विश्लेषण : एग्जिट पोल का सच
जिस तरह से लगभग सारे एग्जिट पोल नरेन्द्र मोदी की वापसी का उद्घोष कर रहे हैं, उसमें 23 तक कोई बड़ी असहमति जताने का कोई मतलब नहीं है।
विश्लेषण : एग्जिट पोल का सच |
इस बात का भी नहीं कि जब भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने तीन सौ सीटों की भविष्यवाणी की तो सारे पोल्स्टर उसी आंकड़े पर पहुंच कर क्यों रु क गए? पर कुछ बातें ये नतीजे भी बताते हैं।
पहली चीज तो खुद मोदी का बल है, जो सब पर भारी रहा है और शायद चुनाव नतीजों में भी सबसे ज्यादा असरदार होगा। दूसरे यूपी, बिहार, झारखंड और कर्नाटक जैसे राज्यों में एक हद तक विपक्षी एकता के बावजूद मोदी विरोधियों का बिखराव और लगभग बिना एजेंडे के लड़ाई (मोदी हराओ कोई ज्यादा लाभकारी एजेंडा नहीं बन सकता) मोदी जैसे चुस्त और चौकस ही नहीं पूरे पांच साल चुनाव मोड में ही काम करने वाले व्यक्ति के खिलाफ बहुत कारगर नहीं हो सकता।
यह जरूर हुआ कि मोदी बहुत ऊंचे पिच पर लगे रहे और मायावती-अखिलेश ही नहीं जगन रेड्डी, स्टालिन, चंद्रशेखर राव और नवीन पटनायक जैसे लोग एकदम निचले स्तर के मुद्दों पर। फिर भाजपा को कहीं राष्ट्रवाद का सहारा लाभकर लगा तो कहीं साध्वी प्रज्ञा ब्रांड हिंदुत्व, तो कहीं हिंदू-मुसलमान ध्रुवीकरण की राजनीति। पर हर जगह चुनावी एजेंडा मोदी और भाजपा ने सेट किया। पर तीन सौ एनडीए के औसत आंकड़े का मतलब पिछली बार से पचास सीट काम आना जो मोदी लहर के कमजोर पड़ने का प्रमाण माना जा सकता है। नतीजों में ‘करेक्शन’ के जरिए पचास सीटें कम हो जाएं तो मोदी के लिए सरकार की जोड़-तोड़ मुश्किल हो जाएगी। जिन जगन रेड्डी और चंद्रशेखर राव के भरोसे वे बैठे थे वे किसी और जुगाड़ में जुट गए हैं। सचमुच के नतीजों में मोदी या विपक्ष जिस किसी को जरूरत होगी उनका खेल बढ़ जाएगा।
नीतीश कुमार ने एक दूरी बनानी शुरू भी कर दी है और शिव सेना का बहुत भरोसा किया भी नहीं जा सकता। स्टालिन और चंद्रबाबू के साथ आने की गुंजाइश बहुत कम है। चुनाव बीतने के पहले ही न्यौता तो यूपीए की प्रमुख सोनिया गांधी के नाम से ही बंटने लगा वरना तभी तक चंद्रबाबू या चंद्रशेखर राव जैसे चुनाव से निवृत्त लेकिन आगे की सरकार में बड़ी भूमिका निभाने के इच्छुक लोग ही सामने आए थे। चंद्रबाबू काफी हद तक कांग्रेस और राहुल गांधी के पक्ष में जोड़-तोड़, समीकरण, शासन और सरकार का एजेंडा बनाने की कोशिश कर रहे थे/हैं तो राव साहब किसके लिए, यह कहना मुश्किल है। चुनाव में सीधी भागीदारी और जनता की नब्ज को बेहतर जानने वाले जब ऐसे प्रयास करें तो हमें भी कुछ ज्यादा साफ सिग्नल मिलते ही हैं। जब सोनिया के नाम से न्यौता बंटने और तारीख की अदल-बदल की खबर आई तो इसे त्रिशंकु संसद बनने और आगे की तैयारियों का संकेत पुख्ता हुआ। देने को तो इस तरह के सिग्नल मोदी ने भी दिए पर एक नेता, मजबूत नेता, छप्पनिया नेता और पाकिस्तान को धूल चटाकर दिग्विजय पर निकले नेता की भी कुछ मजबूरियां थीं, और हैं। जब पूरा चुनाव उसके नाम पर लड़ा जा रहा हो, उसे भी अपने पक्ष और विपक्ष के बंटवारे में मजा आ रहा हो तो वे किस तरह पोस्ट-पोल गठबंधन और जुगाड़ की तरफ जा सकते हैं।
जब उनको भी लग गया कि चुनाव किस लाइन पर है और यूपी-बिहार का नुकसान और बंगाल-ओडिशा का गणित उतना अनुकूल नहीं है, तो उन्होंने दन से ममता की तरफ से कुर्ता और रसोगुल्ला भेजने की बात सार्वजनिक की, बीजू जनता दल के खिलाफ आक्रमण को धीमा किया, तूफान राहत के नाम पर नवीन पटनायक के साथ खूब तस्वीरें साझा कीं और जब ममता ने उल्टा सिग्नल देना शुरू किया तो आक्रमण तेज कर दिया। इस बीच, अपने नामांकन के समय एनडीए नेताओं की परेड भी कराई और प्रकाश सिंह बादल के सार्वजनिक तौर पर पैर भी छुए। फिर भी एक्जिट पोल बताते हैं कि मोदी, एनडीए, भाजपा और उसके लगभग सारे ही उम्मीदवारों को मोदी की मजबूत और नेता वाली छवि से लाभ हुआ। उनसे नाराज शिव सेना भी इसी बात का लाभ लेने के लिए वापस गठबंधन में आई और खुद को प्रधानमंत्री मेटेरियल मानने वाले नीतीश भी सिर झुकाकर चुनाव में साथ ही रहे। पर अभी चुनाव खत्म भी नहीं हुआ और नतीजे आए भी नहीं कि इस छवि से दिक्कत समझ आने लगी है। इसकी तुलना में ढीली-ढाली छवि के राहुल को काफी सुविधा हो गई है। गठजोड़ बनाने के सूत्रधार गुलाम नबी आजाद ने तो यह भी कह दिया है कि गठबंधन करने में प्रधानमंत्री के पद का दावा भी छोड़ा जा सकता है। पहले यह बात गुप-चुप भी की गई होगी।
जाहिर तौर पर भाजपा और मोदी की तरफ से एकदम मजबूरी न हो जाए ऐसी घोषणा की ही नहीं जा सकती। मोदी के नेतृत्व और दावे को भाजपा नीचे कर ले, यह असंभव है। ऐसे करने से तो उसका सारा चुनावी ही नहीं, बल्कि राजनैतिक डिस्कोर्स धराशायी हो जाएगा। ऐसे में उसे गठबंधन के नाम पर पालकी ढेने वाले या कुछ लाभ ले-देकर पट जाने वाले साथी ही मिलने की संभावना ज्यादा है। अब एक्जिट पोल भले ऐसी स्थिति न आने का संकेत दें पर इसे नतीजे आने तक पूरी तरह खारिज करना मुश्किल है। इस मामले में कांग्रेस या गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेसी दलों के नेता बेहतर स्थिति में हैं। कांग्रेस अगर अभी से प्रधानमंत्री पद का दावा छोड़ने को तैयार है, तो इसे राहुल के लिए ‘खतरा’ न मानकर एक रणनीति ही माना जा रहा है।
दूसरी ओर, गडकरी या राजनाथ कुछ भी ऐसा बोल देते हैं, जिसका मतलब खींच-तान कर भी मोदी विरोध निकाला जाता है, तो मोदी के कान तो खड़े होते ही हैं, खुद गडकरी जैसों को सफाई देते-देते मुश्किल हो जाती है। यहां न चाहते हुए भी अटल बिहारी और आडवाणी का किस्सा भी लाना ही पड़ेगा। मन्दिर आंदोलन के बाद सारी पार्टी आडवाणी की बनाई थी, सांसदों में ज्यादातर लोग उनके खेमे के थे, पार्टी पर उनकी जबरदस्त पकड़ थी। दूसरी तरफ वाजपेयी थे जो मन्दिर आंदोलन के पक्ष में न होने से अकेले पड़ गए थे। पर जैसे ही गठबंधन की जरूरत पड़ी भाजपा को एक मिनट की देर न लगी आडवाणी को दरकिनार करने में। क्योंकि उनके नाम पर दूसरे दल साथ न आते, न समर्थन करते। नतीजों को लेकर भविष्यवाणी करना मुश्किल है। मगर हम देख रहे हैं कि राजनीति नतीजों के इंतजार में नहीं बैठी है। वे सारे खिलाड़ी सक्रिय हो गए हैं, जो सरकार गठन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। चुनाव बाद की राजनीति झमाझम शुरू हो गई है, लेकिन भाजपा को मजबूत नेता बल भी है, और बोझ सा भी बन गया है।
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