क्या प्रेमचंद की नई ब्रांडिंग होगी?
पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मन की बात कार्यक्रम में मुंशी प्रेमचन्द की तीन कहानियों का जिक्र किया।
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पिछले चार-पांच दशकों में ऐसी किसी घटना का स्मरण नहीं आता जिसमें देश के किसी प्रधनमंत्री ने प्रेमचन्द का जिक्र सार्वजनिक तौर पर अपने भाषण में किया हो।
राजनीतिज्ञ अक्सर मन्दिर, मस्जिद, गुरु द्वारा आदि का दौरा करते हैं, लेकिन किसी हिन्दी लेखकों के पैतृक गांव, घर या स्मारकों का आम तौर पर दौरा करते उन्हें नहीं देखा गया। प्रेमचन्द आजादी की लड़ाई में भले ही जेल न गए हों पर उनके लेखन में स्वातंत्र्य आंदोलन के मूल्य सर्वत्र दिखाई देते हैं। प्रेमचन्द हिन्दी में यथार्थवाद के पहले लेखक थे? लेकिन यह धारणा उनके बारे में कैसे विकसित हुई जबकि उनसे पहले भी यथार्थवादी उपन्यास लिखे गए। प्रेमचन्द ने तो खुद को आदशरेन्मुख यथार्थवादी कहा था तो फिर आदशरेन्मुखी शब्द उनके परिचय से धीरे-धीरे कैसे गायब हो गया। 1936 में प्रेमचन्द द्वारा प्रगतिशील लेखक संघ के उद्घाटन के बाद उन्हें वामपंथी आलोचकों ने वामपंथी बताना शुरू कर दिया जबकि उस सम्मेलन के उद्घाटन में ही प्रेमचन्द ने प्रगतिशील लेखक संघ के नाम पर ही आपत्ति करते हुए कहा था कि लेखक तो स्वभावत: प्रगतिशील होता है। यह भी कहा कि लेखक किसी पार्टी का नहीं होता है, लेकिन प्रेमचन्द की परंपरा को हड़पने का प्रयास वामपंथियों और दक्षिणपंथियों ने शुरू किया। क्या प्रधानमंत्री द्वारा प्रेमचन्द के जिक्र को इस रूप में देखा जा सकता है? क्या माना जाए कि प्रेमचंद एक हथियार या ढाल भी बना दिए गए और उनकी रचनाओं के इस्तेमाल से उनकी ब्रांडिंग की जा रही है।
रामविलास जी ने 1941 में प्रेमचन्द पर किताब लिखी थी, उसके बाद से यह बात अब तक सर्वमान्य रही कि हिन्दी के पहले यथार्थवादी उपन्यासकार प्रेमचन्द ही हैं। उन्होंने साहित्य को खत्री युग या गहमरी युग से बाहर निकल कर तिलस्मी और एय्यारी की दुनिया से अलग किया, लेकिन जहां तक साहित्य में यथार्थवाद के विकास का प्रश्न है, वह प्रेमचन्द से पहले शुरू हो चुका था। प्रेमचन्द इसके जनक नहीं थे। बिहार के लेखक भुवनेर मिश्र के दो दुर्लभ उपन्यासों का फिर से प्रकाशन होने से यह भी पता चलता है कि प्रेमचन्द पहले यथार्थवादी उपन्यासकार नहीं थे। ‘घरायु घटना’ और ‘बलवंत भूमिहार’ नामक ये उपन्यास क्रमश: 1893 और 1901 में प्रकाशित हुए थे। गौरतलब है कि खत्री जी के तिलस्मी उपन्यास ‘चंद्रकांता’ का पहला खंड 1893 में ही प्रकाशित हुआ। रामचन्द्र शुक्ल के हिन्दी साहित्य के इतिहास और उसके बाद लिखे गए इतिहासों में इस उपन्यास का नाम तक नहीं होने से हिन्दी साहित्य के लोगों को आम तौर पर इस उपन्यास की जानकारी नहीं थी। जब जानकारी ही नहीं थी तो इसे प्रेमचंद पूर्व यथार्थवादी उपन्यास के रूप में जानने का सवाल ही नहीं उठाता।
हिन्दी में यथार्थवादी उपन्यास का प्रारंभ प्रेमचन्द के ‘सेवा सदन’ से माना जाता है, जो 1918 में कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) की हिन्दी एजेंसी से छपा था, लेकिन उनके 1907 में छपे प्रथम उपन्यास ‘प्रेमा’ को भी सामाजिक उपन्यास के रूप में छापा गया था। शुक्ल जी ने भले ही भुवनेर जी के दोनों उपन्यासों का जिक्र न किया हो पर मिश्रबंधु विनोद ने भुवनेर मिश्र का उल्लेख किया है। बाद में 1914 में शिवनंदन सहाय ने एक लेख में उनका जिक्र किया है। 1919 में राजेन्द्र बाबू की अध्यक्षता में बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्वागत समिति के अध्यक्ष भुवनेर मिश्र थे। उनका निधन प्रेमचन्द से दो साल पहले 1934 में हो गया था। घरायु घटना लखनऊ के मशहूर नवलकिशोर प्रेस से छपा था और 1908 तक इसके चार संस्करण हुए लेकिन इसके बावजूद इस पर आलोचकों की नजर क्यों नहीं गई?
‘बलवंत भूमिहार’ के बारे में तो कहा जा सकता है कि उसकी प्रतियां बिहार के जमींदारों ने नदी में डुबो दी थीं क्योंकि उसमें जमींदारों के अत्याचार और दमन का जिक्र था और उस से जमींदार नाराज थे। शायद इस कारण हिन्दी के तत्कालीन इतिहासकारों और आलोचकों की नजर से न गुजरी हो..तब क्या वामपंथी आलोचकों ने प्रेमचन्द की यह ब्रांडिंग की। अमृत राय, जो खुद वामपंथी लेखक थे, ने लिखा है कि प्रेमचन्द कोई प्रगतिवादी ही नहीं, बल्कि उन्हें कोई भी वादी लेखक कहना ठीक नहीं। जैनेन्द्र, जो बाद के लेखकों में प्रेमचन्द के सर्वाधिक निकट थे, का भी यही मानना था तब फिर प्रेमचन्द की यह वाम ब्रांडिंग कैसे हो गई? क्या गैर-प्रगतिशील ताकतें अब प्रेमचन्द की कोई दूसरी ब्रांडिंग करना चाहती हैं?
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