून सिर्फ  कागजों तक ही सीमित है। कानून का उल्लंघन करने पर अधिकतम सजा उम्रकैद है और दस लाख रु पये तक के जुर्माने का प्रावधान है। पर कई खामियों के चलते यह साबित कर पाना मुश्किल होता है कि मिलावटी पदार्थ से किसी व्यक्ति की तबीयत बिगड़ी है या उसकी मृत्यु हुई है। मिलावट के मामले में अब तक कई लोगों की गिरफ्तारी जरूर हुई है, परंतु कमजोर प्रावधान के चलते जुर्माना लेकर अभियुक्त को छोड़ दिया जाता है। नतीजतन, मिलावटखोरी का खुला खेल बेखौफ होकर फिर से होने लगता है। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि कोर्ट में ट्रायल में देरी व लचर तफ्तीश के कारण अभियुक्त को सजा तक नहीं दिला पाते। ऐसे में सवाल है कि क्या कुछ किए जाने की जरूरत है? इसके लिए तीन काम करने की जरूरत है। पहला तो यह कि पुराना हो चुके खाद्य सुरक्षा अधिनियम में संशोधन कर ऐसे प्रावधानों को शामिल किया जाए, जिससे गुनहगारों का बच निकलना दुार हो जाए। दूसरा, मामले की सुनवाई के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना की जाए।
यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि यह हमारी जिन्दगी से जुड़ा मसला है। तीसरा, खाद्य पदाथरे की जांच नियमित रूप से तीन महीनों के अंतराल पर कराई जाए। जब अर्थव्यवस्था की तिमाही जांच की जा सकती है तो खाद्य पदाथरे की क्यों नहीं? किंतु इन तमाम कवायद या कार्रवाइयों के तभी कोई मायने हैं जब सत्ता में बैठे लोग इस पर गंभीर हों। बेहद अफसोसनाक है कि केवल राजनीतिक रूप से फलदायक योजनाएं ही सरकार की प्राथमिकताओं में हैं। हालिया महाराष्ट्र के सियासी ड्रामे ने फिर दोहराया कि सत्ता के हुक्मरानों को सिर्फ सत्ता की मलाई की फिक्र है न कि उन लोगों की जो प्रदूषण और मिलावट के दुष्चक्र में फंसकर अकाल मौत की भेंट चढ़ जाते हैं। समझने की जरूरत है कि मिलावटयुक्त रोजमर्रा की चीजें सिर्फ  हमें रोगी नहीं बना रहीं, बल्कि पूरा समाज रोगी बन रहा है और एक रोगी समाज से प्रगति और विकास की उम्मीद तो कतई नहीं की जा सकती है।

रिजवान अंसारी


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