पाकिस्तान : अमेरिकी मदद के मायने
पिछले सात दशक के इतिहास पर नजर डालें तो पाते हैं कि पाकिस्तान और अमेरिका का संबंध काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा है।
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कुछ विद्वानों ने जहां इसे ‘मैरेज ऑफ कन्विनिएंस’ और ‘स्ट्रेंज बेडफेलोज’ की संज्ञा दी है, तो कुछ ने अमेरिका को पाकिस्तान का ‘फेयर वेदर फ्रेंड’ कहने तक से कोई गुरेज नहीं किया। आधिकारिक वक्तव्यों में कभी पाकिस्तान को अमेरिका का ‘मोस्ट एलाइड एलाई’ कहा गया तो कभी उसे ‘मेजर नॉन नाटो एलाई’ की उपाधि से नवाजा गया।
पाकिस्तानी राजनेता और सैन्य प्रशासक हमेशा अमेरिका से अच्छे संबंधों के हिमायती रहे हैं। मोहम्मद अली जिन्ना से लेकर इमरान खान और जनरल अयूब खान से लेकर जनरल कमर जावेद बाजवा तक सभी ने अमेरिका को आर्थिक और सैन्य सहायता के बड़े स्रोत के रूप में देखा और बदलती हुई भू-राजनीतिक और भू-रणनीतिक परिस्थितियों के आलोक में इसका फायदा उठाने में कोई कसर न छोड़ी। गौरतलब है कि 9/11 की घटना के तार अफगानिस्तान और पाकिस्तान से जुड़ने के कारण तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने वैश्विक आतंकवाद के खात्मे के लिए ‘कोलिशन ऑफ विलिंग’ का नेतृत्व किया।
पाकिस्तान को इस आतंकविरोधी युद्ध में शामिल होने को विवश कर दिया। जनरल मुशर्रफ ने कोई रास्ता न मिलता देख पहले तो अमेरिका के सामने घुटने टेक दिए, लेकिन समय बीतने के साथ परिस्थितियों का फायदा उठाते हुए पाकिस्तानी राजनीति में अपनी और सेना की पकड़ मजबूत कर ली। पाकिस्तान द्वारा अमेरिका को दिए जा रहे सहयोग के बदले बुश प्रशासन ने पांच अलग-अलग मदों-कोलीशन सपोर्ट फंड, सिक्यूरिटी असिस्टेंस, बजट सपोर्ट, डवलपमेंट एंड ह्यूमैनिटेरियन असिस्टेंस, और कोवर्ट फंड-में आर्थिक और सैन्य सहायता उपलब्ध कराना प्रारंभ किया।
कोलिशन सपोर्ट फंड सबसे पारदर्शी मद था। इसके तहत ज्ञात राशि का लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा पाकिस्तानी कोष में हस्तांतरित हुआ था। कोवर्ट फंड इस लिहाज से सर्वाधिक विवादित था क्योंकि इसके तहत दी गई राशि के बारे में कोई भी जानकारी आज तक पब्लिक डोमेन में नहीं है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 2018 में पाकिस्तान को सहायता पर रोक लगाई तब तक (2002-2018) पाकिस्तान को 33 बिलियन अमेरिकी डॉलर प्राप्त हो चुके थे। इनमें से लगभग 14 बिलियन कोलिशन सपोर्ट फंड के तहत दिए गए थे। बहुत से सुरक्षा विश्लेषकों का मानना है कि कोवर्ट फंड में दी गई राशि कोलिशन सपोर्ट फंड के तहत दी गई राशि के लगभग बराबर ही थी यानी उपरोक्त समय में पाकिस्तान को कुल 41 बिलियन अमेरिकी डॉलर की सहायता मिली। अत: अमेरिका से लगातार मिल रही सहायता राशि के कारण पाकिस्तान को विशेष आर्थिक संकट का सामना नहीं करना पड़ा। लेकिन जब ट्रंप ने इस धन-प्रवाह पर रोक लगाई तो पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था का खोखलापन उभर कर सामने आने-लगा। यद्यपि पाकिस्तान ने अपने स्तर से समस्या से निपटने के लिए चीन, सऊदी अरब से लेकर अन्य खाड़ी देशों का रु ख किया, लेकिन उसे आशानुरूप सफलता नहीं मिल पाई।
गौरतलब है कि गंभीर आर्थिक समस्या से जूझते पाकिस्तान को वर्तमान समय में मजबूत सहारे की तलाश है। यहां यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि पाकिस्तान में आर्थिक प्रगति के सभी संकेतकों में अविसनीय गिरावट दर्ज की गई है। सरकार द्वारा प्रकाशित ‘इकोन्ॉमिक सर्वे’ की हालिया रिपोर्ट ने देश के नीति-निर्धारकों के पैरों तले जमीन ही खिसका दी है। आंकड़ों के अनुसार पिछले वर्ष की तुलना में विकास दर 6.3 से घटकर 3.3 प्रतिशत पर पहुंच गई है। अगले वर्ष इसके 2.4 प्रतिशत तक पहुंचने का अनुमान है। ऐसा होता है तो यह पिछले 10 सालों में अपने न्यूनतम स्तर पर होगी। बढ़ते अंतरराष्ट्रीय कर्ज और डॉलर के मुकाबले लगातार गिरता पाकिस्तानी रुपया भयावह तस्वीर पेश कर रहा है। जुलाई के अंतिम सप्ताह में एक अमेरिकी डॉलर 161 पाकिस्तानी रु पये से भी अधिक कीमत का हो चुका है। इस गंभीर स्थिति से निपटने के लिए जारी जद्दोजहद ने एक ओर पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की शरण में पहुंचाया तो दूसरी तरफ उसे अमेरिका से अपने रिश्ते को पटरी पर लाने के लिए विवश किया। जानना महत्त्वपूर्ण है कि बिना परोक्ष अमेरिकी सहमति से आईएमएफ, विश्व बैंक जैसी संस्थाएं पाकिस्तान की मदद को आगे नहीं आ सकतीं। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान की हालिया तीन-दिवसीय अमेरिका यात्रा इस लिहाज से काफी महत्त्वपूर्ण थी। इस दौरे में उन्होंने राष्ट्रपति ट्रंप के अलावा आईएमएफ प्रमुख डेविड लिप्टन और विश्व बैंक के अध्यक्ष डेविड मल्पास से भी मुलाकात की।
पाकिस्तान के इतिहास में यह पहला मौका था, जब प्रधानमंत्री की विदेश यात्रा में थलसेना अध्यक्ष और खुफिया एजेंसी आईएसआई प्रमुख भी साथ गए हों। यह एक ओर पाकिस्तान में सिविल-मिलिट्री संबंध की सच्चाई बयां करता है, तो दूसरी तरफ इमरान खान में आत्मविश्वास की कमी भी दिखलाता है। इमरान और ट्रंप की मुलाकात को तो मीडिया ने खूब तवज्जो दी, लेकिन पाकिस्तानी सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा की अमेरिकी कार्यकारी रक्षा मंत्री र्रिचड वी. स्पेंसर और जनरल जोसफ एफ. डनफोर्ड से मुलाकात किसी भी मायने में कम महत्त्वपूर्ण नहीं थी। इनका परिणाम हुआ कि एक ओर तो पाकिस्तान-अमेरिकी रिश्तों में खटास कम हुई और द्विपक्षीय संबंधों को नई ऊर्जा मिली तो दूसरी ओर, पाकिस्तान को आर्थिक-सैन्य सहायता पर रोक को धीरे-धीरे हटाने का मार्ग प्रशस्त हुआ। इसकी एक बानगी पेंटागन के 26 जुलाई के उस निर्णय में देखी जा सकती है जिसके तहत पाकिस्तान को 125 मिलियन डॉलर की सैन्य खरीद की स्वीकृति देने के लिए अमेरिकी कांग्रेस को सूचित किया गया है।
अमेरिकी प्रशासन के पाकिस्तान के प्रति नरम रवैये के तार अफगानिस्तान से सीधे जुड़े हैं। बड़ा सवाल है कि क्या पाकिस्तान, अफगानिस्तान में अमेरिकी हितों की सुरक्षा के लिए कार्य करेगा? या पूर्व की भांति इस बार भी आर्थिक और सैन्य सहायता लेकर अफगानिस्तान में शिकारी और शिकार, दोनों के साथ खड़ा रहेगा? पिछले सात दशक का इतिहास इस ओर इशारा करता है कि पाकिस्तान अपने डबल गेम से बाज नहीं आएगा। एक बार फिर बदलती भू-राजनीतिक और भू-रणनीतिक परिस्थितियों का अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करेगा।
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