वैदेशिक : कश्मीर क्यों, हांगकांग क्यों नहीं
आजकल हांगकांग अपने मूल्यों की सुरक्षा के लिए लड़ रहा है, और बीजिंग इस युक्ति में है कि वह उसे खत्म कर दे। हांगकांग सही अथरे में ताइवान बनना चाहता है, और चीन उसे तिब्बत की तरह रखना चाहता है।
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यही वजह है कि शंकाएं पैदा होने लगी हैं कि हांगकांग कहीं थियानमेन स्क्वायर जैसे इतिहास को न दोहरा बैठे जहां चीनी सेना द्वारा की गई कार्रवाई क्रूरतम थी। अमेरिकी कांग्रेस ने अवश्य ही हांगकांग को लेकर थोड़ी बहुत प्रतिक्रिया दी है, लेकिन दुनिया अभी तक इसे चुपचाप देख रही है। सवाल है कि क्यों? क्या यह ऐसा विषय नहीं है जिस पर संयुक्त राष्ट्र महासभा या सुरक्षा परिषद के समक्ष रखा जाए? अगर इस लायक नहीं है तो फिर कश्मीर को क्यों सुरक्षा परिषद के सामने रखा गया?
वैसे हमें हांगकांग से पहले थोड़ी निगाह ताइवान पर डालनी चाहिए, जिसे शी जिनपिंग सैन्य कार्रवाई की धमकी दे चुके हैं। ताइवान कहता है कि उसका चीन के साथ सहयोग करते हुए अपना विशिष्ट चरित्र और पहचान बनाए रखना संभव नहीं है। ताइवान लोकतांत्रिक देश है, अपना संसदीय लोकतंत्र बनाए रखना चाहता है। इसे लेकर ताइवान में सनफ्लावर मूवमेंट भी हुआ था। सफल भी रहा था। शायद यही हांगकांग के लोग चाहते हैं, लेकिन दोनों की स्थिति में बहुत अंतर है। ताइवान उस समय आजाद था इसलिए ताइवान में विरोध प्रदर्शन में जो लोग सक्रिय थे उनमें से अधिकांश या तो ताइवान की संसद में हैं, या विश्व प्रसिद्ध यूनिर्वसटिीज में अध्ययन कर रहे हैं। लेकिन हांगकांग के सामने थियानमेन स्क्वायर एक सशक्त उदाहरण की तरह है। हांगकांग के आंदोलन को जो लोग सिर्फ एक बिल के विरुद्ध आंदोलन के रूप में देखते हैं, वे शायद गलत हैं।
उनका यह नजरिया हांगकांग के आंदोलन की तीव्रता एवं प्रकृति को कमजोर करता है। हांगकांग अपने उन मूल्यों को लेकर आगे बढ़ना चाहता है, जिनमें स्वतंत्रता है, शासन की एक अलग व्यवस्था है, मूल्य हैं और लोकतंत्र है। हांगकांग के लोग लोकतंत्र का वह मॉडल चाहते हैं जो पश्चिम में कायम है यानी जो ताइवान में है, जर्मनी में, ब्रिटेन में है या फिर अमेरिका में है। उन्हें चीन के मॉडल में उस मॉडल में कोई रुचि नहीं है, जहां सिर्फ एक पार्टी शासन करती हो और एक व्यक्ति को ताउम्र राष्ट्रपति बने रहने के लिए अधिकृत कर दिया गया हो। यह बात पूरी दुनिया जानती है और राष्ट्रपति शी जिनपिंग भी इससे भलीभांति परिचित हैं। फिर भी हांगकांग के लोगों की यह मांग पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के सोशलिज्म विद् चाइनीज कैरेक्टिरिस्टिक्स के विपरीत तो है ही। इसलिए शी जिपिंग इसे चीन की संप्रभुता से जोड़कर देखते हैं। जाहिर है, बीजिंग इस पर तभी तक चुप रहेगा या दिखेगा जब तक उसे लगता है कि हांगकांग का आंदोलन उसकी संप्रभुता के लिए खतरा नहीं बन रहा। इसके बाद वह किसी भी हद तक जाने वाला निर्णय भी ले सकता है।
ध्यान रहे कि बीजिंग और शी जिनपिंग हांगकांग के लोकतांत्रिक आंदोलन को लोकतांत्रिक आंदोलन के रूप में कदापि स्वीकार नहीं करेंगे जिससे कि हांगकांग के आंदोलन को वैश्विक समर्थन हासिल हो सके बल्कि इस बात की अधिक संभावनाएं हैं कि वे इसे चीन के कम्युनिस्ट शासन के विरुद्ध सुनियोजित संघर्ष या विद्रोह ही करार देंगे। ध्यान रहे कि हांगकांग में जिन युवा आंदोलनकारियों की गिरफ्तारियां हुई हैं, उनके खिलाफ जिस अदालती कार्रवाई की तैयारी हो रही है, उसमें बहुत से छुपे हुए संदेश आंदोलन एवं आंदोलनकारियों के लिए निहित हैं। बीजिंग के सरकारी अधिकारी आंदोलनकारियों के कृत्यों को ‘आतंकवाद’ के रूप में पेश करना चाह रहे हैं, ना कि राजनीतिक या अधिकारों की मांग वाले जनआंदोलन के रूप में। चूंकि चीनी अर्थव्यवस्था निर्यात पर निर्भर है, और अमेरिका तथा चीन के बीच चल रहा ट्रेड वार आर्थिक शीतयुद्ध की शुरुआत करता दिख रहा है, ऐसी स्थिति में चीन हांगकांग में सैन्य कार्रवाई के विकल्प को तत्काल चुनना नहीं चाहता।
जो भी हो हांगकांग इस समय थियानमेन स्क्वायर इतिहास की परिधि पर खड़ा दिख रहा है, परिणाम कुछ भी हो सकते हैं। लेकिन अमेरिका सहित दुनिया के उन देशों के पास इतना साहस नहीं है कि हांगकांग आंदोलन को खुला समर्थन दे सकें, भले ही वे रेस्टोरेशन ऑफ डेमोक्रेसी के नाम पर इराक सहित दुनिया के तमाम देशों और व्यवस्थाओं का ध्वंस कर चुके हों।
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