मध्य प्रदेश : उभरते समीकरणों के संकेत

Last Updated 22 May 2019 01:15:02 AM IST

मध्य प्रदेश की राजनीति में विधानसभा चुनाव 2018 में 15 वर्षो बाद कांग्रेस की वापसी बड़े प्रतिस्पर्धी एवं अत्यंत नजदीक मुकाबले में बहुत कम अंतर से आवश्यक बहुमत से दो स्थानों की कमी के साथ हुई।


मध्य प्रदेश : उभरते समीकरणों के संकेत

चुनाव परिणाम के समय भी सबसे ज्यादा रोमांच एवं कौतुहल मध्य प्रदेश में ही बना रहा। ग्यारह दिसम्बर को शुरू हुई मतगणना में अंतिम परिणाम आते-आते 12 दिसम्बर की सुबह हो गई और जब नतीजों में किसी भी एक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो दोनों राजनीतिक दलों ने अपने-अपने स्तर पर सरकार बनाने के प्रयास शुरू कर दिए। यद्यपि कांग्रेस की अधिक सीटें होने एवं उसे बसपा के समर्थन की घोषणा के बाद परिदृश्य लगभग साफ हो गया तथा 230 सदस्यों वाली विधानसभा में कांग्रेस ने अपने 114, बसपा के 2, सपा के 1 तथा निर्दलीय 4 के साथ 121 सदस्यों के समर्थन से सरकार का गठन किया।
दिसम्बर, 2018 में सरकार के गठन के पूर्व से ही इस प्रतिस्पर्धी माहौल में भाजपा ने कांग्रेस के लिए सुगम मार्ग प्रशस्त नहीं होने दिया। चुनाव के ठीक बाद भाजपा ने अपनी हार के लिए जिम्मेदार कई छोटे-छोटे कारणों को जनता के सम्मुख रखा तथा यह स्थापित करने का प्रयास किया कि कैसे जीत इतनी नजदीक आकर उनके हाथ से छिटक गई। इस पूरे विमर्श में इस बात को बड़ी प्रबलता से रेखांकित किया गया कि भाजपा को प्राप्त मत प्रतिशत (41.02) कांग्रेस के मत प्रतिशत से (40.89) से ज्यादा (0.13 प्रतिशत) है, जो 495797 मत अधिक है। लेकिन संसदीय प्रजातंत्र की व्यवस्था में अपनाई गई फस्र्ट-पास्ट-द-पोस्ट प्रणाली में मत प्रतिशत का कोई तात्पर्य नहीं है। यहां तो जो आगे निकल गया वही जीता।

इसका सबसे बड़ा उदाहरण 2014 का लोक सभा चुनाव है, जहां बसपा राष्ट्रीय स्तर पर 4.2 प्रतिशत तथा उत्तर प्रदेश में 19.6 प्रतिशत मत प्राप्त करने के बावजूद एक भी स्थान नहीं जीत सकी। वहीं तृणमूल कांग्रेस ने 4.8 प्रतिशत मतों के साथ 34 स्थानों पर जीत दर्ज की। हालांकि मध्य प्रदेश में इसका तात्कालिक संदर्भ अपने कार्यकर्ताओं एवं जनता के बीच एक प्रखर संदेश देने के लिए ही था। मध्य प्रदेश के नेता प्रतिपक्ष ने 20 मई, 2019 को राज्यपाल को पत्र लिखकर विशेष सत्र बुलाए जाने की मांग की है, जिसका उद्देश्य प्रदेश की तात्कालिक महत्त्व की समस्याओं पर चर्चा करना है, जिनमें पेयजल संकट, कानून व्यवस्था, किसानों की फसलों का उपार्जन व भुगतान, किसानों की कर्जमाफी, सम्बल योजना और अन्य हितग्राहीमूलक योजनाओं का क्रियान्वयन उल्लेखनीय है। लेकिन इसमें नेता प्रतिपक्ष आवश्यकता पड़ने पर मत विभाजन की बात भी कह रहे हैं। इस पत्र के समय को लेकर सबसे बड़ी चर्चा है, लोक सभा चुनाव के मतदान का अंतिम चरण 19 मई को समाप्त हुआ है, परिणाम 23 मई को आने वाले हैं, लेकिन 19 मई की शाम एग्जिट पोल के परिणामों में से अधिकांश ने मध्य प्रदेश में 2014 के परिणामों की पुनरावृत्ति की संभावना व्यक्त की है, इस संभावना की अभिव्यक्ति ने भाजपा की मध्य प्रदेश इकाई में अतिरिक्त उत्साह का संचार कर दिया है।
भाजपा के कई राजनेता भी सरकार के बहुमत को लेकर संशय एवं अस्थिरता की बात कहते रहे हैं। कई बार इस तरह के प्रयास मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिए भी होते हैं।  मध्य प्रदेश में दिसम्बर, 2018 में कांग्रेस की सरकार के गठन के समय जो परिस्थितियां पैदा  हुई थीं, उनने भी भाजपा को जोर आजमाईश का अवसर तो प्रदान किया ही है। कांग्रेस के 114 विधायकों में से वरिष्ठता के बावजूद मंत्रिमंडल में सम्मिलित होने से वंचित विधायकों में से कुछ ने बहुत ही प्रखरता से अपनी नाराजगी को सार्वजनिक तौर पर प्रकट किया था। इसमें शीर्ष नेतृत्व द्वारा लोक सभा चुनाव पश्चात ऐसे सदस्यों के यथासंभव समायोजन की बात कही भी गई थी। बसपा के एक विधायक ने मंत्रिमंडल में सम्मिलित न किए जाने पर नाराजगी प्रकट की थी। सभी चार निर्दलीय विधायकों की पृष्ठभूमि कांग्रेस की होने के बावजूद सत्ता के समीकरण में उनकी हैसियत विद्यमान परिस्थितियों में ज्यादा महत्त्वपूर्ण है तथा वे भी अपनी भागीदारी विधानसभा सदस्य तक सीमित नहीं रखना चाहते। साथ ही कुछ जाति एवं क्षेत्रीय समूह के न्यून प्रतिनिधित्व के कारण उनके द्वारा समायोजन की मांग उठती रही है। ये सभी परिस्थितियां कांग्रेस के नेतृत्व के लिए लोक सभा चुनाव परिणामों के तत्काल बाद एक बड़ी चुनौती होगी। देखना होगा कि मुख्यमंत्री और शीर्ष नेतृत्व किस तरह से इसे प्रबंधित करते हैं।
कांग्रेस के सम्मुख एक और चुनौती अपने चुनावी वादों को पूरा करने की होगी क्योंकि भाजपा निश्चित रूप से इन सभी मुद्दों पर सरकार पर आने वाले समय में आक्रामक हमले करेगी। किसानों की कर्जमाफी में देरी और अघोषित बिजली कटौती को लोक सभा चुनाव में भाजपा ने बड़ा मुद्दा बनाने का प्रयास किया था, जो प्रकारांतर में भी भाजपा की तरफ से बार-बार उठाया जाता रहेगा। जब विपक्ष के पास संख्या बल बड़ा हो तब सत्तासीन दल के सामने कुशंकाओं और भयाक्रांत होने के अनेक कारण होते हैं। इसका यह  प्रभाव तो हो ही सकता है कि सरकार को अपने बेहतर प्रदशर्न और सजग ढंग से जनोन्मुखी कार्यों को करने के लिए प्रतिपक्ष सदैव पादांगुलियों पर खड़ा रखे और साथ ही सत्ता, संगठन, विपक्ष, जनता के संदर्भ में कई तरह से संतुलन भी बनाए रखना होगा।
यद्यपि अंकगणित सम्प्रति सरकार के पक्ष में ही प्रतीत होता है। भाजपा को 109 से 116 पर पहुंचने के लिए 7 विधायकों की आवश्यकता है, जो सभी चार निर्दलीय, दो बसपा और एक सपा विधायक के एक साथ सरकार के विरु द्ध हो जाने की स्थिति में ही संभव है, जिसकी संभावना बहुत ही क्षीण दिखाई देती है। दल बदल कानून के रहते भी ऐसा संभव नहीं है। फिर भी जिस तरह से लोकतांत्रिक मूल्य, मान्यताएं, परंपराएं लगातार तिरोहित हो रही हैं और शुचिता की राजनीति हाशिये पर चली गई है, जिसके लिए सभी राजनीतिक दल कम अथवा ज्यादा जिम्मेदार है, तो ऐसे में राजनीतिक पारिस्थितिकी में चुनौतियों और अड़चनों को कमतर करके नहीं देखा जा सकता। बहरहाल, मप्र की राज्य राजनीति को आने वाले समय में सामान्य और स्थिर प्रकृति की बनाए रखने के लिए सत्तासीन दल को अतिरिक्त प्रयास करने ही होंगे।

यतींद्र सिंह सिसोदिया


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