गुणवत्तापूर्ण शोध पत्रों की कसौटी

Last Updated 28 Jul 2019 07:13:58 AM IST

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने पीएच.डी. की गुणवत्ता के मूल्यांकन की पहल की है। प्रश्न है कि इस प्रकार के मूल्यांकन की आवश्यकता क्यों पड़ी?


गुणवत्तापूर्ण शोध पत्रों की कसौटी

उत्तर स्पष्ट है कि भारतीय विश्वविद्यालयों के अधिकांश शोध प्रबंध गुणवत्ताविहीन हैं अन्यथा मूल्यांकन की आवश्यकता न पड़ती।
स्वतंत्र भारत वर्ष में भारतीय अथवा भारतीय मूल के मात्र सात लोगों को नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ है। वे हैं-रबीन्द्रनाथ टैगोर, मदर टेरेसा, सर सी.वी. रमन, प्रो. हरगोविंद खुराना, प्रो. चन्द्रशेखर सुब्रमण्यम, प्रो. अमत्र्य सेन, कैलाश सत्यार्थी एवं प्रो वेंकटरमन रामाकृष्णन, जबकि इस्रइल जैसे छोटे देश से बारह लोगों को नोबल पुरस्कार मिला है। भारतीय नोबल पुरस्कार विजेताओं में मदर टेरेसा एवं कैलाश सत्यार्थी अकादमी श्रेणी के न होकर सामाजिक क्षेत्र में कार्य करते रहे-इन्हें शांति का नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। गुरुदेव रबीन्द्र नाथ टैगोर की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं थी। प्रो. हरगोविंद खुराना, प्रो. चन्द्रशेखर सुब्रमण्यम और प्रो.वेंकटरमन रामाकृष्णन आरंभिक शिक्षा, भारत वर्ष में प्राप्त करके विदेश चले गए। आगे की शिक्षा एवं शोध कार्य विदेश में रहकर किया। अत: इन तीनों को भारतीय नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वालों की श्रेणी में रखना उचित एवं तर्कसंगत नहीं है। प्रो. अमत्र्य सेन भारतीय शिक्षा व्यवस्था की उत्पत्ति रहे और भारत में आचार्य के रूप में कार्य करने के बाद अमेरिका चले गए। अधिकांश कार्य इन्होंने अमेरिका में रहकर किया, लेकिन इन्होंने भारतीय नागरिकता का कभी परित्याग नहीं किया। मदर टेरेसा ने विदेशी होते हुए भारतीय नागरिकता ग्रहण कर ली थी। इस प्रकार, बौद्धिक क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वालों की संख्या मात्र तीन रही-गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर, सर सी.वी. रमन एवं प्रो. अमत्र्य सेन। इतना विशाल देश और स्वतंत्र भारत के 70 वर्ष के इतिहास में मात्र तीन भारतीय विश्व के शीर्ष विद्वानों में गिने जाएं, दुख की बात है।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग पीएच.डी. की गुणवत्ता का मूल्यांकन करे, उसके पहले कुछ आवश्यक दशाओं का सुनिश्चित होना आवश्यक है। जैसे शिक्षक मात्र शिक्षा का ही कार्य करते हों। न केवल प्राथमिक, माध्यमिक अपितु उच्च शिक्षा के संस्थानों में कार्य करने वाले शिक्षकों से अनेक प्रकार के गैर शैक्षणिक कार्य लिए जा रहे हैं। अधोसंरचना, पुस्तकालय, प्रयोगशालाएं, उपकरण आदि तो होना ही चाहिए। साथ ही, शोध और ज्ञान सृजन का वातावरण भी होना चाहिए, जो अधिकांश भारतीय उच्च शिक्षा के संस्थानों विशेषकर विश्वविद्यालयों में नहीं है। जिन संस्थानों में इस प्रकार का वातावरण और सुविधाएं हैं, वहां पर शोध की गुणवत्ता भी ऊंची है। पहले विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा के संस्थानों में व्याख्याता बनने के लिए पीएच.डी. की अनिवार्यता नहीं थी। जिनकी अभिरुचि होती थी, वे शोध कार्य करते थे। अन्य लोग अध्यापन पर ही केंद्रित रहते थे। जब से इस उपाधि को अनिवार्य किया गया तब से इसकी गुणवत्ता में गिरावट आनी शुरू हुई। वह नौकरी पाने का माध्यम बनने के कारण लगातार गुणवत्ताविहीन होती चली गई। प्रकाशन की अनिवार्यता ने आग में घी का काम किया। अब लोग तो कहने लगे हैं कि किसी भी प्रकार के शोध कार्य को छापने के लिए कोई न कोई शोध पत्रिका उपलब्ध रहती है। कोई व्यक्ति किसी पुराने अंक में अपना शोध कार्य प्रकाशित करवाना चाहता है तो यह सुविधा भी उपलब्ध है। शैक्षिक उपलब्धि सूचकांक और उद्धरण सूचकांक बढ़ाने की जैसे प्रतियोगिता चल रही हो जिसमें गुणवत्ता की ओर कोई ध्यान नहीं जाता। अपने उद्धरण सूचकांक को बढ़ाने के लिए लोग समूह बनाने लगे हैं, आवश्यक अथवा अनावश्यक अपने समूह के कार्यों को उद्धरण करने लगे हैं, जिससे तथाकथित विद्वान का उद्धरण सूचकांक तो बढ़ता है लेकिन गुणवत्ता नहीं आती। उद्धरण सूचकांक तथा अकादमिक उपलब्धि सूचकांक (एकेडमिक परफारमेंस इंडिकेटर) आदि की आवश्यकता उन्हें पड़ती है, जिन्हें कोई शोध परियोजना अथवा उच्च शिक्षा के संस्थानों में कोई रोजगार चाहिए। उन शोधकर्ताओं तथा विद्वानों को उद्धरण सूचकांक तथा अकादमिक उपलब्धि सूचकांक की कोई आवश्यकता नहीं होती जो गंभीर रूप से लेखन एवं शोध कार्य में तल्लीन हैं।
संस्कृत साहित्य में कहा गया है कि कोई कृति कम से कम 500 वर्षो तक जीवित नहीं है तो समालोचना की अधिकारी नहीं है। वर्तमान में चल रहे शोध कार्य में अगर सचमुच दम होगा तो वे कम से कम 10 या 20 साल तक अपना प्रभाव अवश्य दिखाएंगे। बौद्धिक जगत विचारे कि कितनी ऐसी कृतियां और शोध कार्य हैं, जो 10, 20 वर्ष तक भी याद किए जाते हैं। उच्च शैक्षणिक पदों जैसे-कुलपतियों, आयोग के अध्यक्षों आदि की नियुक्तियों में मात्र योग्यता ही विचारणीय नहीं होती है, अपितु संपर्क और राजनीति का प्रभाव कहीं ज्यादा होता है। ऐसे उदाहरण भी मिल जाएंगे जहां व्यक्ति बिना किसी विश्वविद्यालयीन तंत्र में एक भी दिन आचार्य के पद पर न रहते हुए भी कुलपति या आयोगों का अध्यक्ष बन जाता है। विचार का विषय है कि ऐसा चमत्कार कैसे होता है! जोड़-तोड़ से शीर्ष पर पहुंचा व्यक्ति गुणवत्ता का ध्वजवाहक हो ही नहीं सकता। आज यदि कुलपतियों और विभिन्न आयोगों के अध्यक्षों के प्रकाशनों एवं शोध कार्यों को सार्वजनिक अवलोकन के लिए प्रस्तुत कर दिया जाए तो देश की बड़ी किरकिरी होगी। गुणवत्ता की प्रेरणा बनने के लिए क्या कुलपतिगण, नियामक निकायों के अध्यक्ष एवं उच्च पदाधिकारी अपने कार्यों को गुणवत्ता के मूल्यांकन के लिए प्रस्तुत करने का साहस जुटा पाएंगे, कदाचित नहीं। यद्यपि समिति मात्र 10 वर्ष  का मूल्यांकन करेगी परंतु आदर्श बनने के लिए तो उच्च पदस्थ लोगों को स्वत: अपने कार्यों को सार्वजनिक अवलोकन एवं मूल्यांकन के लिए रख देना चाहिए। कई स्थानों पर पीएच.डी. शोध प्रबंध जमा होने और पीएच.डी. प्राप्त हो जाने के पश्चात शोधार्थी और उसका मार्गदर्शक प्रयत्न करता है कि शोध प्रबंध पर किसी की नजरें न पड़ जाएं और पुस्तकालय से उस यथाशीघ्र विलुप्त कर दिया जाए। एक अच्छे शोधार्थी को तो गर्दन उठाकर  कहना चाहिए कि यह शोध कार्य उसका है, और किसी के भी अवलोकन के लिए उपलब्ध है।
विश्वविद्यालयों एवं अन्य उच्च शिक्षा की संस्थाओं में शिक्षक शोध एवं अध्यापन, दोनों कार्य करते हैं। शोध एवं अघ्यापन दो अलग विधाएं हैं। एक अच्छा शोधकर्ता अच्छा अध्यापक हो और एक अच्छा अध्यापक अच्छा शोधकर्ता हो- यह आवश्यक नहीं। कुछेक संस्थाओं में ही शिक्षकों की नियुक्ति के समय उनके अघ्यापन कौशल की परीक्षा की जाती है। अधिकांशत: मात्र कागजी शिक्षा एवं साक्षात्कार के आधार नियुक्ति कर दी जाती है और उनसे शोध एवं शिक्षण, दोनों कार्यों में अग्रणी होने की आशा की जाती है-जो प्राय: संभव नहीं हो पाता। विश्व में कई स्थानों पर अध्यापन एवं शोध कार्य के लिए अलग-अलग पद और व्यवस्थाएं हैं। शिक्षण करने वालों तथा शोध करने वालों का मूल्याकंन भी अलग-अलग किया जाता है। शिक्षक का मूल कार्य शिक्षा देना है। वह शोध कार्य आत्म संतुष्टि तथा ज्ञान के सृजन की लालसा के कारण करता है। भारत में भी ऐसी व्यवस्था पर विचार किया जाना चाहिए जहां शिक्षकों एवं शोधकर्ताओं का संवर्ग अलग-अलग हो, उनकी योग्यता नियुक्ति एवं उनके मूल्यांकन की विधि भी पृथक प्रकार की होनी चाहिए। फिलहाल, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने पीएच.डी. के मूल्यांकन का बीड़ा उठाया है। अनौपचारिक परिणाम सबको ज्ञात है देखिए, औपचारिक परिणाम क्या आता है। मैं पुन: उच्च शिक्षा के पुरोधाओं से आग्रह करना चाहूंगा कि स्वयं अपने प्रकाशनों एवं शोधकार्यों को सार्वजनिक अवलोकन के लिए प्रस्तुत करने का साहस दिखाएं एवं आदर्श बनें।

डा. पी.एन. मिश्र


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