बुर्का बैन : क्या हर मुसलमान से डरें हम?

Last Updated 22 May 2019 01:10:32 AM IST

श्रीलंका की तर्ज पर भारत में भी सार्वजनिक स्थलों पर बुर्के पर पाबंदी की मांग की गई थी। यह मांग शिवसेना ने की थी जो एक लंबे समय से धर्म और राज्य विशेष के साथ भय की राजनीति में सिद्धहस्त हो चुकी है।


बुर्का बैन : क्या हर मुसलमान से डरें हम?

उसने कहा था कि रावण की लंका में तो बुर्का बैन हो गया है, राम की अयोध्या में कब होगा? हालांकि वह जानती है कि ऐसा होना संभव नहीं है। हर देश की स्थिति अलग होती है- श्रीलंका की अलग है, भारत की अलग। पर उद्धव ठाकरे ने कहने को कह दिया।
कहने को कह देने से बहुत सारी बातें सध जाती हैं। लोगों में एक तरह का फियर साइकोसिस या पैरानोया पैदा होता है। वे समुदाय विशेष से घबराते हैं। तय नहीं कर पाते कि क्या वास्तविक है, क्या अवास्तविक। इस्लामोफोबिया को ऐसे ही तैयार किया जाता है। बुर्का बैन एक तरह का इस्लामोफोबिया ही है, जो इस्लाम धर्म को संभावित खतरा मानता है। इस्लामोफोबिया की जड़ इसी में है कि आप इस्लाम के प्रतीकों से भी घबराने लगें। बुर्का या टोपी-दाढ़ी से डरने लगें। फोबिया किसी भी चीज का डर ही है। यूं यह डर दुनिया भर में कायम है। विश्व स्तर पर एक दुश्मन की जरूरत हमेशा रहती है। सालों तक कम्युनिज्म एक दुश्मन माना जाता था। सोवियत संघ के विघटन के बाद शीत युद्ध समाप्त हुआ तो अमेरिका के लिए जरूरी था कि एक नये शत्रु के प्रति आभासी भय उत्पन्न करे। अब साम्यवाद के नाम पर विश्व भर को भयभीत नहीं कर सकता था। ऐसे में उसने इस्लाम के लिए डर का नया दैत्य खड़ा किया। तालिबान एक बड़े शत्रु के तौर पर सामने आया। इस तरह अमेरिका के लिए ‘बिग ब्रदर’ बना रहना आसान हो गया। इन स्थितियों में भारत में दक्षिणपंथियों को भी नये सिरे से जड़ें मजबूत करने का मौका मिला। हिंदुओं को राजनीतिक तौर पर गोलबंद करने के लिए उन्हें बहुमत के दबदबे का एहसास दिलाया गया। समझाया गया कि एकजुट नहीं हुए तो खत्म हो जाएंगे। इसके बाद मस्जिदें लोगों के दिलों में चुभने लगीं। अज़ान की पुकार नींद तोड़ने की साजिश लगने लगी।

जिसे फिलिस्तीनी कल्चरल थ्योरिस्ट एडर्वड डब्ल्यू सइद अदरिंग की अवधारणा कहते हैं, उसे ही राजनीति में पोषित किया गया। अदरिंग यानी धर्म, लिंग, सामाजिक-आर्थिक स्थिति के कारण लोगों के प्रति पूर्वाग्रह रखना। अदरिंग की इस प्रक्रिया में समुदायों से डराया जाने लगा। बुर्के पर पाबंदी की बात करने का मायने भी यह है कि आप हर मुसलमान से डरें। आपको बताया जाने लगा कि हर बुर्के के पीछे एक आतंकवादी है-हर घर में आतंकवादी है-हर शख्स अपराधी। इसी डर की राजनीति ने मुसलमानों में भी डर पैदा किया। अपने मादरे वतन में रहने का डर। खान-पान के स्वाद का डर-इबादत करने के तरीके का डर। भीड़ की हिंसा का शिकार होने का डर। इस डर ने मुसलमानों को बेचैन और हिंदुओं को तंगनज़र किया है। सार्वजनिक स्थलों पर बुर्के पर पाबंदी एक तरफ, बुर्के को लेकर भी तमाम तरह की बातें की जाती हैं। बुर्का दकियानूसी माना जाता है। धार्मिंक कट्टरता का पर्याय। लेकिन कपड़े का एक टुकड़ा अगर रिग्रेसिव है तो ऐसा कौन सा समाज है, जिसकी तमाम परंपराएं प्रगति विरोधी नहीं हैं। घूंघट भी समाज को उसी तरह पीछे घसीटता है, जितना बुर्का। यूं किसी को सलवार-कमीज-साड़ियां जैसी पोशाकें भी रूढ़िवादी लग सकती हैं। लेकिन जैसे किसी को जबरन बुर्का या घूंघट नहीं पहनाया जाना चाहिए, उसी तरह जबरन उन्हें उतारने पर मजबूर भी नहीं किया जाना चाहिए। ये दोनों ही एक जैसे गलत हैं। 
सवाल यह भी है कि क्या हम सरकारों को यह अधिकार दे सकते हैं कि वे हमारी देह, पसंद-नापसंद को काबू करें। यह किसी धर्म के प्रति भय से भी आगे का मसला है। जब सरकारें तय करने लगें कि हमारी थाली में क्या परोसा जाएगा, अपने शरीर को किन कपड़ों से ढंकेंगे, अपने थैले और कमरे की अल्मारी को कैसी किताबों से सजाएंगे, तब हम यह तय नहीं कर पाएंगे कि इस नियंत्रण की हद क्या होगी। अगर बुर्का राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा पैदा कर सकता है, तो किताबों और लेखों से भी सामाजिक ताने-बाने के छिन्न-भिन्न होने की आशंका हो सकती है। कई साल पहले आधार के बायोमीट्रिक डेटा के खिलाफ सीनियर एडवोकेट श्याम दीवान ने यही दलील दी थी कि सरकार को बिना हमारी अनुमति के हमारी देह को ‘इनवेड’ करने का हक नहीं है। यह व्यक्तिगत आजादी का उल्लंघन है। बेशक, भारत जैसे देश में बुर्के पर पाबंदी नहीं हो सकती। लेकिन यह मुद्दा उठाकर मुसलमानों को एहसास कराना कि वे हमारे रहमो करम पर हैं, हमारी बेहिसी ही तो है।

माशा


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