वैदेशिक : राम की कीर्ति में विश्व-नीति
भारत को ब्रिटिश साम्राज्यवाद से आजादी मिले 7 दशकों से भी अधिक समय व्यतीत हो चुका है लेकिन जब भी हम विदेश नीति की मूल संकल्पना का विच्छेदन करते हैं तो पाते हैं कि हमें लगतार इस बात के लिए विवश किया गया है कि हमारी विदेश नीति का उत्स या तो फ्रांसीसी कलाड-हेनरी डि-रावरी कॉम्टे डि सेंट साइमन के विचारों में है अथवा उन यूरोपीय नेताओं की नीतियों में जिन्होंने साम्राज्यों की स्थापनाएं एवं संस्कृतियों का ध्वंस किया है।
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ये विचारधाराएं यह बताती हैं कि हम सदैव एक ऐसे नाजुक दौर से गुजरते रहते हैं, जहां ‘सुनिश्चितता की संभावना नहीं’ जैसे सिद्धांत होते हैं, राजनीति होती है और अर्थनीति। यानी वहां नैतिकता को खोजना शायद बेमानी होगा।
अब यदि वहां नैतिकता का अभाव है तो यह कैसे माना जा सकता है कि उनकी नीतियों पर चलकर हम एक शांतिपूर्ण, प्रगतिशील विश्व की स्थापना कर सकते हैं अथवा हम वसुधैव कुटुम्बकम की स्पंदनशीलता और भावनात्मकता को प्रतिष्ठापित कर विबंधुत्व के मूल्य सुनिश्चित कर सकते हैं। अब जब भारत की एक नवीन राष्ट्रवादी परिकल्पना के साथ विदेश नीति को आगे बढ़ा रहा है और नए प्रतिमान हासिल कर रहा है, तब क्या हमें इस बात पर विचार करने की जरूरत नहीं है कि हम अपनी जड़ों की ओर देखें?
हमारी कूटनीति मूल तौर पर श्रीकृष्ण, विदुर और चाणक्य की मूल प्रतिस्थापनाओं पर आधारित रही है। जहां संवाद को प्राथमिकता दी गयी है, लेकिन ऐसा नहीं कि उसमें युद्ध का पुट नहीं है। हां, संवाद की अनिवार्यता है, लेकिन युद्ध के विकल्प भी हैं। लेकिन हम यदि थोड़ा सांस्कृतिक जड़ों की ओर लौटें तो हम श्रीराम और बुद्ध व महावीर के विचारों तक जा सकते हैं, जिन्होंने हमारी विदेश नीति के लिए एक बड़ा सांस्कृतिक फलक प्रदान किया। आज दीपोत्सव है, जिसमें सांस्कृतिक-आधात्मिक महात्म्य और राम की कीर्ति का मर्म छुपा है। इसलिए यहां पर हम राम की बात करेंगे जिनके मूल्यों और मर्यादोचित आचरण ने भारत को एक नैतिक आधार दिया है।
इसलिए हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं होगा कि राम भारतीयता के मूल हैं। इसलिए उनकी प्रतिष्ठा ही भारतीयता की प्रतिष्ठा है। फिर यदि हमारे देश के लोग कुछ नया नहीं सीखना चाहते या अपनी धरोहर की याद नहीं रखना चाहते तो उन्हें पूर्वी एशिया के देशों से कुछ सीखने की जरूरत है, जहां धर्म के बदल जाने के बाद भी राम उनके सांस्कृतिक मूल में हैं। वे लोग आज भी राम के चरित्र और कृतित्व से सीख लेते हैं, उनके आचरण का अनुपालन करते हैं और राम नामिकता को धारण करते हैं और ऐसा करते समय वे संकोच या शर्म का अनुभव नहीं करते और उनका धर्म भी उन्हें ऐसा करने से मना नहीं करता। फिर भारत में ऐसे संकोच क्यों?
जिसके व्यक्तित्व-कृतित्व ने भारत को प्रकाश की संस्कृति का केन्द्र बना दिया वे राम भारतीय जीवंतता और आत्मशक्ति के प्रतिनिधि हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में लिखा है-‘रामायण सत कोटि अपारा।’ इससे राम और रामायण की स्वीकार्यता के दायरे का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। वास्तव में राम की तरह दुनिया में कोई विजेता ही नहीं हुआ। उन्होंने बुराई पर विजय हासिल की, किसी देश की सम्प्रभुता को छिन्न-भिन्न नहीं किया। उनकी विजय में सत्य से सम्पन्न सर्वोच्च मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा थी, सर्वश्रेष्ठ आदशरे से युक्त नैतिकता थी और मर्यादा की वे रेखाएं थीं, जो मनुष्य को ईश्वर की श्रेणी में ला देती हैं।
यही कारण है कि मेडागास्कर से आस्ट्रेलिया तक देश-द्वीपों पर समग्र रूप में राम की कीर्ति प्रकाशित हो रही है। हालांकि अब तो पाश्चात्य देशों विशेषकर-रूस, जर्मनी, अमेरिका आदि में भी राम की प्रासंगिकता और प्रतिष्ठा बढ़ रही है। तब क्या हम यह कह सकते हैं कि श्रीराम सामरिक व रणनीतिक कुशलता के साथ-साथ सर्वोच्च मूल्यों से युक्त विदेश नीति के प्रणोता एवं स्वामी थे? बहरहाल अब राम की नगरी, जिसकी कीर्ति राम ने तापस वेश धारण कर चहुंदिश पहुंचायी थी, पुन: तापस वेशधारी योगी आदित्यनाथ के प्रयासों से उसी वैभव की ओर लौटती हुई दिख रही है। इसलिए यह इत्मीनान सा हो रहा है आने वाले समय में राम का विवाद हमारी विदेश नीति का आधार और राम की नगरी सांस्कृतिक विदेश नीति का न्यूक्लियस बनेगी।
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