बिश्केक के संकेत
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का दूसरा कार्यकाल विदेश नीति के मोर्चे पर बहुत सक्रियता के साथ शुरू हुआ।
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बहुराष्ट्रीय मंच पर मोदी की पहली भागीदारी किर्गिजस्तान के बिश्केक की शिखर वार्ता में हुई। वहां उन्हें रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से द्विपक्षीय वार्ता करने का अवसर मिला। इन दोनों नेताओं ने चुनाव प्रचार के दौरान ही संकेत दे दिया था कि वे प्रधानमंत्री के रूप में मोदी की वापसी चाहते हैं।
बिश्केक में इन नेताओं के साथ मोदी की मुलाकात संक्षिप्त रही लेकिन इससे आगामी दिनों में होने वाली द्विपक्षीय शिखर वार्ता के लिए पृष्ठभूमि अवश्य तैयार हुई। शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक में मोदी को दो परस्पर विरोधी परिस्थितियों का सामना करने की चुनौती थी। एक तो चीन और रूस के नेतृत्व वाले क्षेत्रीय सहयोग के इस मंच पर अपनी स्वैच्छिक भागीदारी सिद्ध करनी थी, तो दूसरी ओर यह भी दिखाना था कि भारत किसी भी अमेरिका विरोधी लॉबी का हिस्सा नहीं है। मोदी ने राजनय के इस कूट-कौशल का अच्छी तरह निर्वाह किया।
भारत के सामने इसके अतिरिक्त एक और विरोधाभास था कि उसे आतंकवाद के मसले पर एससीओ के मंच का इस्तेमाल ऐसे देश के विरुद्ध करना था जो स्वयं इस संगठन का सदस्य है। जैसी कि अपेक्षा थी, उसी के अनुरूप मोदी ने पुलवामा और श्रीलंका की आतंकी घटनाओं को दृढ़ता के साथ रखा। हो सकता है कि चीन को यह बात पसंद नहीं आई हो कि भारत ने इस मंच का इस्तेमाल पाकिस्तान पर आक्षेप लगाने के लिए किया लेकिन उसने कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की। वास्तव में जिनपिंग और मोदी, दोनों अमेरिका-चीन व्यापार के प्रभाव में हैं। बावजूद इसके दोनों सीमा संबंधी द्विपक्षीय विवादों को सुलझाने पर सहमत हो गए।
एससीओ की बैठक में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने भी भाग लिया। बालाकोट में एयरस्ट्राइक के बाद दिखाई दे रहा था कि मोदी इमरान के साथ बातचीत नहीं करेंगे। ऐसा ही हुआ। मोदी ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया। बिश्केक जाने के लिए भी उन्होंने पाकिस्तान के वायु क्षेत्र का उपयोग नहीं किया। हालांकि इस कदम से उनके विशेष विमान को लंबा चक्कर काट कर दो-तीन घंटे अधिक समय लेकर गंतव्य तक पहुंचना पड़ा। पुलवामा और बालाकोट एयरस्ट्राइक के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच राजनयिक संपर्क के लिए बहुत कम गुंजाइश रह गई थी। एससीओ ही ऐसा संगठन है, जिसमें दोनों देशों के नेता बड़ी मेज पर साथ बैठ सकते हैं। संगठन के मुख्य कर्ताधर्ता रूस और चीन दोनों देशों के बीच संवाद की जमीन तैयार कर सकते हैं। एससीओ में द्विपक्षीय मामले नहीं उठाए जाते लेकिन मोदी ने अच्छे से आतंकवाद के बारे में भारत की चिंता को उजागर किया।
शिखर बैठक के बाद जारी बिश्केक घोषणा पत्र में आतंकवाद और उसे समर्थन देने वाले देशों के खिलाफ जिस कड़ी भाषा का प्रयोग किया गया है, उस पर भारत का असर स्पष्ट नजर आता है। वास्तव में जेहादी आतंकवाद और उसकी कट्टरवादी विचारधारा से रूस, चीन और एशिया के अन्य देशों को भी उतना ही खतरा है, जितना भारत को। यही कारण है कि एससीओ ने आतंकवाद विरोधी तंत्र (रैट्स) स्थापित किया है। यह तंत्र ठोस सक्रिय भूमिका निभाए इस पर मोदी ने जोर दिया। यह भारत के हित में होगा कि वह पाकिस्तान की नकेल कसने में रूस और चीन का उपयोग करे। भारत एससीओ के साथ काम करने के लिए प्रतिबद्ध दिखता है। ऐसा करने पर वह सहयोग का एक स्थायी सुरक्षात्मक ढांचा विकसित कर सकता है। भारत की प्रत्यक्ष भागीदारी से आतंकवादी विरोधी क्षेत्रीय ढांचा और मजबूत हो सकता है।
प्रधानमंत्री मोदी का इस महीने के अंत में विश्व की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों के संगठन जी-20 की बैठक में भाग लेने का इरादा है। जापान के ओसाका में यह बैठक अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध के साये में होने जा रही है। व्यापार युद्ध अब अमेरिका और भारत को भी गिरफ्त में ले रहा है। अमेरिका द्वारा भारतीय उत्पादों पर रियायत खत्म किए जाने के बाद अब भारत की ओर से जवाबी कार्रवाई की गई है। अमेरिका के ट्रंप प्रशासन की संरक्षणवादी आर्थिक नीतियों के खिलाफ भारत और चीन एक साझा प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।
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