मुद्दा : तनाव भरी शिक्षा का कहर

Last Updated 30 Jul 2019 06:24:06 AM IST

मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से हाल ही में संसद में पेश एक रिपोर्ट में बताया गया है कि 11 से 17 वर्ष की आयु वर्ग के स्कूली बच्चे उच्च तनाव के शिकार हो रहे हैं।


मुद्दा : तनाव भरी शिक्षा का कहर

इस कारण कुछ को मनोवैज्ञानिक समस्याएं भी हो रही हैं। सामाजिक दृष्टिकोण से निश्चित रूप से यह चिंता पैदा करने वाली रिपोर्ट है। पढ़ाई के बोझ, गलाकाट प्रतियोगिता और माता-पिता की  आकांक्षा का बोझ बच्चों पर इस तरह से पड़े कि वे मानसिक समस्या और उच्च अवसाद के शिकार होने लगें तो समाज को तत्काल विचार करने की जरूरत है।

हमें समझना होगा कि हमारे नौनिहाल ही हमारे देश के भविष्य हैं। बच्चे महज 11 साल की उम्र में ही अवसाद के शिकार होने लगें तो इस ओर ध्यान दिया ही जाना चाहिए। अवसाद छोटी-मोटी समस्या नहीं है, बल्कि आगे जाकर कई और सारी समस्याओं को जन्म दे सकती है। हम इस ओर ध्यान नहीं देंगे तो हमारे बच्चों का बालपन के साथ-साथ भविष्य भी अंधकारमय हो जाएगा। वास्तव में हमारा समाज बच्चों पर बहुत ज्यादा दबाव बनाने लगा है। उन्हें कॅरियर उन्मुखी बना रहा है। यही कारण है कि बच्चों में अवसाद तक की समस्याएं हो रही हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से देश की संसद में पेश इस रिपोर्ट के मुताबिक, ग्रामीण बच्चों के मुकाबले शहरी बच्चों में अवसाद और मानसिक बीमारी की समस्या ज्यादा है। गांवों में जहां 6.9 प्रतिशत बच्चों में यह समस्या है, वहीं शहरी क्षेत्रों में यह लगभग दोगुना यानी 13.5 फीसद है। शहरी जीवन में अंक आधारित गलाकाट प्रतियोगिता वाली स्कूली शिक्षा प्रणाली से बच्चों में समस्या ज्यादा हो रही है। निश्चित रूप से ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े बच्चों पर शहरी छात्रों के मुकाबले कम दबाव रहता है। उन्हें स्वछंद वातावरण, सामाजिक परिवेश और परिवार का भरपूर साथ मिलता है। शहरी समाज में ऐसा होना मुश्किल है।

शहरों में एकल परिवारों की बहुतयात है। पति-पत्नी अक्सर कामकाजी होते हैं। बच्चों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाते। उनके मनोभाव समझ नहीं पाते। माता-पिता और बच्चों के बीच संवाद की परंपरा समाप्त होती जा रही है। बस उन्हें अपने बच्चों के अच्छे अंक और परीक्षा परिणाम से मतलब रहता है। माता-पिता के इस महत्त्वाकांक्षा का दंश बच्चों को झेलना पड़ता है। परिणाम होता है कि वे 11 साल की उम्र से ही अवसाद के शिकार होने लगते हैं। इतना ही नहीं एनसीआरबी के एक आंकड़े के मुताबिक, 2011 से 2018 के बीच लगभग 70 हजार छात्रों ने खराब अंक या नतीजे के कारण आत्महत्या कर ली है। इनमें से लगभग 50 प्रतिशत घटनाएं स्कूल स्तर पर ही हुई। हम हर साल देखते हैं कि जब दसवीं-बारहवीं का परीक्षा परिणाम सामने आता है, तो अखबारों में छात्रों की खुदकुशी की खबरें सुर्खियां बनने लगती हैं। बच्चों के जीवन में उनके माता-पिता, अभिभावक और शिक्षकों की अहम भूमिका होती है। बच्चों का अधिकांश समय घर और स्कूलों में बीतता है, और वहां का दम घोंटू माहौल भी उनमें तनाव बढ़ाने और धीरे-धीरे अवसाद की दिशा में ले जाने में बड़ा कारक साबित होता है। ऐसे में लोगों को घर और स्कूलों में तनावरहित माहौल बनाना होगा। गलाकाट प्रतियोगिता की जगह पर स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देना होगा। रिपोर्ट में बताया गया है कि बेंगलुरू स्थित राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य एवं तंत्रिका तंत्र संस्थान (एनआईएमएचएएनएस) ने देश के बारह राज्यों में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण किया था। इस सर्वेक्षण में 34,802 वयस्क और 1191 बच्चों-किशोरों को शामिल किया गया था। इसमें पाया गया कि 13 से 17 आयु वर्ग के लगभग आठ फीसद किशोरों में पढ़ाई के कारण तनाव से मानसिक बीमारी पैदा हो गई थी।
बच्चों में आठ प्रतिशत अवसाद का आंकड़ा कम नहीं होता है। ऐसे में बच्चों के सर्वागीण विकास और उन्हें अवसादरहित बनाने के लिए तनावरहित शिक्षा प्रणाली उपलब्ध कराने की जरूरत है।  बच्चों को तनावरहित, स्वस्थ्य माहौल में बेहतर बनाने के लिए माता-पिता, अभिभावक और शिक्षकों की ओर से प्रयास किया जाना ही काफी साबित नहीं होगा, बल्कि इसके लिए सरकार की ओर से भी ठोस प्रयास किए जाने चाहिए। सरकार को इसके लिए स्पष्ट और सख्त नियम-प्रणाली बना कर इस दिशा में काम करना होगा। दिशा-निर्देशों को सख्ती से लागू करना होगा। साथ ही, हमें समय-समय पर स्कूलों में बच्चों और अभिभावकों की काउंसिलिंग की व्यवस्था करनी चाहिए। अगर हम अपने नौनिहालों का उज्ज्वल भविष्य और उन्हें तनावरहित बनाना चाहते हैं, तो हमें परिवार, स्कूल से लेकर प्रशासनिक हर स्तर पर काम करने ही होंगे।

चंदन कु. चौधरी


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