हिंदी से नाराज क्यों हैं मदाम?

Last Updated 16 Jun 2019 07:28:30 AM IST

‘जब गदहे पर बस न चला तो गदहिया के कान उमेठे’! यह कहावत हिंदी क्षेत्र में खूब मशहूर है। यही हो रहा है। भाजपा को नहीं पीट सकते तो हिंदी को ही पीट लो और भाजपा!


हिंदी से नाराज क्यों हैं मदाम?

उसके क्या कहने? वह हिंदी का वोट तो लेगी लेकिन हिंदी के लिए करके कुछ न देगी।
और आप जो भाजपा को हराना चाहते हैं, अपने अंध क्रोध में इतना भी न समझेंगे कि भाजपा और हिंदी एक दूसरे के पर्याय नहीं हैं, न हो सकते हैं।
अपनी भाजपा-घृणा से बिलबिलाते हुए आप यह तक न समझना चाहेंगे कि भाषा भाषा है, और दल दल है। एक दल किसी एक भाषा में काम कर सकता है, लेकिन वह उसका पर्याय नहीं होती। और कि, कोई भी भाषा किसी भी एक दल से बड़ी, बहुत बहुत बड़ी होती है। बहुत से दल एक ही भाषा में काम कर सकते हैं, तब भी वह भाषा उनकी पर्याय नहीं होती बल्कि उन सबसे ऊपर होती है क्योंकि वह जनता की भाषा होती है। ‘हिंदी’ बरक्स ‘बंगला’ का समकालीन विवाद एक खास राजनीतिक स्थिति के कारण पैदा हुआ है। कुछ पहले तक इस ‘हिंदी बरक्स बंगला’ विवाद का नामोनिशान तक न था क्योंकि तब तक चुनाव परिणाम नहीं आए थे।

जब से चुनाव परिणाम आए हैं, जब से ममता दीदी की राजनीति भाजपा की राजनीति से ऐन बंगाल में हारी है, जब से भाजपा ने बंगाल से अठारह सीटें टीएमसी, कांग्रेस आदि से छीनी हैं, तब से भाजपा और टीएमसी में जंग छिड़ी है, जो अब विकृत होकर ‘हिंदी बरक्स बंगाली’ बनी जा रही है। घटनाएं तो बहाना हैं जैसे कि एक मृत मरीज के परिवार वालों द्वारा डॉक्टरों की पिटाई करने की घटना जिसने डॉक्टरों को हड़ताल के लिए बाध्य किया। अगर कोई समझदार प्रशासक होता तो एक जांच कमेटी बनाता, रिपोर्ट मंगाता और जरूरी कानूनी कार्रवाई कर मामले को निपटा देता। लेकिन जब एजेंडा ही दूसरा हो तो कोई क्या करे?
यही हो रहा है। जरा-सा मुद्दा भाषायी तनाव का कारण बनाया जा रहा है, जिसके परिणाम कुछ भी हो सकते हैं। ऐसी घटनाएं भारत में इन दिनों आम हैं, और ऐसी  घटनाएं संभाल भी ली जाती हैं, लेकिन इसे जानबूझकर नहीं संभाला गया और इसमें विभाजनकारी राजनीति के आशय प्रविष्ट कर दिए गए। बीच-बचाव करने की जगह ममता दीदी ने सीधे हड़ताली डॉक्टरों को ही धमका दिया कि या तो काम पर आओ वरना जाओ! जवाब में अनेक डॉक्टरों ने इस्तीफा भी दे दिया। लेकिन मामला यहीं न रु का और अगले ही पल इसे ‘हिंदी बरक्स बंगाली’ जैसी ‘विभाजनात्मक’ घटना बना दिया गया। बढ़ते-बढ़ते यह विवाद ‘हिंदी बराबर भाजपा’ और ‘बंगाली बराबर टीएमसी’ जैसा बन गया।
ऐसा ही आरोप तब लगाया गया जब अमित शाह के रोड शो के दौरान ईश्वरचंद्र विद्यासागर की मूर्ति को कुछ कथित गुंडों ने तोड़ दिया था। कहा गया कि यह तोड़फोड़ बाहरी यानी हिंदी वालों का काम है। कहने की जरूरत नहीं कि दीदी का यह बंग-भाव चुनाव परिणामों के बाद पैदा हुआ है। उससे पहले ऐसा भाव नहीं था। न परिणाम ऐसे आते न इस तरह का ‘हिंदी बरक्स बंगाली’ किया जाता! अफसोस कि ममता दीदी एक बहुत ही संकरी राजनीति पर चल पड़ी हैं। वे शायद सोचती हैं कि भाजपा का मतलब हिंदी है, और अगर भाजपा को रोकना है तो हिंदी को ठोकना है, और ‘बंगाल बंगालियों का’ करना है। अगले चुनाव में उनकी दुकान तभी चल सकेगी! इस तरह की ‘पैदल सोच’ को क्या कहें जबकि सचाई यह है कि भाषा सिर्फ  भाषा होती है। वह किसी दल का प्रोडक्ट या पर्याय नहीं होती। न भाजपा और हिंदी एक दूसरे के पर्याय हैं।
भाजपा का मतलब हिंदी नहीं है। न हिंदी का मतलब भाजपा है। हिंदी भाजपा से पहले से है, और उसके बाद भी रहनी है। हिंदी क्षेत्रों में भाजपा आज हावी है। जरूरी नहीं कि कल भी रहे। लेकिन हिंदी तब भी वही रहनी है। ममता दीदी को समझना चाहिए कि भाजपा मूलत: संस्कृतवादी-हिंदुत्ववादी पार्टी है, हिंदीवादी नहीं। ‘हिंदी’ और ‘हिंदू’ एक दूसरे के पर्याय नहीं हैं। उनमें फर्क है। सब हिंदू, हिंदीभाषी नहीं हैं। 
यही नहीं, ममता दीदी को यह भी जानना चाहिए कि हिंदी और बांग्ला एक दूसरे की पुरानी मित्र हैं। हिंदी का पहला अखबार ‘उदंत मार्तड’ कलकत्ता से ही निकला था। हिंदी वाले अपनी मेहनत से बंगाल की इकॉनमी में योगदान करते हैं। महाश्वेता देवी ने कहा था कि हिंदी में आने के बाद ही उनको राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति मिली। शरतचंद्र, बंकिम चंद्र, रवींद्रनाथ टैगोर तो हिंदी-घरों में रहते हैं।
मेडम जी! भाजपा से लड़ना है, तो आप उसके ‘हिंदुत्ववाद’ का तोड़ निकालें। आखिर, हिंदी से लड़ने में आपको क्या मिलेगा?

सुधीश पचौरी


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