श्रम कानून : सुधार से हिचके तो रुकेगा विकास

Last Updated 03 Jul 2019 06:56:57 AM IST

उन्नीसवीं शताब्दी का अंतिम चरण कल-कारखानों के विकास का दौर था। उस कालखंड में ही ट्रेड यूनियनों का विकास हुआ।


श्रम कानून : सुधार से हिचके तो रुकेगा विकास

उस समय भी उद्योगपति अपने फायदे के लिए मजदूरों का शोषण करते थे। इसलिए, एक ऐसे संगठन की जरूरत महसूस की जा रही थी, जो मजदूरों को उद्योगपतियों या प्रबंधन के शोषण से बचाये। इस क्रम में मजदूरों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए ट्रेड यूनियन का गठन किया गया। ट्रेड यूनियन के गठन का मकसद था औद्योगिक अमन-चैन को कायम रखना। कामगारों की मांगों, शिकायतों आदि को प्रबंधन के समक्ष ट्रेड यूनियन के माध्यम से रखा जाता था। प्रबंधन और मजदूरों के बीच असंतोष पनपने पर उसका समाधान ट्रेड यूनियन निकाला करते थे। ट्रेड यूनियन मजदूर और प्रबंधन के बीच संवाद कायम करने का काम करते थे।
भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में श्रमिकों की अहम भूमिका है, लेकिन वर्तमान समय में श्रमिकों से जुड़ी अनेक समस्याएं देश में मौजूद हैं। देश में श्रमिकों की ज्यादा संख्या होने के कारण रोजगार की शर्तों में सुधार लाना और श्रमिकों से जुड़े मुद्दोें का समाधान करना अति महत्त्वपूर्ण कार्य है।हालांकि, श्रम कल्याण शुरू से ही सरकार की प्राथमिकता में रहा है, लेकिन अभी भी श्रमिकों से जुड़े मुद्दे बरकरार हैं। श्रमिकों से जुड़े मुद्दों का समाधान करके ही उत्पादकता और दक्षता में इजाफा किया जा सकता है। इसलिये, भारत में श्रम सुधार के लिये एक लंबे समय से प्रयास किये जा रहे हैं।

भारत में औद्योगिक संबंधों में बदलाव नब्बे के दशक की शुरु आत में मुक्त बाजार नीति को लागू करने के बाद दृष्टिगोचर होने लगा था, जिसकी पुष्टि श्रम ब्यूरो के आंकड़ों से की जा सकती है। हालांकि, औद्योगिक विवादों में उल्लेखनीय कमी आई है, लेकिन अभी भी यह चिंता का विषय बना हुआ है। वर्ष 1979 में 3049 श्रमिकों से जुड़े विवाद लंबित थे, जो वर्ष 2011 में कम होकर 370 और वर्ष 2016 में घटकर 109 हो गये। हाल के दिनों में मजदूरी, अनुशासनहीनता, सेवा शर्तों आदि को लेकर विवाद कम हुए हैं। बदले माहौल में श्रम कानूनों की व्यापक समीक्षा करने की जरूरत है। संविधान के अनुच्छेद 246 के अनुसार श्रम और श्रम कल्याण से जुड़े मुद्दों को समवर्ती सूची में रखा गया है। फिलहाल, 44 केंद्रीय श्रम कानून हैं और 100 से अधिक राज्य श्रम कानून हैं। ये कानून 4 से 8 दशक पुराने हैं। इसलिये, इनकी प्रासंगिकता पर सवाल खड़े किये जा रहे हैं, क्योंकि कई पुराने श्रम कानून आज अपनी उपयोगिता खो चुके हैं। मौजूदा नियमों के अनुसार कंपनियां श्रमिकों के मसले को आसानी से सुलझा नहीं पा रही हैं, जिनके कारण कानूनी जटिलताएं बढ़ रही हैं।
श्रम विनियमन और उन्मूलन अधिनियम, 1970 के अनुसार अनुबंध श्रमिकों का इस्तेमाल तार्किक रूप से किया जाना चाहिये। सामूहिक सौदेबाजी के संबंध में केंद्रीय श्रम कानून कुछ नहीं बताता है। उदाहरण के तौर पर संविधान के अनुच्छेद 19 के अनुसार सभी को विरोध का मौलिक अधिकार है, लेकिन हड़ताल करना मौलिक अधिकार नहीं है। हां, औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के मुताबिक कुछ संवैधानिक प्रतिबंधों के साथ यह एक कानूनी अधिकार है। हालांकि, भारत में औद्योगिक विवाद कम हुए हैं, फिर भी दूसरे देशों की अपेक्षा ये अभी भी अधिक हैं। अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन के पास उपलब्ध नवीनतम तुलनात्मक आंकड़ों के अनुसार भारत में 23.34 लाख कार्यदिवसों की बर्बादी हुई है, जबकि ब्रिटेन में यह 1.7 लाख, अमेरिका में 7.4 लाख और रूस में केवल 10,000 है।
श्रम नियमों के अनुपालन की उच्च लागत और केंद्र और राज्य स्तर पर विभिन्न श्रम कानूनों की वजह से उत्पन्न जटिलताओं के आलोक में केंद्र सरकार ने हाल ही में अनुपालन को आसान और प्रभावी बनाने के लिए नीतियां पेश की हैं। दूसरे राष्ट्रीय श्रम आयोग की सिफारिशों के आलोक में श्रम मंत्रालय ने केंद्रीय श्रम कानूनों के प्रावधानों को सरल और युक्तिसंगत बनाते हुए केंद्रीय श्रम कानूनों का संहिताकरण किया है। इस क्रम में इन्हें 4 भागों यथा, मजदूरी, औद्योगिक संबंध, सामाजिक सुरक्षा व कल्याण, व्यावसायिक सुरक्षा और स्वास्थ्य में विभाजित किया गया है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रबंधन ट्रेड यूनियन की जरूरत को नकारना चाहता है। लेकिन हकीकत में यूनियन की सार्थकता को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता है। एक स्वस्थ माहौल में ही उद्योग-धंधों को विकसित किया जा सकता है। इस दृष्टिकोण से श्रम क़ानूनों में सुधार लाकर ही विकास की गति को सुचारु  रूप से आगे बढ़ाया जा सकता है।

सतीश सिंह


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