उच्च शिक्षा : आरक्षण की राजनीति
लोकसभा से पास हो चुके नियुक्ति में आरक्षण से संबंधित केंद्रीय शैक्षणिक संस्थान अध्यादेश-2019 को राज्य सभा ने भी पारित कर दिया।
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राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद अब यह कानून बन जाएगा। इस अध्यादेश के तहत विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की भर्त्ती विभाग की जगह कॉलेज या विश्वविद्यालय को इकाई मानकर होगी। अध्यादेश में सामान्य वर्ग के गरीबों को भी दस प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है। आरक्षण रोस्टर की कहानी तब शुरू हुई जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक फैसले में विश्वविद्यालय की जगह विभाग को इकाई मानकर आरक्षण रोस्टर तैयार करने से संबंधित फैसला दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने फैसले में उच्च न्यायालय को सही माना।
इसमें दो मत नहीं कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय का फैसला वैज्ञानिक है, और तर्क सम्मत होने के साथ-साथ विषयवार समानता के अधिकार पर आधरित है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने विश्वविद्यालय या महाविद्यालय को एक इकाई मानकर आरक्षण देने के 200 बिंदु रोस्टर को कानूनी रूप से गलत माना। अदालत का मत था कि सारे विभागों को मिलाकर एक इकाई बनाना भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14 (कानून के सामने समानता) एवं अनुच्छेद-16 (लोक नियुक्ति में बराबर अवसर) का उल्लंघन है। विभिन्न विभाग के शिक्षक दूसरे विभाग में स्थानान्तरित नहीं किए जा सकते और ना ही उनके बीच किसी प्रकार की प्रतियोगिता होती है, लिहाजा विभिन्न विभागों को मिलाकर एक इकाई बनाना संविधान के समान अवसर की मूल भावना के विपरीत है।
न्यायालय का यह भी मानना है कि विभागवार आरक्षण में संतुलन नहीं होगा और कोई एक विभाग सिर्फ आरक्षित श्रेणी के शिक्षकों से भर जाएगा तो काई दूसरा सिर्फ अनारक्षित श्रेणी के शिक्षकों से। यहां यह ध्यान रखना भी आवश्यक है कि इससे विभाग की गुणवत्ता प्रभावित हो सकती है, और किसी खास विशेषता वाले पात्र के विज्ञ नहीं भी उपलब्ध हो सकते हैं। क्या यह सही होगा कि एक विभाग सिर्फ एक सामाजिक समूह वर्ग का हो जाए और दूसरा दूसरे सामाजिक समूह वर्ग का? क्या यह सामाजिक संतुलन को प्रभावित नहीं करेगा? उदाहरण के लिए यदि भौतिकी में सामान्य वर्ग की और रसायन में आरक्षित वर्ग की नियुक्ति नहीं होती है, तो यह भौतिकी पढ़ने वाले सामान्य श्रेणी और रसायन पढ़ने वाले अनारक्षित श्रेणी के अभ्यर्थियों के मूल अधिकार का हनन नहीं होगा? और सबसे महत्त्वपूर्ण यदि इस प्रकार की नियुक्ति से गुणवत्ता प्रभावित होती है तो उस श्रेणी विशेष की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का क्या होगा, जिस श्रेणी के अध्यापक आरक्षण का लाभ लेकर अध्यापक बन रहे हैं? आरक्षण और नियुक्ति में आरक्षण का लाभ प्राप्त कर रहे जाति विशेष का एक समूह क्या पूरी जाति विशेष का प्रतिनिधित्व करता है? यदि हां, तो स्वतंत्रता और आरक्षण की इतनी लंबी अवधि के बाद भी हर वर्ग या जाति से इतने बड़े विशाल भारत देश में प्रत्येक विभाग में आरक्षित श्रेणी के योग्य अभ्यर्थी उपलब्ध क्यों नहीं है? यदि नहीं, तो क्या आरक्षण का मूल्यांकन और उसमें आवश्यक संशोधन अपेक्षित नहीं है?
आरक्षण एक व्यवस्था है असमानता की खाई को पाटने का। परन्तु हमें यह भी समझना होगा कि एक समूह विशेष के पीढ़ी-दर-पीढ़ी आरक्षण का लाभ लेने से जाति के भीतर असमानता की खाई और बढ़ती जाएगी। इस देश के 90 फीसद से अधिक लोग ऐसे हैं, जिनकी आमदनी आठ लाख से कम हैं, फिर क्या कभी-पहली पीढ़ी के पढ़ने वाले, सारी सुविधाओं से वंचित, नित्य गिर रहे स्तर वाले सरकारी विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में पढ़ने वाले वंचित वर्ग के विद्यार्थी आरक्षण का लाभ लेने योग्य बन पाएंगे? यदि नहीं तो आरक्षण का मकसद पूरा हो पा रहा है? केंद्रीय उच्च संस्थानों में 13 बिंदु वाले एवं 200 बिंदु वाले आरक्षण रोस्टर के बीच यह द्वंद्व लंबा खींचने वाला है। 200 बिंदु वाले आरक्षण रोस्टर में उपलब्धता के आधार पर 200 में से 99 पद आरक्षित श्रेणी को जाएगा, शेष 101 अनारक्षित श्रोणी को। और अब 10 आर्थिक आरक्षण के बाद शेष 101 का भी बंटवारा होगा। 13 बिंदु वाला रोस्टर प्रत्येक आरक्षित समूह की निर्धारित प्रतिशत से 100 को विभाजित कर तय किया जाता है।
हम 50 प्रतिशत की सीमा से बढ़ चुके हैं और आने वाले दिनों में इससे उपजी अन्य समस्याओं का समाधान देश के लिए एक बड़ी चुनौती होगी, फिर हर वर्ग के मेधावी लोग इस निर्णय पर असंतोष एवं क्षोभ व्यक्त करेंगे। हमें नहीं भूलना चाहिए कि देश हरियाणा एवं उत्तरी भारत के जाट आंदोलन, गुजरात के पाटीदार आंदोलन, राजस्थान के गुर्जर आंदोलन, आंध्र प्रदेश के कापू आंदोलन एवं मंडल कमीशन जैसे कई अन्य आंदोलनों के दंश को झेलता रहा है। यह अध्यादेश समस्या का तात्कालिक समाधान हो सकता है, क्योंकि लगभग 7000 शिक्षकों की नियुक्ति अब केंद्रीय संस्थानों में हो सकेंगी, मगर हमें ध्यान रखना होगा संस्था का उद्देश्य भावी पीढ़ी को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देना है शिक्षकों को व्यवसाय प्रदान करना नहीं। हमें यह स्थिति बदलनी होगी और इसके लिए न केवल विद्यालयी शिक्षा को प्रभावी बनाना होगा, बल्कि समाज के आखिरी पायदान पर वर्षो से जमे व्यक्ति, समूह और समुदाय को मूलभूत शैक्षिक एवं अन्य सुविधाएं मुहैया कर उनके शिक्षा के स्तर को सामान्य तक लाना होगा।
वंचित वर्ग के बच्चे पढ़ेंगे नहीं तो फिर आगे कैसे बढ़ेंगे? प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर के विद्यार्थी की शिक्षा पर औसत खर्च के मामले में भारत कोलंबिया और वियतनाम जैसे देशों से भी पीछे है। उच्च शिक्षा भी अपवाद नहीं है। शोध और विकास पर प्रति व्यक्ति खर्च के मामले में भारत केन्या और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों से भी पीछे है। शीर्ष विश्वविद्यालयों के 51 देशों में भारत 35वें स्थान पर है। शीर्ष 800 उच्च शिक्षण संस्थानों में भारतीय संस्थान सिर्फ 17 हैं। प्रति व्यक्ति विश्वविद्यालय स्तर के शोध में भारत सबसे नीचे के छह देशों में शामिल है, जो करीब 800 रुपये है। उच्च शिक्षा में शिक्षक छात्रा अनुपात के मामले में भी हम काफी पीछे हैं। हमें इन समस्याओं से उबरकर अपनी शिक्षा के स्तर को बढ़ाना है, क्योंकि आरक्षण हमारी अकेली समस्या नहीं है।
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