जंगल में आग : तमाशबीन बने तो उजड़ जाएंगे
उत्तराखंड के जल कवि अतुल शर्मा ने एक गीत लिखा है, उसका नाम है ‘जंगल में आग लगी इन दिनों’। यह कविता आजकल सच साबित हो रही है।
![]() जंगल में आग : तमाशबीन बने तो उजड़ जाएंगे |
प्रदेश में आजकल जंगलों में लगी आग पर सियासत काफी गरमाई हुई है। वन मंत्री हरक सिंह रावत जंगलों में अग्नि नियंत्रण के लिए मुख्यमंत्री की तरफ इशारा कर रहे हैं। वैसे तो उत्तराखंड के जंगलों में आग लगती रहती है। इस बार भी अब तक 1000 से अधिक बार जंगल जले हैं। पिछले 10 वर्षो का आंकड़ा देखें तो लगभग 50000 बार जंगल राख में तब्दील हुए हैं। इसके बावजूद यहां के 65 फीसद वन भूमि पर वनों से आच्छादित होने का दावा किया जाता है, जबकि ‘इंडिया स्टेट ऑफ फोरेस्ट रिपोर्ट’ से पता चलता है कि राज्य में 34 फीसद में केवल 40 फीसद से अधिक घनत्व के वन हैं। पता चला है कि हर वर्ष लगने वाली आग के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार चीड़ की पत्तियों को माना जाता है, जिसे ‘पिरूल’ कहते हैं। यह बेहद ज्वलनशील पदार्थ है।
पिछले कई वर्षो से उत्तराखंड में जितनी भी सरकारें आई, उन्होंने चीड़ की सूखी पत्तियों से कोयला बनाने का दावा किया। आईआईटी दिल्ली के प्रयास से ‘पिरूल’ से कोयला बनाने का प्रशिक्षण स्थानीय सामाजिक संगठन लोक जीवन विकास भारती, उत्तराखंड जन जागृति संस्थान, हिमालयन ग्रामीण विकास संस्था आदि ने सालों तक ग्रामीणों को दिया है। मगर इसको आगे पहुंचाने के लिए उन्हें अपेक्षित सहयोग नहीं मिला है। पिछले वर्षो से उत्तराखंड की सरकार ने पिरूल से 1500 मेगावाट बिजली बनाने की नीति भी बनाई थी। इसके लिए जंगलों के बीच से इन सूखी चीड़ की पत्तियों को बिजली बनाने वाले सयंत्रों तक पहुंचाने के लिए ग्रामीण महिलाओं और युवकों को रोजगार देने की बात भी की गई थी, लेकिन इस योजना को जमीन पर उतारने में सरकार कमजोर साबित हुई है। यदि केंद्र सरकार पिरूल नीति को गंभीरता से ले तो उत्तराखंड समेत हिमालय के सभी जंगलों को आग से बचाया जा सकता है।
इसके चलते स्थानीय लोगों का पलायन भी रुक सकता है और उन्हें रोजगार भी मिल सकता है। चिंताजनक तथ्य है कि जंगल जलने के दौरान ही आग को नियंत्रित करने के लिए हायतौबा की जाती है। उत्तराखंड के प्रमुख वन संरक्षक जयराज ने 2018 में रिपोर्ट जारी करके कहा था कि राज्य के अधिकांश वन क्षेत्र को आग से बचाना चुनौतीपूर्ण है। तो क्या पिरूल से बिजली बनाने के संयंत्रों को अधिक-से-अधिक स्थानों पर नहीं लगाया जाना चाहिए? इसके लिए इन्वेस्टर्स भी ढूंढे जाने चाहिए। कहते हैं कि वन विभाग के पास केवल उत्तराखंड में ही 1000 फोरेस्ट गार्ड और 500 से अधिक वन रेंजरों की कमी है। इसके चलते आग से दुष्प्रभावित क्षेत्रों तक पहुंचना उनके लिए आसान नहीं होता है। यह काम राज्य सरकार का है कि वह समय पर वन महकमे में खाली पदों पर तत्काल नियुक्ति करे। इसके अलावा गांव के नजदीक के वनों में आग पर नियंत्रण के लिए वन विभाग ने फरवरी 2019 में कहा था कि वे 12,168 वन पंचायतों को प्रोत्साहन राशि देकर दावानल पर नियंत्रण करेंगे, लेकिन उनका यह प्रयास अभी तक गांव-गांव नहीं पहुंचा है। राज्य में गांव की वन पंचायतें, सामाजिक संस्थाएं और महिला संगठनों को जोड़ कर उन्हें आवश्यक आर्थिक व अन्य संसाधन उपलब्ध कराए जाएं तो भी वनों में लगने वाली आग पर काबू पाया जा सकता है। वनों पर आग का जितना खतरा है उतना ही विकास के नाम पर हर वर्ष लाखों पेड़ों को बेहिचक काटा जाना।
वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के आंकड़ों पर गौर करें तो मप्र, तेलंगाना, ओडिशा, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, गुजरात, हरियाणा और पंजाब में ही केवल 2,988 विकास परियोजनाओं के नाम पर 55,648 वनों को भारी क्षति पहुंचाई गई है। इसमें से उत्तराखंड में ही 255 परियोजनाओं के नाम पर हाल ही में लगभग 50 हजार पेड़ों को काटा गया है। इस तरह से नष्ट हो रहे वनों के बदले नये पेड़ों का रोपण कहां होता है, यह भी अज्ञात है। वष्रात और शीतकाल में रोपित अधिकांश पौधे तो फरवरी और जून के बीच लगने वाली आग में ही जल जाते हैं। वैसे देखा जाए तो जंगल काटना राजस्व की दृष्टि से लाभदायक है। जंगल की आग से झुलसे पेड़ जब तेज हवा में गिर जाते हैं तो भी वह फायदे की चीज बनती है। पर्यावरण के प्रति हमारी अनदेखी भविष्य की तरफ इशारा करती है कि जंगल की आग और पेड़ों की कटाई धरती के तापमान को ऊंचाई पर ले जाएगी। सो सभी को तमाशबीन बनने के बजाय समाधान ढूंढना होगा।
| Tweet![]() |