उनचास बरक्स बासठ
एक ओर जाने-माने ‘उनचास सेलीब्रिटीज’ और बुद्धिजीवी हैं, जिन्होंने पीएम को चिठ्ठी लिखी है कि जै श्रीराम का नारा एक प्रकार की यौद्धिक ललकार है।
![]() सुधीश पचौरी |
‘जै श्रीराम’ न कहने वाले को लिंच कर दिया जाता है। अल्पसंख्यकों और दलितों में डर बिठाया जा रहा है और कि लिंचिंग को गैर जमानती घोषित किया जाना चाहिए। इसकी प्रतिक्रिया में ‘बासठ नागरिकों’ ने ‘उनचास’ से पूछा है कि जब हिंदू लिंच किए जाते हैं तब आप चुप क्यों रहते हैं? बंगाल में ‘जै श्रीराम’ कहने वालों को जेल में क्यों डाला जाता है? यहीं इन उनचास को ‘राष्ट्र विरोधी’ और ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ भी कहकर निंदित किया गया है। लेकिन ध्यान से देखें तो सबसे बुनियादी मुद्दा ‘जै श्रीराम’ का नया नारा है जिसे ‘उनचास’ ने ‘यौद्धिक ललकार’ कहा है।
क्या वाकई ऐसा है? हमारा मानना है कि पिछले दिनों से भाजपा ने ‘जै श्रीराम’ नारे का विज्ञापन के ‘टीजर’ की तरह इस्तेमाल किया है जबकि, यह कहना कि, यह ‘यौद्धिक ललकार’ है,‘जै श्रीराम’ का ‘अति पाठ’ लगता है। साथ ही हम यहीं कह भी कहना चाहते हैं कि इस आरोप के जबाव में ‘जै श्रीराम’ कहने वालों का यह कहना भी कि ‘यह एक सामान्य अभिवादन है’ हमें ‘छद्म मासूमियत भरा’ कथन लगता है। समकालीन राजनीति में ‘जै श्रीराम’ यौद्धिक ललकार है कि नहीं, यह जानने के लिए हम पिछले चार-पांच महीनों में मीडिया में कवर किए गए ‘जै श्रीराम’ नारे के प्रसारण और उसके असर को देखना चाहेंगे। एक नारे के रूप इस नारे का सबसे अधिक उपयोग बंगाल में किया गया। इसके सबसे शुरू के सीन तब के रहे जब ममता दी ने अपनी कार रोक कर ‘जै श्रीराम’ का नारे लगाने वालों को ललकारा और उनको अरेस्ट किया।
बंगाल के जिस इलाके में इस नारे को जिस तरह बीजेपी द्वारा लगवाया गया वह किसी ‘यौद्धिक ललकार’ की जगह किसी ‘टीजर’ से अधिक नहीं था। वह ममता को ‘चिढ़ाने’, ‘उकसाने’ और ‘गुस्साने’ के लिए था। इस तरह, वह जानबूझ कर किया गया एक ‘सांस्कृतिक राजनीतिक’ एक्शन था, जिसे न ममता ने समझा और अपनी चिढ़ के साथ वे सीधे भाजपा के ‘सांस्कृतिक फंदे’ में फंसी और न इसे ‘उनचास सेलीब्रिटीज’ समझ पाए। उन्होंने इसे सीधे ‘यौद्धिक ललकार’ समझ लिया।
‘यौद्धिक ललकार’ न मजाक होती है, न सड़क पर होती है। असली ‘यौद्धिक ललकार’ के बाद साक्षात् ‘युद्ध’ ही होता है। जबकि,‘टीजर’ का उद्देश्य अपने लक्षित पात्र को ‘चिढ़ाकर’,‘डिस्टर्ब कर’ तंग करना होता है ताकि वह बंदा चिढ़े और इस तरह ‘कल्चरली आइसोलेट’ होकर ‘टीजर’ के रूप में दिए जाते ‘कल्चरल आइटम’ को चिढ़ने के साथ ‘कंज्यूम’ कर ले। टीजर अपने पात्र को चिढ़ाकर अपने को ‘कंज्यूम’ कराते हैं। उनसे खीझने वाला व्यक्ति भी अंतत: उनका शिकार हो जाता है और अपनी नाराजगी के साथ उसे कंज्यूम करता जाता है। भाजपा की कल्चरल राजनीति के धीरे-धीरे असर करने का एक बड़ा कारण यही तकनीक है कि विरोधी विरोध करता है तो भी वह भाजपा के भाव और विचार का प्रचार करने लगता है। ‘कल्चरल पॉलिटिक्स’ भावनाओं के रास्ते अपनी जगह बनाती है। वह पहले हमारी भावनाओं को डिस्टर्ब करके अपनी जगह बनाती है। उसके ‘कम्युनिकेशन’ का तरीका कुछ ‘तिरछा’ होता है,‘वक्री’ होता है। ‘जै श्रीराम’ का नारा भाजपा के लिए इसी तरह का एक ‘कल्चरल टूल’ है जिसे ‘यौद्धिक ललकार’ समझना भाजपा की ‘कल्चरल पॉलिटिक्स’ को न समझने के बराबर है।
गत चुनावों से पहले यही ‘सांस्कृतिक’ गलती विपक्ष से हुई और अब यही गलती, प्रोटेस्ट में ‘सिग्नेचर अभियान’ चलाने वाले ‘उनचास सेलीब्रिटीज’ से हो रही है, जो स्वयं भी ‘संस्कृति कर्मी’ कहते हैं। नामी ‘संस्कृति कर्मी’ होते हुए भी ये भाजपा की ‘कल्चरल राजनीति’ के तौर-तरीकों को एकदम नहीं समझ पा रहे। इनके कथित ‘सेकुलर टूल्स’ हिंदुत्व की धर्मिक-सांस्कृतिक राजनीति को पकड़ नहीं पा रहे हैं क्योंकि वे उसमें अक्षम हैं। उक्त ‘उनचास पोटेस्टर’ जितने सवाल भाजपा से करते हैं, उनसे अधिक सवाल उन पर बरसने लगते हैं। इसीलिए प्रोटेस्ट करने पहले ‘उनचास’ आए तो उनका भी पोटेस्ट करने वाले ‘बासठ’ मैदान में आ गए। प्रोटेस्ट का भी प्रोटेस्ट करना भी एक ‘कल्चरल पॉलिटिक्स’ है, जो प्रथम पोटेस्ट को अपने प्रतिवाद के जरिए ‘व्यर्थ’ कर देती है। इसे हम विज्ञापनों के प्रसारणों को देखकर समझ सकते हैं। जिस तरह हर विज्ञापन एक दूसरे को ठेलता चला जाता है। उसी तरह, आजकल हर दूसरा पोटेस्ट पहले पोटेस्ट को कैंसिल करता चला जाता है। बासठ ने उनचास के साथ यही किया है।
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