ओबीसी/एससी : योगी का दांव
हाल में उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने 17 ओबीसी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने संबंधी जो फैसला किया है, वह कोई नया विचार नहीं है।
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यह फैसला इस मंशा से किया गया है कि इन जाति समूहों, जो यूपी बैकर्वड क्लासेज वेल्फेयर डिपार्टमेंट के मुताबिक राज्य की जनसंख्या का 17 प्रतिशत हैं, का विास जीता जा सके। मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ ने 24 जून को संबद्ध जिलाधिकारियों को निर्देश दिया कि इन सत्रह ओबीसी जातियों प्रमाणपत्र जारी किए जाएं। इससे पूर्व 2005 में मुलायम सिंह की सरकार ने उत्तर प्रदेश पब्लिक सर्विसेज एक्ट, 1994 में संशोधन किया था ताकि सार्वजनिक सेवाओं और पदों के लिए अनुसूचित जाति/जनजाति और ओबीसी को आरक्षण के साथ ही इन 17 ओबीसी जातियों को अनुसूचित जातियों में शामिल किया जा सके। उच्च न्यायालय ने उस संशोधन को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि ऐसा करने का अधिकार केवल संसद को है। मुलायम ने भी इसी प्रकार से जिलाधिकारियों को पत्र भेजा था, लेकिन केंद्र इसके लिए सहमत नहीं हुआ।
2013 में तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने यही प्रस्ताव केंद्र को भेजा था, लेकिन उन्हें भी नकार मिली जैसाकि उनके पिता के साथ हुआ था। 2016 में अखिलेश यादव ने एससी-एसटी ट्रेनिंग इंस्टीटय़ूट द्वारा एक सव्रे करवाया और इसके निष्कषरे के आधार पर केंद्र को इन सत्रह जातियों के पिछड़ेपन के मात्रात्मक आंकड़े समेत एक ताजा प्रस्ताव भेजा। राज्य सरकार ने इसके क्रियान्वयन के लिए आदेश भी जारी किया लेकिन इसे उच्च न्यायालय में चुनौती दे दी गई। उच्च न्यायालय ने जनवरी, 2017 में इसे खारिज कर दिया। राज्य सरकार ने अपनी हालिया अधिसूचना में 2017 में दिए गए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश का उल्लेख करते हुए कहा है कि उसके निर्देश उच्च न्यायालय के आदेश की अनुपालना हैं।
संबंधित सत्रह ओबीसी जातियां हैं-कहार, कश्यप, केवट, मल्लाह, निषाद, कुम्हार, प्रजापति, धीवर, बिंद, भार, राजभर, धीमर, बाथम, तुरहा, गोदिया, माझी और मछुआ। उच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी थी-‘आदेश के आलोक में कोई जाति प्रमाणपत्र जारी किए जाते हैं, तो वे प्रमाणपत्र रिट याचिका के फैसले पर निर्भर करेंगे। याचिकाकर्ता पर है कि वह चाहे तो ऐसे लोगों को प्रतिवादी के रूप में शामिल कर सकता है।’ यह आदेश 29 मार्च, 2017 को दिया गया था, लेकिन योगी सरकार ने इसके क्रियान्वयन के लिए 27 महीने बाद पत्र लिखा।
किसी जाति को अनुसूचित जाति में शामिल करने के लिए एक नियत प्रक्रिया है। 1950 से 1978 के बीच छह राष्ट्रपति आदेश जारी किए गए जिनमें कुछ विशेष जाति समूहों को अनुसूचित जातियों के तौर पर मान्यता दी गई। अनुसूचित जाति का आशय ही है कि भारत के संविधान में अनूसूची के रूप में यह निहित है। अनुच्छेद 341(1) में अनुसूचित जातियों की मान्यता संबंधी प्रक्रिया उल्लिखित है। इस अनुसूची में किसी राज्य में किसी जाति को शामिल करने या हटाने के लिए संबंधित राष्ट्रपति आदेश में संशोधन के लिए अनुच्छेद (2) में व्यवस्था है कि सबसे पहले तो राज्य सरकारें अनुसूची में बदलाव के लिए प्रस्ताव रखें। केवल उन्हीं प्रस्तावों को संसद में बिल के रूप में पेश किया जाता है, जिन पर भारत के रजिस्ट्रार तथा राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग अपनी सहमति जतला चुके होते हैं।
मुलायम सिंह यादव ने इस बाबत पहल इसलिए की ताकि ओबीसी सूची में से कुछ जातियों को अनुसूचित जाति की सूची में भेज कर यादवों के लिए ओबीसी सूची में ज्यादा से ज्यादा अवसर निकाले जा सकें। फिर, ऐसा करने से ये सत्रह जातियां उनकी अनुग्रहीत भी होतीं। इससे इन जातियों का समर्थन मुलायम को मिलता। अनुसूचित जातियों में उनका समर्थन आधार बढ़ता। साथ ही, उनकी कट्टर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी बसपा का महत्त्वपूर्ण समर्थन आधार समझी जाने वाली अनुसूचित जाति भी उद्वेलित हो जाती। इस प्रकार वह तीन निशाने लगाने की सोचे हुए थे-यादवों को उपकृत करना, इन सत्रह जातियों को उपकृत करना और बसपा के लिए समस्या पैदा करना। भाजपा के राजनीतिक कारण है। वह इन नव-अधिसूचित जाति समूहों से राजनीतिक फायदा उठाना चाहती है। 2019 के चुनाव में गैर-यादव ओबीसी जातियों से भाजपा को खासा समर्थन मिला था। वह अपने इस समर्थन आधार को और मजबूत करना चाहती है। इस चुनाव में उसे अन्य ओबीसी जातियों के 72 प्रतिशत मत हासिल हुए थे। अधिसूचना जारी करने में विलंब का कारण स्पष्टत: 2019 के लोक सभा चुनाव रहे। उनसे पहले यूपी सरकार इस मुद्दे को उठाना नहीं चाहती थी। इस डर से कि कहीं अन्य जाति समूह भी ऐसी ही मांग न करने लगें। अब इस बाबत पत्र जारी हुआ है, तो असेंबली के लिए जल्द होने वाले बारह उपचुनाव हैं।
इस फैसले से सबसे ज्यादा झटका बसपा को लगता दिखाई दे रहा है क्योंकि इसकी मंशा उसके प्रभाव क्षेत्र में सेंध लगाना है। इसलिए वह खुलकर इसका विरोध कर रही है। अवैध बता रही है, दलितों के आरक्षण कोटे को कमजोर करने की साजिश करार दे रही है। रोचक यह कि फैसले पर प्रतिक्रिया जताते हुए केंद्र की भाजपा-नीत सरकार ने उत्तर प्रदेश सरकार के फैसले को संविधान के अनुरूप नहीं होने की बात कही है क्योंकि ऐसा सिर्फ संसद ही कर सकती है। सामाजिक न्याय एवं आधिकारिता मंत्री थावर चंद गहलोत ने राज्य सभा में बसपा सदस्य सतीश चंद्र शर्मा द्वारा यह मुद्दा उठाए जाने पर उप्र सरकार के फैसले को ‘समुचित नहीं’ करार दिया। कहा कि उप्र सरकार ने प्रक्रिया का पालन नहीं किया। उसे केंद्र के विचार के लिए कायदे से प्रस्ताव बनाकर भेजना चाहिए। ऐसी प्रतिक्रिया वास्तव में भ्रमित कर देने वाली है क्योंकि विास करना मुश्किल है कि केंद्र सरकार को विास में लिए बिना ही उप्र सरकार ने इतना बड़ा फैसला कर लिया। विास करना मुश्किल है कि योगी मोदी के सामने अपने तई ऐसा फैसला करने का साहस करेंगे। वह भी तब जब मोदी भारी बहुमत से सत्तारूढ़ हुए हैं। लगता है कि मिलीभगत जैसा कुछ है। शायद केंद्र सरकार देखना चाहती है कि भला इस प्रस्ताव पर अन्य दलों की क्या प्रतिक्रिया होती है, या उसे लगता है कि यह प्रस्ताव भले ही न्यायिक तकाजों के आगे न ठहर सके लेकिन इन सत्रह जातियों तक भाजपा का यह संदेश जरूर पहुंच सकेगा कि उनके लिए भाजपा किस कदर कोशिश करने पर आमादा है। बहरहाल, समय ही बताएगा कि योगी सरकार के इस कदम के पीछे आखिर मंशा क्या है।
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