मीडिया : राष्ट्रवाद और दो वक्त की रोटी

Last Updated 27 Oct 2019 06:22:41 AM IST

यह टीवी भी बड़ा दुष्ट माध्यम है। पहले वह एक ताकतवर हीरो या उसकी मूर्ति को बनाता है, फिर चढ़ाता है, और फिर गिराता है।


मीडिया : राष्ट्रवाद और दो वक्त की रोटी

और जब गिराता है, तो उसके लिए रोने वाले नहीं मिलते। टीवी के बनाए  नायकों की उम्र पंद्रह मिनट से अधिक नहीं होती लेकिन मतिमंद समझते हैं कि वे अमर हैं। कभी-कभी तो टीवी मूर्ति को उलटा लटका  देता है ताकि उसकी कामेडी का मजा लिया जा सके। पिछले दिनों टीवी ने कुछ ऐसा ही दिखाया है। कई ताकतवर मूर्तियां हिलती और लटकती नजर आई हैं कि चमचे तक कहने लगे : प्रभो चेत जाओ! ये ‘वेकअप कॉल’ है।  मीडिया एक ओर सत्ता से परेशान रहता है, तो दूसरी ओर जनता से भी परेशान रहता है। वह जानता है कि आज के जनतंत्र में जनता किसी की गुलाम नहीं हो सकती। उसका भी स्वत्व और अहंकार होता है।
वह जब टीवी पर किसी को सबसे ताकतवर, सबसे लोकप्रिय, सबसे चमत्कारी, सबसे अधिक गरजने-तरजने वाले के रूप में रोज-रोज देखती है, तो शुरू में तो ताली पीटती है कि चलो, अब जब सब चैनल उसे देवता और मुक्तिदाता बनाकर आरती कर रहे हैं, तो अपन भी धोक लगा देते हैं लेकिन जब यही रिकार्ड बार-बार बजता है तो जनता बोर हो जाती है। बोर होते ही लोग हीरो के रु तबे से बाहर हो जाते हैं। कभी-कभी तो उसको देखना-सुनना भी छोड़ देते हैं। जनता किसी भी देवता को चौबीस घंटे से ज्यादा ढोना पसंद नहीं करती। वह जानती है कि देवता उसी का बनाया है। उसे सिर न चढ़ाओ! अपनी जनता बहुत ही प्रैक्टिकल है। और अगर जनता की बनाई छवि ही उसको हीन और बेवकूफ बनाने लगे तो वह उस छवि को उस मूर्ति को किसी नदी में डुबो आती है  और नई ले आती है। यह अपनी जनता का परंपरागत ‘उपभोक्तावाद’ है।
उधर, मीडिया कृत मूर्ख ‘मूर्ति’ अपनी ताकत पर इतनी रीझी होती है कि भूल जाती है कि यह कलयुग तो है ही, मीडिया का बनाया कलयुगी उपभोक्तावादी समाज भी है जिन दिनों राजनीति भी जनता को उपभोक्ता समझती हो उसके वोट के हिसाब से उसे कुछ लेती देती या उपेक्षित करती हो उसी हिसाब से जनता भी राजनीतिक नायक या हीरो के साथ ऐसा ही सलूक करने लगती है। अगर हीरो कुछ न कुछ देकर उसका वोट लेना चाहता है तो पब्लिक भी उससे कुछ न कुछ ठोस चाहती है। लेकिन कुछ न देकर, अगर उसका देवता उसे ही बोर करने लगे, बड़ी-बड़ी हांकने लगे हैं और हर दम अपनी हीरोपंती पर इतराता रहे तो जनता उसकी सारी गलतफहमी एक झटके में दूर कर देती है। उसे ऊंचे सिंहासन से उतार कर धरती पर ले आती है। जनता अपने हीरो को अपने लाभ के लिए बनाती है,लेकिन वही नुकसान करने लगे तो उसे दिल से निकाल भी देती है। जिस के होते बैंकों में रखा जनता पैसा डूबता हो, किसान बदहाल हों, तब भी अगर वह मूर्ति अपने ‘अहंकार’ में डूबी रहे और किसी की न सुने और अपने सिवा सबको तुच्छ समझती रहे और जरा सी बात पर किसी को भी देश का दुश्मन बता देती हो तो जनता ऐसे ‘दुरहंकारी’ का अहंकार दूर  करने में देर नहीं करती।
दो राज्यों की जनता ने गुजरे चुनावों में यही किया है। ज्यों-ज्यों दो राज्यों के महानुभावों ने मीडिया में देशभक्ति, राष्ट्रवाद, एक देश एक नेता, एक पार्टी, एक चुनाव जैसे ‘केंद्रवादी राग’ अलापे त्यों-त्यों तंगहाल जनता ने वोट देते वक्त ‘दीवार’ फिल्म के ‘विजय’ के  डॉयलाग बोले कि जब तुम्हारे  राष्ट्रवाद, देशभक्ति और तुम्हारा अनु. 370 से दो जून की रोटी नहीं बन सकती तो इनका क्या करें? जब तुम युवाओं को नौकरी नहीं दे सकते तो तुम्हारा क्या करें? अगर तुम मंदी को ठीक नहीं कर सकते तो क्या तुम्हारी देशभक्ति से अपना पेट भरें! तुम एक देश, एक नायक, एक पार्टी चाहते हो जबकि ये देश न जाने कब से ‘बहुदेववादी’,‘बहुप्रदेशवादी’ और ‘बहुदलवादी’ और ‘बहुसंगठनवादी’ है। यहां एक देवता सबका देवता नहीं होता, न हो सकता है।
इसीलिए इस चुनाव में जनता ने ताकतवरों को एक झटका दिया है, कि राष्ट्रवाद का मतलब स्थानीय हितों की कुर्बानी नहीं है। जिस तरह से सूरदास की गोपियों ने अद्वैतवादी उद्धव के निर्गुण ईश्वर की अनुपयोगिता पर प्रश्न उठाए थे और अपने-अपने ‘कृष्ण’ बनाए थे, उसी तरह इन दो राज्यों की जनता ने आज के अहंकारी उद्धवों के ‘मुक्ति के वृत्तांत’ को पंक्चर कर दिया है। आप यह पंक्चर को ठीक भले करा लो, आपका ‘रुतबा’ तो गया। इस बार जनता ने एकाध जगह ही पंक्चर किया है अगर वह फिर आपके अहंकार से तंग आई तो किसी दिन आपके रथ पर ही लगाम लगा देगी!

सुधीश पचौरी


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