कश्मीर : राष्ट्रहित का उत्तर-सत्य

Last Updated 02 Jul 2019 05:39:08 AM IST

मोदी-2 में भारत में उत्तर-सत्य युग बाकायदा शुरू हो गया है। जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन की अवधि छह महीने बढ़ाने के प्रस्ताव के पक्ष में नये गृह मंत्री अमित शाह ने जो कुछ कहा और करने का इरादा जताया, कम से कम कश्मीर के संदर्भ में तो जैसे इस नये युग के आरंभ का ही ऐलान था।


कश्मीर : राष्ट्रहित का उत्तर-सत्य

मौजूदा शासन ने, हर चीज के, हर धारणा के, अर्थ पूरी तरह से बदल ही दिए हैं।

जिन चीजों को अब तक अमूल्य समझा जाता था, उन्हें मामूली बना दिया गया है और जिन्हें स्वीकृत सत्य मानकर चला जाता था, उन्हें सिरे से अमान्य। इसीलिए 17वीं लोक सभा में अपने पहले ही किंतु बहुत ही हमलावर तथा टकराववादी भाषण के दौरान अमित शाह ने जब जम्मूू-कश्मीर के साथ सलूक के संदर्भ में एनडीए के पहले प्रधानमंत्री, अटल बिहारी वाजपेयी का ‘जम्हूरियत, कमीरियत, इंसानियत’ का सूत्र दुहराया तो यह उनकी सरकार की बुनियादी तौर पर ‘ताकत दिखाऊ’ नीति के साथ, वाजपेयी का सूत्र दुहराए जाने की विडंबना तक ही सीमित नहीं रहा। जैसा कि कई टिप्पणीकारों ने दर्ज भी किया, मोदी-2 के गृह मंत्री वास्तव में वाजपेयी के बहुउद्धृत सूत्र को ही इस तरह पुनर्परिभाषित कर रहे थे कि उसे भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार की ‘ताकत दिखाऊ नीति’ की हिमायत के लिए सिर के बल खड़ा किया जा सके। जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन छह  माह और बढ़ाने का शाह का प्रस्ताव अपने आप में उत्तर-सत्य का अच्छा उदाहरण था।

बेशक, जम्मू-कश्मीर में न तो राष्ट्रपति शासन पहली बार लगाया गया है, और न ही उसका विस्तार पहली बार हो रहा है। समस्या राष्ट्रपति शासन के विस्तार में उतनी नहीं है, जितनी कि गृह मंत्री द्वारा राज्यपाल/राष्ट्रपति शासन को एक समस्या या मजबूरी के रास्ते के रूप में पेश किए जाने की जगह जम्मू-कश्मीर के लिए बहुत ही कारगर व्यवस्था के रूप में पेश किए जाने में है। बेशक, शाह ने न सिर्फ दावा किया कि उनकी सरकार जम्मू-कश्मीर में कभी भी चुनाव कराने के लिए तैयार है बल्कि साल के आखिर तक राज्य में चुनाव करा लिए जाने का भरोसा भी जताया। यह दूसरी बात है कि इसके सवालों के जवाब में कि जब संसद के चुनाव शांतिपूर्वक कराए जा सकते थे, तो विधानसभाई चुनाव क्यों नहीं कराए गए और विधानसभा चुनाव फौरन क्यों नहीं कराए जा रहे हैं, उन्होंने जिम्मेदारी चुनाव आयोग पर डाल दी। लेकिन यह असुविधाजनक सवालों से बचने के लिए झूठी बहानेबाजी भर है क्योंकि जम्मू-कश्मीर जैसे राज्य में चुनाव आयोग सुरक्षा की स्थिति के संबंध में सरकार के परामर्श के आधार पर ही चुनाव की तारीखें तय कर सकता है, स्वतंत्र रूप से नहीं। बहरहाल, मुद्दा सिर्फ चुनाव की तारीखों का नहीं है। मुद्दा गृह मंत्री के माध्यम से मौजूदा सरकार के यह दावा कर रहे होने का है कि राज्यपाल/राष्ट्रपति शासन में राज्य में हालात सुधरे हैं, और उससे पहले राज्य में रही पीडीपी-भाजपा गठबंधन सरकार समेत सभी चुनी हुई सरकारों के कार्यकाल के मुकाबले बहुत सुधार हुआ है। चूंकि भाजपा जम्मू-कश्मीर को सबसे बढ़कर ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ की नजर से ही देखती है, इसका सीधा सा मतलब यही है कि शाह की नजर में जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल/राष्ट्रपति शासन किसी चुनी हुई सरकार के  मुकाबले, राष्ट्र के हित में बेहतर विकल्प है। हां! अगर वहां चुनाव के जरिए सीधे भाजपा द्वारा संचालित सरकार बन सकती हो तो बात दूसरी है।  बेशक, उससे कम उसे मंजूर नहीं। आखिरकार, सहयोगी पीडीपी पार्टी के नेतृत्व वाली अपनी ही गठबंधन सरकार के मुकाबले हालात में राष्ट्रहित में भारी सुधार का दावा तो अमित शाह कर ही रहे थे! जनतंत्र और राष्ट्रहित माने, केंद्र की सत्ताधारी पार्टी का राज। उसके लिए मोदी-शाह सरकार कुछ भी करेगी। यही है जम्हूरियत की उनकी नई परिभाषा। और कश्मीरियत! कश्मीरियत की शाह की सरकार को कितनी परवाह है, इसका अंदाजा सिर्फ एक इशारे से लगाया जा सकता है। गृह मंत्री की हैसियत से जम्मू-कश्मीर की अपनी पहली यात्रा में शाह ने क्या किया? एक ओेर बहुप्रचारित तरीके से अधिकारियों के साथ बैठकें कर इसी महीने शुरू हो रही अमरनाथ यात्रा की तैयारियों का जायजा लिया। दूसरी ओर, उतने ही प्रचारित तरीके से कश्मीर में किसी भी राजनीतिक पहल, संवाद की किसी भी प्रक्रिया की जरूरत को नकार दिया। किसी गृह मंत्री की जम्मू-कश्मीर की यात्रा में इससे कभी ऐसा नहीं हुआ था। यह संकेत इसलिए और भी महत्त्वपूर्ण था कि गृह मंत्री की राज्य की पहली यात्रा की पूर्वसंध्या में और संभवत: उसकी तैयारी के रूप में भाजपा के नेता से राज्यपाल बने सतपाल मलिक ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि अलगाव की मांग करने वालों में से उदारपंथी धड़ा सरकार से बातचीत करने के लिए तैयार है। बहरहाल, शाह ने साफ कर दिया कि उनकी कोई संवाद शुरू करने में कोई दिलचस्पी ही नहीं है। जाहिर है कि यह निजी दिलचस्पी होने न होने का मामला नहीं है। इसके जरिए भाजपा, आम तौर पर देश भर में  खास तौर पर जम्मू में अपने हिंदू समर्थकों को संदेश देना चाहती है कि उसे कश्मीरियों की परवाह नहीं है। जानी-मानी बात है कि भाजपा ने इस राज्य में मुस्लिम कश्मीर बनाम हिंदू जम्मू के विभाजन के जरिए अपने पांव फैलाए हैं। आने वाले विधानसभाई चुनाव के लिए, चाहे जब भी कराए जाएं, वह इसी खाई को और चौड़ा करने के आसरे है। अचरज नहीं कि भाजपा अखिल भारतीय स्तर पर ही नहीं जम्मू में भी, राज्य की स्वायत्तता से लेकर, उसके विशेष दज्रे पर मोहर लगाने वाली संविधान की धारा-370 तक इस राज्य के वृहत्तर हितों की रक्षा की हरेक मांग के खिलाफ है। इस तरह क्षेत्रीय से बढ़कर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ाने में लगी भाजपा, कश्मीरी पंडितों की त्रासदी को सांप्रदायिक रूप से भुनाने के सिवाय किस कश्मीरियत की बात सकती है?
अचरज नहीं कि संसद में शाह के भाषण में सबसे ज्यादा जोर कश्मीर में विरोधियों के ‘दिलों में डर’ बैठाने पर ही था। इसके बावजूद है कि मोदी सरकार की तथाकथित ‘जीरो टॉलरेंस’ की नीति ने मारे जाने वाले मिलिटेंटों की संख्या में बढ़ोतरी की है, तो मुठभेड़ों में सुरक्षा बलों के जवानों और नागरिकों की मौतों में भी, वैसी ही उल्लेखनीय वृद्धि की है। यही है इंसानियत के दावे की हकीकत। सचाई यही है कि कश्मीर घाटी में जनता का अलगाव ही शीर्ष पर नहीं पहुंचा है, बल्कि नौजवानों के मिलिटेंट बनने की रफ्तार में भी जबर्दस्त बढ़ोतरी हुई है। यह नीति गोलियों का खर्चा और लाशों की संख्या ही बढ़ा सकती है, बढ़ा रही है। लेकिन इसी तर्क से इसे राष्ट्रहित का तकाजा बताया जा रहा है। यही तो उत्तर-सत्य युग है।

राजेंद्र शर्मा


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