मीडिया : पत्रकारिता की नैतिकता

Last Updated 25 Aug 2019 07:01:45 AM IST

कांग्रेस के एक पूर्व मंत्री की गिरफ्तारी को लेकर हुए एक घंटे की लाइव कवरेज के दौरान मीडिया के कई संस्करण नजर आए।


मीडिया : पत्रकारिता की नैतिकता

एक मीडिया वह था, जो पूर्व मंत्री को बड़े-बड़े अक्षरों में ‘भगोड़ा’ कह रहा था। किसी शातिर चोर- डाकू की तरह उस मंत्री को ‘वांटेड’ बतते नहीं थक रहा था, और सीबीआई के ‘लुकआउट’ नोटिस के निकाल दिए जाने के बाद पूर्व मंत्री को ‘फ्लाइट रिस्क’ बता रहा था। तो इसके दूसरी तरफ दूसरा मीडिया वह था, जो कह रहा था कि भई इतनी जल्दी क्या थी? जब इस केस से संबंधित बाकी सभी आरोपित ‘जमानत’ पर हैं, तो इसकी जमानत भी चलने देते? कह रहा था कि इस प्रकार की कार्रवाई तो  तो राजनीतिक बदले की कार्रवाई है। जैसे इतनी ही काफी न था जो एक पत्रकार ने तो यह तक कह दिया कि दस साल पहले इस पूर्व मंत्री ने गुजरात के एक नेता को जिस तरह फांसा था, उसी तरह अब वह नेता भी अपना हिसाब चुकता कर रहा है।
यह तो इस केस का मीडिया ट्रीटमेंट रहा जो पक्ष-विपक्ष, दोनों को कमोबेश सामने लाता रहा लेकिन मीडिया का एक बड़ा हिस्सा एक ओर अधिक झुका रहा। यहां हम सोशल मीडिया की बात कतई नहीं कर रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं कि वहां तो हर बड़े दल और हर बड़े नेता की नियुक्त फौजें अपने पक्ष में  मुगदर भांजती रहती हैं।

इस केस के प्रसारण में खबर चैनलों के एंकरों और रिपोर्टरों ने भी अपने-अपने मुगदर भांजे। उनकी भाषा और उनकी बॉडी लेंग्वेज को देखकर ऐसा लगता था कि वे ‘तटस्थ पत्रकार’ न होकर ‘पार्टीजन पत्रकार’ हों। यों इस प्रकरण में एंकर ‘विभाजित’ थे, लेकिन कुछ ऐसे भी थे जो उक्त मंत्री को ‘जमानत’ न मिलने से लेकर उसके गायब होने और बाद में उसके सरेंडर करने को ‘ड्रामा’ बताकर अपनी प्रसन्नता को खुलकर जताते रहे। मानो वे स्वयं भी सीबीआई या एनफोर्समेंट विभाग के सहायक हों जिन्होंने गिरफ्तार कराने में मदद की हो। एक अदना पत्रकार भी इतना तो जानता ही है कि अपनी राजनीति ‘कीचड़वादी’ राजनीति है। बहुत कम नेता ऐसे होंगे जो भ्रष्टाचार की कीचड़ में न फंसे  हों वरना आम आदमी तो हर नेता को ‘कीचड़क’ मानता है। आम जनता जानती है कि जब तक आप सत्ता में हैं, तब तक आपका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता लेकिन ज्यों ही आप सत्ता से बाहर हुए नहीं कि आप दयनीय हुए। इसीलिए हर नेता चाहे जीते या हारे, हर सत्ता से अपने संबंध-संपर्क बनाए रखता है ताकि दुर्दिनों में भी वह ‘टारगेट’ न बने।
सत्ता के बारे में सर्वमान्य सत्य यही है कि ‘पॉवर’ (सत्ता) तो करप्ट करती ही है, लेकिन संपूर्ण सत्ता संपूर्णत: ‘करप्ट’ करती है, और अपने यहां तो यह भी कटु-सत्य है कि जब तक जो पकड़ में नहीं आता तब तक देवता रहता है, और पकड़ में आ जाता है तो सीधे दानव हो जाता है। तो उसके सभी यानी ‘चारों पाये’ भी करप्ट होते हैं यानी सत्ता का ‘चौथा पाया’ मीडिया भी ‘करप्ट’ होता है। और, यह कोरा सिद्धांत कथन नहीं है। आज हर दल और हर बड़े नेता का अपना-अपना मीडिया, अपने-अपने संपादक, एंकर, रिपोर्टर हैं। और, इन दिनों के पत्रकार पुराने पत्रकारों जितने भी ‘तटस्थ’ नहीं हैं, बल्कि खुले रूप में किसी न किसी का ‘बंदा’ होने को जताते-बताते भी हैं। कौन किस दल, किस नेता के कितने निकट है, इसे सब जानते हैं। आजकल के पत्रकार की असली योग्यता यही है। सफल नेता सबसे पहले मीडिया में अपने ‘पत्रकार’ फिक्स करता है, बहुत से ‘पत्रकार’ भी ऐसे ‘इष्ट’ नेता की तलाश में रहते हैं, जिसका कुछ भविष्य हो। नेता मीडिया में ‘इन्वेस्ट’ करते हैं, और पत्रकार अपने को राजनीति में ‘इन्वेस्ट’ करते हैं।
प्रस्तुत प्रसंग में जिन पूर्व मंत्री के ऊपर भ्रष्टाचार का आरोप है, वह उनके कार्यकाल के दौरान एक मीडिया हाउस के कारोबार से ही संबंधित है। यही नहीं, एक अन्य बड़े मीडिया हाउस में भी उनका ‘प्रभाव’ बताया जाता है। ऐसा प्रभावशाली पूर्व मंत्री जब सत्ता में रहा होगा तो न जाने कितने पत्रकार उसके आगे पीछे न घूमते होंगे? और आज वही पत्रकार, वही एंकर अपनी नजरें पलट कर जब उन पर हंस रहे थे तो वे अपनी अवसरवादी पत्रकारिता का ही नमूना पेश कर रहे थे। आज की पत्रकारिता की ‘महानता’ का मतलब सिर्फ इतना है कि आप सत्ता के कितने नजदीक हैं?
जब तक नेता सत्ता में होते हैं तो आज के पत्रकार उनकी जी-हजूरी करते हैं, और जब सत्ता से बाहर होते हैं तो गुर्राया करते हैं। उक्त प्रसारण में हमें तो ऐसा ही दिखा। ऐसे पत्रकारों को आप स्वतंत्रतावादी कहें या अवसरवादी, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता! आज की पत्रकारिता नैतिक प्रश्नों से परे है!

सुधीश पचौरी


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