संविधान रचना की पृष्ठभूमि

Last Updated 16 Jun 2019 07:30:15 AM IST

किसी भी देश का संविधान उस राष्ट्र को शक्तिशाली और समर्थ बनाए रखने के लिए राज्य को दिशा-निर्देश देने वाला एक राजनीतिक दस्तावेज होता है।


संविधान रचना की पृष्ठभूमि

उदाहरण के लिये संयुक्त राज्य अमेरिका में अनेक यूरोपीय समूह परस्पर बुरी तरह लड़ने लगे और लड़ते रहे तथा इसके बाद अपने बीच के कुछ प्रबुद्ध लोगों के समझाने-बुझाने के बाद कतिपय न्यूनतम बातों पर एक सहमति बनाने के लिए तैयार हुए तो वहां वर्तमान अमेरिका का संविधान रचा गया जो थोड़े से पन्नों का है। वह एक कृत्रिम राष्ट्र है, क्योंकि उसमें अनेक राज्य हैं और स्थिति यह है कि प्रत्येक राज्य में अनेक विषयों पर परस्पर भिन्न विधिक प्रावधान हैं, अलग-अलग कानून हैं, जिनमें से कुछ कानून एक दूसरे के विरु द्ध भी हैं क्योंकि अलग अलग राज्य में यूरोप के अलग-अलग समूहों का वर्चस्व है, तो ऐसे लोगों के बीच न्यूनतम सहमति बनाए रखने के लिए वहां का छोटा सा संविधान रचा गया। जहां तक इंग्लैंड की बात है, वहां न तो पहले लिखित रूप में संविधान था और ना वर्तमान में है। तब भारत में लिखित संविधान का आग्रह अंग्रेजों ने क्यों किया?
भारत में अपने अनुकूल समूह को सत्ता सौंपकर और अपनी जिम्मेदारियां देकर जब वे जाने लगे तो उन्होंने यह मांग क्यों की कि एक संविधान बनाओ, तब हम जाएंगे? स्पष्ट है कि उनके अनुकूल संविधान बनेगा, तभी सत्ता दे कर जाएंगे, यह उन्होंने स्पष्ट कर दिया और इसीलिए इंडिया एक्ट,1935 में अमेरिका और फ्रांस के संविधान से कुछ चीजें जोड़कर एक संविधान बनाया गया, जिसे स्वयं जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि यह है रूल ऑफ गवन्रेस है, शासन संचालन की नियमावली है, जो आवश्यकता के अनुरूप बदलती रहेगी। ऐसी स्पष्ट स्थिति थी और तब भी अंग्रेज इस संविधान की रचना के लिए दबाव बनाकर या प्रेरणा देकर उसके बाद ही गए तो इस संविधान का प्रयोजन क्या रहा होगा?  हम भलीभांति जान सकते हैं। स्पष्ट रूप से इसका प्रयोजन था कि भारत जो अब खुले तौर पर एक राजनीतिक उपनिवेश नहीं है, वह परोक्ष रूप से उनका उपनिवेश बना रहे। यहां के संसाधनों को अपने हित में ले जाने में वे समर्थ रहें। साथ ही ऐसी व्यवस्था बना गए कि वे निरंतर यहां के संसाधनों को अपने यहां ले जाते रहें तथा यहां पर उनका वर्चस्व रहे, उनकी शिक्षा का, बुद्धि का, संस्कृति का वर्चस्व यहां रहे, यह प्रयोजन स्पष्ट था।

इस वर्चस्व के बने रहने में उनके समक्ष एकमात्र बाधा हिंदू समाज था, विशेषकर यहां की द्विज जातियां, द्विज लोग, द्विज समूह उनके मार्ग की बाधा थे प्रारंभ से ही। प्रारंभ से ही अंग्रेजों को हिंदुओं से हिंदू धर्म विशेषकर द्विजों से, द्विज जातियों से कष्ट रहा है। कारण यह है कि जिन दिनों अंग्रेज का एक समूह ईस्ट इंडिया कंपनी के रूप में भारत में व्यापार करने की दृष्टि से अपने बेरोजगार नवयुवकों के झुंड को भेजने लगा, उन दिनों भारत की स्थिति यह थी कि यहां मुसलमानों की हैसियत यानी शासक मुसलमानों की, नवाब वगैरह  की हैसियत नगण्य थी, बहुत ही छोटी हैसियत हो चुकी थी। बात यह है कि कंपनी की ऐसी कोई हैसियत नहीं थी कि भारत के राजाओं व्यापारियों से कोई बराबरी का व्यवहार कर सके। इसलिए इनको अपनी मनमानी में सबसे बड़ी बाधा हिंदू समाज, उसके धर्मनिष्ठ और सदाचारी लोग दिखते थे। यह बात 1757 से 1942-1945 तक निरंतर हमें दिखाई देती है। चर्चिल कहता था, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भी कि हमें सब से बड़ा खतरा द्विज हिन्दुओं से है। उन अंग्रेजों को जो यहां से लूटपाट कर ले जाना चाहते थे, उनको सबसे बड़ी बाधा हिंदू समाज विशेषत: यहां की द्विज जातियां नजर आती थीं, इसीलिए उनका प्रयास रहा कि यह जो संविधान बनाया जा रहा है, 1947 -48 में,  इसके द्वारा हिंदू समाज विशेषत: द्विज हिंदू जातियों को कुछ इस तरह बांध दिया जाए कि वह धर्म शिक्षा की अपनी परंपरा को आगे बढ़ाने में असमर्थ रहें और उनकी भावी पीढ़ी धर्म बोध से रहित रहे ताकि उस पर नियंत्रण इस तरह सरल हो जाए जिससे कि भारत के राष्ट्रीय संसाधन आगे भी इंग्लैंड और उसके मित्र देशों की सेवा में, उनके उपभोग के लिए सुलभ रहें। यही कारण है कि ऐसी स्थिति बनाई गई और जो लोग सत्ता में आए उन्होंने योजनापूर्वक ऐसी स्थिति बनाई तथा कुछ संशोधन भी इसी प्रकार के संविधान में किए, जिससे हिंदू धर्म को बांधा जा सके, उस पर नियंत्रण स्थापित किया जाए और हिंदू समाज विशेषत: द्विज जातियों को धर्मज्ञान और परंपरा से रहित बनाया जाए, उनको धर्म के और अपनी ज्ञान परंपरा के ज्ञानार्जन के मामले में असहाय और अवश कर दिया जाए।
 यह अकारण नहीं है कि उस समय सेक्युलर जैसा कोई भी शब्द संविधान में डालना आवश्यक नहीं माना गया और यह सब कुछ उस समय डाला गया, 28 वर्षो बाद, जब भारत में आपातकाल था, इमरजेंसी थी और लोकतंत्र प्रतिबंधित था। ऐसा तो राज्य कहीं होता नहीं, जिसमें बहुसंख्यकों के धर्म के विरु द्ध कोई प्रावधान हो। राज्य किसी भी एक मजहब या पंथ के प्रति पक्षपात या विशेष आग्रह का भाव न रखे, यही सेक्युलरिज्म की आधारभूत शर्त है परंतु भारत में राज्य की रचना और संचालन कुछ इस तरह से किया जाने लगा कि सरकारी खजाने से अल्पसंख्यकों के मजहब और रिलीजन की शिक्षा के लिए तो खजाना खोल दिया जाएगा, बहुत सारी सुविधाएं दी जाएंगी परंतु बहुसंख्यकों के धर्म, हिंदू धर्म की शिक्षा की अनुमति नहीं दी जाएगी। इस प्रकार भारत की शिक्षा नीति हिंदू धर्म के विरु द्ध रची गई जो कि और संसार में कहीं पर नहीं होता।
इस प्रकार भारत में ऐसी शिक्षा दी जाती है कि सरकारी खजाने के द्वारा, ऐसी शिक्षा का वित्त पोषण किया जाता है जिसमें ऐसे मजहब को सम्मान दिया जाता है और उसकी पढ़ाई का प्रसार किया जाता है, जो मजहब या पंथ कहते हैं कि संसार में हमारे सिवा और कोई भी पंथ और कोई भी मजहब रहने योग्य नहीं है, और उसे रहने नहीं दिया जाएगा। सभी जानते हैं कि पतंजलि के योगसूत्र के अनुसार यह सबसे बड़ी हिंसा है : दूसरों के प्रति द्रोह का भाव रखना। उनके नाश की इच्छा रखना सबसे बड़ी हिंसा है।
 संसार में और कहीं भी यह संभव नहीं है कि बहुसंख्यकों की ज्ञान परंपरा को या उनके धर्म को शिक्षा से बाहर रखा जाए। पर भारत में जो स्थिति है वह नागरिकों के साथ भेदभाव रचने वाली है क्योंकि सभी नागरिकों से टैक्स लिया जाता है, इसमें सबसे बड़ा हिस्सा बहुसंख्यक हिंदुओं का है परंतु राजस्व से संचित सरकारी खजाने से ऐसे मजहब को तो शिक्षा का प्रसार करने की सुविधा दी जाती है, जो अन्य के नाश की योजना बनाएं और घोषणा करें परंतु अहिंसा का उद्घोष करने वाले हिंदू धर्म की शिक्षा की कोई भी व्यवस्था नहीं है, और कोई अनुमति भी नहीं है।
यह नागरिकों के मध्य राज्य द्वारा किया जाने वाला खुला भेदभाव है, और इस भेदभाव का प्रयोजन भारत के बहुसंख्यक  समाज में धर्म बोध का अभाव रखना ताकि उनमें धर्म का ज्ञान ना हो और उनकी तेजस्विता भी सुप्त रहे, उनकी प्रज्ञा मंद रहे तथा वे ऐसे राज्य के प्रति असहाय भाव से सहयोगी रहे जो राष्ट्रीय संसाधनों का बड़ा हिस्सा अभी भी इंग्लैंड को और इंग्लैंड के मित्र देशों को और विभिन्न यूरोपीय देशों को भेजता है। इस तरह राष्ट्रीय संसाधनों का भारत के  धर्म  के विरु द्ध और यूरोप के समाजों या राज्य सरकारों के पक्ष में एक तरफा हस्तांतरण 15 अगस्त, 1947 के बाद न केवल जारी है, बल्कि उस में और तेजी आई है।
 भारत के संविधान के इस प्रयोजन को समझने की आवश्यकता है, और इसीलिए इसको ठीक करने के लक्ष्य के अनुसार ही भारत के राज्य की नीतियों को बनाने की आवश्यकता है। यह देखते हुए कि संविधान कहीं राष्ट्र के उत्कर्ष में बाधक न बने,  इसके जो प्रावधान राष्ट्र के उत्कर्ष और अभ्युदय में बाधक हो, उनको बदलना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि सारे संसार में संविधान का उद्देश्य राष्ट्र के गौरव को और तेजस्विता को बढ़ाना, उसे सफल और सशक्त बनाना, उसकी प्रज्ञा को प्रदीप्त बनाना ही होता है, तेजस्वी बनाना ही होता है।

प्रो.रामेश्वर मिश्र पंकज


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