जल संरक्षण : पानी बचा तो बचेगा जीवन
वर्षा जल संरक्षण के कागजी प्रयासों की कमी नहीं, मॉनसून आने से पहले सरकारी स्तर पर तमाम वायदे किए जाते हैं।
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लेकिन जैसे ही मॉनसून दस्तक देता है उनके हवा-हवाई दावे पानी की धाराओं में बह जाते हैं। इस समय मॉनसून ने कई जगहों पर दस्तक दे दी है। लेकिन इस बार भी मॉनसून का ज्यादातर पानी बेकार चला जा सकता है। करीब दो दशकों से वष्राजल संचयन के लिए कई वैज्ञानिक व परंपरागत विधियां प्रयोग में लाई गईं, लेकिन सभी कागजी साबित हुईं। बरसे हुए पानी को सहेजने के लिए हिंदुस्तान में कई जगहों पर जलाय बनाए गए थे, जो इस वक्त खुद बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहे हैं। जलाशयों को बनाने के लिए करोड़ों रुपये पानी में बहाए गए, पर नजीता शून्य निकला।
इतना समझना होगा कि जल किसी एक मुल्क, या समुदाय की आवश्यकता नहीं बल्कि धरती पर जन्म लेने वाले सभी जीवों की जरूरत है।
वष्रा जल संरक्षण के लिए पूर्ववर्त्ती सरकारों ने बड़ा अभियान चलाया था। लेकिन बाद में बेअसर साबित हुए। समूचे भारत में 76 विशालकाय और प्रमुख जलाशयों के जल भंडारण की स्थिति पर निगरानी रखने वाले केंद्रीय जल आयोग की हालिया रिपोर्ट के आंकड़े चिंतित करते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक एकाध जलाशयों को छोड़कर बाकी सभी मरणासन्न स्थिति में हैं।
उत्तर प्रदेश के माताटीला बांध व रिहन्द, मध्य प्रदेश के गांधी सागर व तवा, झारखंड के तेनूघाट, मेथन, पंचेतहित व कोनार, महाराष्ट्र के कोयना, ईसापुर, येलदरी व ऊपरी तापी, राजस्थान का राणा प्रताप सागर,कर्नाटक का वाणी विलास सागर, ओडिशा का रेंगाली, तमिलनाडु का शोलायार, त्रिपुरा का गुमटी और पश्चिम बंगाल के मयूराक्षी व कंग्साबती जलाशय सूखने के कगार पर पहुंच गए हैं। इन जलाशयों पर बिजली बनाने की भी जिम्मेदारी है। लेकिन चार जलाशय ऐसे हैं, जो पानी की कमी के कारण लक्ष्य से भी कम विद्युत उत्पादन कर रहे हैं।
जलाशयों को बनाने के दो मकसद थे। अव्वल, वष्रा जल को एकत्र करना, दूसरा, जलसंकट की समस्याओं से मुकाबला। इनका निर्माण सिंचाई, विद्युत और पेयजल की सुविधा के लिए हजारों एकड़ वन और सैंकड़ों बस्तियों को उजाड़ कर किया गया था, मगर वह सभी सरकारी लापरवाही के चलते बेपानी हो गए हैं। केंद्रीय जल आयोग ने इन तालाबों में जल उपलब्धता के जो ताजा आंकड़े दिए हैं, उनसे साफ जाहिर होता है कि आने वाले समय में पानी और बिजली की भयावह स्थिति सामने आने वाली है। इन आंकड़ों से यह साबित होता है कि जल आपूर्ति विशालकाय जलाशयों की बजाए जल प्रबंधन के लघु और पारंपरिक उपायों से ही संभव है, न कि जंगल और बस्तियां उजाड़कर। बड़े बांधों के अस्तित्व में आने से एक ओर तो जल के अक्षय स्रेत को एक छोर से दूसरे छोर तक प्रवाहित रखने वाली नदियोें का वर्चस्व खतरे में पड़ गया है।
एक जमाना था, जब सामाजिक स्तर पर भी लोग बारिश के पानी को विभिन्न स्रेतों व प्रकल्पों में संरक्षित और संग्रहित किया करते थे ताकि बाद में जरूरत पड़ने पर इसका उपयोग किया जा सके। इस तरह व्यापक जलराशि को एकत्रित करके पानी की किल्लत को कम किया जाता था। लेकिन अब न तालाब बचे हैं और न दूसरे साधन। स्थिति ऐसी है कि जल का संरक्षण कम, दोहन ज्यादा हो रहा है। दरअसल, चहुंमुखी विकास का दिग्दर्शन भूजल का काल बना हुआ है। मानव निर्मित मशीनों का जितना बस चल रहा है उतना धरती का सीना चीरकर पानी जमीन से खींच रही हैं। उनको इस बात की कोई परवाह नहीं है कि जल जीवन का सबसे आवश्यक घटक है। नौकरशाहों की मिलीभगत से पानी की जमकर कालाबाजारी हो रही है।
बारिश के जल को एकत्र करने का सबसे माकूल माह ‘मॉनसून’ माना जाता है। लेकिन हम उसे गवा देते हैं। तालाब, पोखर, कुआं, बोरवेल आदि साधन हुआ करते थे, जो नदारद हैं। कहने को तो हिंदुस्तान को नदियों का देश कहा जाता है। पर सच्चाई यह है इस वक्त तो छोटी-बड़ी सैकड़ों नदियां खुद पानी के लिए तरस रही हैं। कई नदियों का तो वजूद भी खत्म हो गया। जल को दूषित होने से मात्र मॉनसून का ताजा जल ही बचा सकता है। इसलिए वक्त की मांग यही है जल को प्रदूषित होने और धरती से गायब होने से बचाने के लिए मॉनसून के पानी को सहेजना ही होगा। इस दिशा में सरकार को तो सख्ती से कदम उठाना होगा। पर उससे ज्यादा सामाजिक स्तर पर भी जनजागरण की दरकार है। तभी बचेगा जल, तभी बचेगा जीवन।
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