असमानता : खाई पाटने उठिये!
दुनिया भर में असमानता पर बहस में और तेजी आ गयी है।
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एक ओर अगर ट्रम्प ने 2017 में अमीरों के लिए करों में उल्लेखनीय कटौतियां की थीं और ब्रिटेन में भी, टेरेसा मे की जगह की दौड़ में सबसे आगे माने जा रहे बोरिस जॉन्सन ने भी ऐसा ही करने का वादा किया है, तो दूसरी ओर अमीरों पर कर बढ़ाने के भी प्रभावशाली प्रस्ताव किए जा रहे हैं। अमेरिका में अरबपतियों के एक ग्रुप ने, जिसमें जॉर्ज सोरोस भी शामिल है, आबादी के सबसे धनी 0.1 फीसद की दौलत पर, एक ‘मामूली सा संपदा कर’ कर लगाने का आग्रह किया है। यह ग्रुप भी और समानता लाने के पैरोकारों की तरफ से, इस बहस में शामिल हो गया है। नवउदारवाद के बोलबाले के वर्षो में दुनिया भर में आय तथा संपदा की असमानता में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हो रही थी। फ्रांसीसी अर्थशास्त्री, थॉमस पिकेट्टी ने (चाहे नवउदारवाद का उल्लेख किया बिना ही सही) जोरदार तरीके से इस सचाई को रेखांकित किया था। इसका स्वत:स्पष्ट कारण है। इसका संबंध, वैीकरण के चलते दुनिया भर में आय का, वेतन/मजदूरी कमाने वालों के हाथों से निकलकर, अधिशेष (सरप्लस) कमाने वालों के हाथों में पहुंचना है।
वर्तमान वैीकरण के हिस्से के तौर पर वित्तीय पूंजी समेत, पूंजी का प्रवाह उन्नत पूंजीवादी देशों से तीसरी दुनिया के देशों की ओर, खासतौर पर एशियाई देशों की ओर हुआ है। अमेरिकी फम्रे अब तीसरी दुनिया के देशों में पूंजी लगा रही हैं ताकि उनकी अपेक्षाकृत कम मजदूरी का फायदा उठा सकें। यह खुद अमेरिका के लिए और दुनिया के अन्य देशों के लिए भी, निर्यात के लिए उत्पादों के विनिर्माण के लिए किया जा रहा था। इस तरह अमेरिकी मजदूरों को अब तीसरी दुनिया के मजदूरों के साथ होड़ करनी पड़ रही थी और इन मजदूरों की मजदूरी मुश्किल से गुजारा करने के स्तर पर थी। पूंजी की ऐसी सचलता के चलते, संबंधित उन्नत देश तथा तीसरी दुनिया के देशों के मजदूरों की मजदूरी के अंतर पूरी तरह से मिट तो नहीं जाते हैं, फिर भी इसके चलते उन्नत देशों में मजदूरी का बढ़ना बंद तो हो ही जाता है। आखिरकार, उन्नत देशों के मजदूरों को भी अब तीसरी दुनिया में बेरोजगारों की विशाल फौज की मौजूदगी के दुष्प्रभावों की मार झेलनी पड़ रही होती है।
दूसरी ओर, पूंजी की इस सचलता के बावजूद, तीसरी दुनिया में बेरोजगारों की फौज कोई खत्म नहीं हो जाती है। इसलिए कि इसी दौरान श्रम की उत्पादकता में भी तेजी से बढ़ोतरी हो रही होती है। दूसरे यह कि वैीकरण के अंतर्गत, लघु उत्पादन को, जिसमें किसानी खेती भी शामिल है, बुरी तरह से सिकोड़ा जा रहा होता है। बदहाल किसान, रोजगार की तलाश में शहरों में पलायन करते हैं, जबकि वहां भी उनके लिए रोजगार नहीं होता है। नतीजतन, तीसरी दुनिया में बेरोजगारों की विशाल फौज की मौजूदगी का मजदूरी पर अंकुश लगाने वाला प्रभाव उनकी अपनी सीमाओं से निकलकर, दुनिया भर में मजदूरों की मजदूरी को नीचा रखने वाला प्रभाव बन जाता है। बेरोजगारों की फौज घट नहीं रही होती है बल्कि उसमें नये लोग जुड़ते जाते हैं।
इसलिए, हालांकि श्रम की उत्पादकता में बढ़ोतरी हो रही होती है, हर जगह मजदूरी में बढ़ोतरी रुक जाती है। इसी के चलते उन्नत देशोें में भी और तीसरी दुनिया के देशों में भी, आय के वितरण में बदलाव आता है और मजदूरी/ वेतन कमाने वालों के हाथ से निकलकर आय का बढ़ता हिस्सा अधिशेष बटोरने वालों के हाथों में जाता रहता है। आय के वितरण में यह बदलाव, संपदा असमानता भी बढ़ाता है। अमेरिका के केंद्रीय बैंक की ही रिपोर्ट के अनुसार, सबसे धनी 1 फीसद अमेरिकी आबादी ने पिछले तीन दशकों में अपनी संपदा में 21,000 अरब डॉलर की बढ़ोतरी की थी, जबकि सबसे नीचे की 50 फीसद आबादी की संपदा में 900 अरब डॉलर की कमी हुई थी।
विडंबना यह है कि जहां बाकी दुनिया भर में असमानता पर बहस में गर्मी आ गयी है, भारत में इस पर शायद ही कोई बहस हो रही है। हमारे देश में संपदा तथा आय की असमानता में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। आय कर को आधार बनाकर, पिकेट्टी तथा चांसेल द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार, 2013-14 में कुल राष्ट्रीय आय में सबसे ऊपर के 1 फीसद का हिस्सा, 21.7 फीसद था। 1922 में भारत में आयकर लागू होने के बाद से, यह इस हिस्से का सबसे ऊंचा आंकड़ा था। दूसरे शब्दों में, जब इस देश में राजा-महाराजा बने हुए थे, तब भी आय की असमानता इतनी ज्यादा नहीं थी, जितनी कि आज है। असमानता कितनी तेजी से बढ़ी है, इसका अंदाजा इसीसे लगाया जा सकता है कि 1982 में राष्ट्रीय आय में सबसे ऊपर की 1 फीसद आबादी का हिस्सा, सिर्फ 6.2 फीसद था, जो 2013-14 तक बढ़कर 21.7 फीसद हो गया। ये आंकड़े बताते हैं कि नियंत्रणकारी अर्थव्यवस्था के दौर में संपदा असमानता पर कुछ अंकुश लग रहा था, जबकि आर्थिक उदारीकरण के दौर में तो जैसे असमानता का बाकायदा विस्फोट ही हो गया है।
यही बात संपदा असमानता के बारे में भी सच है। आज सबसे ऊपर के 1 फीसद परिवारों के पास, देश की कुल संपदा का लगभग 60 फीसद हिस्सा है। आर्थिक उदारीकरण के दौर में, इस हिस्से में भी तेजी से बढ़ोतरी हुई है। आज भारत में संपदा असमानता इतनी बढ़ गयी है कि अमेरिका भी इस मामले में हमारे देश से पीछे छूट गया है। इसके बावजूद, संपदा तथा आय की असमानता में इस भारी बढ़ोतरी पर पिछले कुछ वर्षो में शायद ही कोई आवाज सुनने को मिली होगी। यहां तक विश्व आर्थिक मंच ने भी, जिसे धन्नासेठों लोगों का क्लब कहा जा सकता है, जिसकी हर साल दावोस में बैठक होती है, विश्व अर्थव्यवस्था में असमानता में इस बढ़ोतरी पर चिंता जताना जरूरी समझा है। वह इस बढ़ती असमानता से, जनतंत्र के लिए खतरे के रूप में देख रहा है। लेकिन, भारत में अति-धनिकों से मोदी सरकार की नजदीकी, जिस पर आक्रामक हिंदुत्व का पर्दा डाले रखा जाता है, दोनों ही पक्षों को खुश रखती है, मोदी भक्तों को भी और अति-धनिकों को भी। और भारत में जनतंत्र के लिए खतरा, हिंदुत्ववादी तत्वों और अति-धनिकों के बीच इस गठजोड़ से ही आता है।
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