स्वास्थ्य : नये भारत का विचार
कहा जा सकता है कि 2019 में भारत में स्वास्थ्य सार्वजनिक एवं राजनीतिक विमर्श के केंद्र में आ गया है। 2017 में नई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति की घोषणा की गई।
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तत्पश्चात 2018 में आयुष्मान भारत कार्यक्रम आरंभ किया गया। उतने ही जोरशोर से आरंभ किया गया जितनी राज्य केंद्रित-दिल्ली में मोहल्ला क्लीनिक्स तथा तेलंगाना में बस्ती दवाखाना-पहल की गई थीं। संभवत: आम चुनाव तमाम राजनीतिक दलों के लिए ऐसा अवसर था कि वे अपना दृष्टिकोण तथा ‘स्वास्थ्य का अधिकार’ जैसे अपने विचारों को स्पष्टता से सामने रखें।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में 2025 तक स्वास्थ्य क्षेत्र पर परिव्यय बढ़ाकर जीडीपी का 2.5% किए जाने का सरकार ने मंसूबा बांधा है। सही भी है कि समय-समय पर महसूस हुआ है कि स्वास्थ्य और विकास के बीच एक तारतम्य जैसा कुछ है। इस सिलसिले में गरीबी उन्मूलन और आर्थिक वृद्धि भी शामिल हैं। इस बात को दिनोंदिन शिद्दत से महसूस किया जा रहा है। ऐसा ही महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव रहा है कि प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल पर सरकार परिव्यय बढ़ाए। अपने कुल स्वास्थ्य परिव्यय का दो-तिहाई या उससे ज्यादा हिस्सा प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल पर व्यय करे। एक अधिक मजबूत पीएचसी प्रणाली जनसंख्या के करीब 80% हिस्से की स्वास्थ्य संबंधी जरूरतें अच्छे से पूरी कर सकती है। इस लिहाज से स्वास्थ्य पर परिव्यय बढ़ाने की सरकार की प्रतिबद्धता न केवल वांछित है, बल्कि सही दिशा में उठाया गया कदम भी है। 2019-20 के अंतरिम बजट में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, 2017 का कमोबेश अनुसरण किया गया।
गौरतलब है कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति-2017 में ‘भारत के लिए विजन-2030’ का प्रस्ताव रखा गया और इसमें शामिल दस क्षेत्रों में ‘स्वस्थ भारत’ को भी एक क्षेत्र के तौर पर शुमार किया गया है। लेकिन पूर्व में की गई इसी प्रकार की नीतिगत घोषणाएं सफल न हो सकीं और उनके लिए प्रयास उसी अनुपात में फलीभूत न हो सके। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति-2002 में भी वादा किया गया था कि 2010 तक सरकार स्वास्थ्य क्षेत्र पर अपना परिव्यय बढ़ाकर जीडीपी का 2% तक कर देगी। यदि 2017 के प्रस्ताव को मूर्ताकार करना है, तो सरकार को स्वास्थ्य बजट में सालाना 20-25% तक की वृद्धि करनी होगी। तभी 2025 तक नीति में नियत लक्ष्य को हासिल किया जा सकेगा। पिछले दो केंद्रीय बजटों में यह मात्र 12-15% ही रहा। जुलाई, 2019 के प्रथम सप्ताह में केंद्र में नवनिर्वाचित सरकार बजट पेश करेगी। हालांकि केंद्रीय बजट पारंपरिक रूप से वित्तीय पहलुओं पर केंद्रित रहता आया है, लेकिन काफी समय से यह नीतिगत फैसलों की घोषणा का भी अवसर बन गया है। स्वास्थ्य और आर्थिक वृद्धि में जो संबंध है, उसी से पुष्टि हो जाती है कि केंद्रीय बजट स्वास्थ्य क्षेत्र में बेहतरी का माध्यम है। वित्त मंत्री द्वारा कुछ बातों पर विचार किया जा सकता है, काफी कुछ तो पहले ही किया जा चुका है, ताकि एक स्वस्थ भारत के लिए विजन-2030 क्रियान्वित किया जा सके। पहली बात तो यह है कि स्वास्थ्य देखभाल संबंधी सेवाओं की लागत बहुत ज्यादा है, और जेब पर भारी पड़ती हैं। गरीबी की गिरफ्त में आने के कारणों में महंगी स्वास्थ्य सेवाएं भी शामिल हैं। चूंकि भारत गरीबी के खात्मे को तत्पर है, इसलिए जरूरी है कि बहुक्षेत्रीय स्वास्थ्य-संबद्ध गरीबी उन्मूलन रणनीति/योजना तैयार की जाए। चीन ने ऐसा ही योजना 2015 में बनाई थी, जिसने थोड़े से समय में स्वास्थ्य संबंधी गरीबी को कम करने में खासा योगदान दिया।
दूसरी बात यह कि स्वास्थ्य संबंधी सामाजिक कारक (एसडीएच) स्वास्थ्य क्षेत्र के परिणामों को पचास प्रतिशत तक प्रभावित करते हैं। इसलिए स्वास्थ्य क्षेत्र बेहतर परिणाम हासिल करने के लिए स्वास्थ्य केंद्रित हस्तक्षेपों नाकाफी हैं। आयुष्मान भारत प्रोग्राम (एबीपी) एक अच्छी पहल है, जिसके दो हिस्से हैं-प्रधान मंत्री जन आरोग्य योजना (सेकेंड्री तथा उच्च अस्पताल सुविधाओं के लिए) तथा प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल के लिए हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर (एचडब्ल्यूसी)। इनमें तीसरी हिस्से को शामिल किए जाने की दरकार है, और ये हैं सामाजिक कारक। जिन्हें बहुक्षेत्रीय योजना के साथ लागू किया जाए ताकि स्वास्थ्य क्षेत्र में बेहतर नतीजे मिल सकें और इस क्षेत्र में अच्छी प्रगति की जा सके। तीसरी बात यह है कि आगामी छह वर्षो में साल दर साल स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा करने के लिए सरकार के निवेश में 20-25% की बढ़ोतरी की जाए ताकि राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति-2017 के लक्ष्य को हासिल किया जा सके। सार्वजनिक वित्तीय प्रबंधन में समुचित सुधारों के जरिए स्वास्थ्य क्षेत्र में क्षमता निर्माण की दिशा में कार्य करना जरूरी है। चौथी बात यह है कि भारत में अनुमानत: 1.8 मिलियन रोजगार अवसर स्वास्थ्य क्षेत्र में सृजित किए जा सकते हैं। इसी से जाहिर हो जाता है कि यह क्षेत्र किस कदर यूएचसी को बढ़ाने और महंगे उपचार से पार पाने में कारगर हो सकता है। इसके साथ ही स्वास्थ्य देखभाल संबंधी कुशल कार्यबल होना चाहिए।
इस कार्यबल में मिड-लेवल हेल्थकेयर प्रोवाइडर (एमएलएचपी), टास्क शिफ्टिंग और समर्पित सार्वजनिक स्वास्थ्यकर्मी होने चाहिए जो बचाव और जागरूकता पर ध्यान केंद्रित किए हों। पांचवी बात यह है कि शहरी इलाकों में समर्थ प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल मुहैया कराना समय की जरूरत है। आयुष्मान भारत कार्यक्रम के तहत मौजूदा साढ़े चार हजार शहरी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (यू-पीएचसी) को एचडब्ल्यूसी में बदला जा रहा है, इससे स्वास्थ्य क्षेत्र को काफी राहत मिलेगी। मौजूदा यू-पीएचसी में प्रत्येक पचास हजार की जनसंख्या के लिए स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने की क्षमता है, जो ग्रामीण पीएचसी की तुलना में बेहतर नहीं हैं, जो बीस से तीस हजार की जनसंख्या को स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया करा रहे हैं। इसलिए जरूरी है कि शहरी भारत में ज्यादा यू-पीएचसी स्थापित करने में ज्यादा पूंजी निवेश किया जाए।
प्रयास हो कि प्रत्येक 20 हजार की जनसंख्या पर एक यू-पीएचसी तो हो ही। ज्यादा यू-पीएचसी का एक मजबूत तंत्र अस्पतालों पर भीड़ का बोझ कम करने में सहायक होगा। इससे अस्पतालों को विशेष स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने के ज्यादा अवसर मिलेंगे। इसके साथ ही राज्य सरकारों और शहरी स्थानीय निकायों के बीच शहरी स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने के मामले में समन्वय मजबूत हो सकेगा जिससे भारत में प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल की स्थिति बेहतर हो सकेगी। बहरहाल, सभी की नजरें बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए किए जाने वाले प्रावधानों पर रहेंगी।
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