मुद्दा : संवाद से ही पाटी जा सकेगी खाई
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कभी ‘पूरब का ऑक्सफोर्ड’ कहलाने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय के बारे में गंभीर टिप्पणी करते हुए कहा है कि इस विश्वविद्यालय का परिसर और छात्रावास, अपराधियों के लिए पनाहगाह बन गए हैं, जिसे उन्होंने अपने गलत कामों के लिए ‘खेल का मैदान’ समझ लिया है।
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मुख्य न्यायाधीश गोविंद माथुर और जस्टिस एस.एस. शमशेरी की पीठ ने इसी साल अप्रैल महीने में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पीसीबी छात्रावास में हुई एक युवक की हत्या पर स्वत: संज्ञान लेते हुए यह टिप्पणी की है। बता दें कि पिछले साल नवम्बर में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र नेता अच्युतानंद शुक्ला उर्फ सुमित की हत्या कर दी गई थी।
उच्च न्यायालय की इस सख्त टिप्पणी से विश्वविद्यालय परिसर में व्याप्त अनाचार और सड़ांध को बखूबी समझा जा सकता है। कुछ ऐसा ही हाल एशिया के सबसे बड़े विश्वविद्यालय बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का भी है। 2017 में यहां के कैम्पस में छात्रों और पुलिस का आमना-सामना हुआ। यह प्रकरण कइयों के लिए झकझोर देने जैसा था। वहीं पिछले महीने भी एक छात्र की सरेआम बिरला छात्रावास के चौराहे पर गोली मारकर हत्या कर दी गई। पिछले कुछ समय से एक नई परिघटना विश्वविद्यालय परिसरों में नजर आ रही है-विश्वविद्यालय और कॉलेज कैम्पसों में बढ़ती पुलिस की मौजूदगी और छात्र राजनीति में इनका बढ़ता हस्तक्षेप।
कैम्पस का वातावरण अब किसी पुलिस छावनी से कम नहीं लगता। क्या अचानक छात्र आबादी में आपराधिक प्रवृत्तियां बढ़ गई हैं? या चिंता का विषय कुछ और है? हमें इस बात को संजीदगी से समझने की जरूरत है कि वाकई कैम्पस में अराजक तत्व बढ़े हैं, या इस प्रकरण को काफी बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया है। इस फर्क को समझना इसलिए जरूरी है कि एक वर्ग यह चाहता है कि कैम्पसों को मरघट की शान्ति से भर दिया जाए। कहीं कोई आवाज न उठाए, आपसी संवाद और संबंध न कायम करें, कोई हक की बात न करे, सब शांत रहें। या फिर हकीकत में विश्वविद्यालय कैम्पस गुंडों और अपराधियों की शरणस्थली बन गए हैं? मगर हाल के वर्षो की ज्यादातर घटनाएं इसी ओर इशारा करती हैं कि छात्रों की आड़ में गुंडों और अराजक तत्वों ने कैम्पस को अपनी गिरफ्त में जकड़ लिया है। छात्रों के राजनीतिकरण ने गरीब और मेहनतकश छात्रों की उम्मीदों को शातिर तरीके से रौंदा है। अब छात्र हित की बात करने वाला तो सीन से ही गायब हो गया है। उसे छात्र नेताओं की ‘नई पौध’ नें ही निष्क्रिय कर दिया है। नतीजतन, पढ़ने-लिखने वाले छात्र कहीं के नहीं रहे। सबसे ज्यादा हकमारी उन्हीं के साथ हुई। और इसे देखने, सुनने और समझने वाला कोई नहीं है। वह शख्स भी नहीं जो विश्वविद्यालय का मुखिया होता है। कुलपति की भूमिका अब पहले जैसी गरिमा और नैतिकता के आवरण में लिपटी नहीं रही। अब कुलपति शिक्षक होने से पहले प्रशासक है। वह सुरक्षा और गाड़ियों के काफिले के साथ चलता है। उस तक पहुंचना बेहद मुश्किल है। बीएचयू का ही उदाहरण सामने रखें तो कुलपति से मिलने और उनसे आमने-सामने होकर अपनी दिक्कतों को रखने की मांग तक कुलपति ने नामंजूर कर दी। चुनांचे छात्रों का भड़कना स्वाभाविक था। वैसे भी विश्वविद्यालयों को कंपनी की तरह नहीं चलाया जा सकता। शिक्षक और छात्रों को संवाद खत्म कर दिया। पठन-पाठन का माहौल खत्म कर दिया। सेमिनार और गोष्ठियों की परंपरा खत्म कर दी गई। मगर इस बेपटरी हो चुकी व्यवस्था को पटरी पर लाया जा सकता है। अगर कुछ उपाय किए जाएं तो। मसलन, विश्वविद्यालय प्रशासन एक ऐसे फोरम का गठन करे जहां छात्र और छात्राएं बिना किसी संकोच के सीधे शिकायत कर सकें। यह फोरम छात्रों की समस्याओं को रोज सुने और माह में एक बार प्रगति रिपोर्ट प्रस्तुत करे। इसके अलावा, विश्वविद्यालय प्रशासन और जिला प्रशासन के साथ हर महीने एक बार बैठक भी करे।
कैम्पस में अराजकता का माहौल खत्म करने के लिए विश्वविद्यालय पुलिस चौकी को और अधिक फोर्स दी जाए और चौकी पर तैनात पुलिस कर्मिंयों को किसी अन्य डय़ूटी पर न लगाया जाए। छात्रों की समस्याओं को सुनना जरूरी है। न सुनने पर छोटे-से-छोटा विवाद भी तूल पकड़ लेता है। ऐसे में विश्वविद्यालय प्रशासन हर माह छात्रों के साथ बैठक करे ताकि उनकी समस्याओं को गंभीरतापूर्वक सुना जा सके। उनकी समस्याओं की सूची बना ली जाए। फिर आगामी माह की बैठक में इनके हल की बाबत उठाए गए कदमों की जानकारी छात्रों को दी जाए। इससे धीरे-धीरे सारे विवाद समाप्त हो जाएंगे। विश्वविद्यालय का माहौल पहले जैसा शांतिपूर्ण हो जाएगा।
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