विश्लेषण : शिक्षा और डॉ. अम्बेडकर

Last Updated 07 May 2019 04:39:42 AM IST

शिक्षण संस्थानों में पढ़ने वाले व काम करने वाले लोगों से पूछा जा सकता है कि वहां शिक्षक एक विषय पढ़कर आया है, और वह पढ़ाई उसकी नौकरी का आधार बनी हुई है।


विश्लेषण : शिक्षा और डॉ. अम्बेडकर

लेकिन उसे  नौकरी हासिल होने में सामाजिक न्याय का संघर्ष भी है तो वह सामाजिक न्याय के संघर्ष के लिए क्या करते हैं? जैसे सामाजिक न्याय के संघर्ष की बदौलत बेहतर आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक हैसियत में पहुंचने वाले लोग कहते हैं कि यह डॉ. अम्बेडकर की देन है, लेकिन इसके उलट सवाल पूछा जाना चाहिए कि डॉ. अम्बेडकर के लिए उनकी देन क्या है? दूसरा जो छात्र-छात्राएं हैं, वे आरक्षण व्यवस्था के बने रहने की मांग करते हैं और उन विषयों को पढ़ते हैं, जिसके आधार पर उन्हें नौकरी मिल सकती है। लेकिन उसके पाठय़क्रम में सामाजिक न्याय का संघर्ष होता है? वह पढ़ाई सामाजिक न्याय के लिए लड़ने वाले दूसरे तबकों, पेशेवर समूहों के संघर्ष में शामिल होने से हो सकता है।
जिन लोगों को सामाजिक न्याय के संघर्ष से हासिल आरक्षण मिलता है उनकी सामाजिक न्याय के पक्ष में विवशता का दबाव नहीं होता है जिस तरह नौकरियों से जुड़े रहने की एक आर्थिक विवशता होती है। यह विवशता सामाजिक न्याय के विभिन्न संघर्ष से सरोकार और हिस्सेदारी से ही संभव हो सकती है। लेकिन शिक्षण संस्थानों में सामाजिक न्याय के संघर्ष की सीमा आरक्षण तक दिखती है। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में वह हिस्सा भी तैयार होगा जिसकी तैयारी भी चल रही है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि आरक्षण खत्म करने का फैसला आरक्षण का लाभ लेने वाले ही करेंगे। पहले संघ ने आरक्षण का विरोध, उसके बाद आरक्षण की समीक्षा करने पर जोर दिया और अब आरक्षण का लाभ जिन्हें मिलना चाहिए उनकी ओर से ही आरक्षण की व्यवस्था के खत्म होने की मांग पर जोर दिया जा रहा है। जैसे वर्ण व्यवस्था में शूद्र मानी जाने वाली जातियों में से वह एक समूह तैयार हुआ है जो हिंदुत्व की अवधारणा का पक्षधर है। अल्पमत की सबसे बड़ी कामयाबी यही होती है कि वह बहुमत के दिमाग में अपने जैसा होने की भूख (संस्कृति) पैदा कर दे।

सामाजिक न्याय को केवल आरक्षण की तरफ ले जाने से वर्ण व्यवस्था का आधार जातिवाद के बने रहने को सुनिश्चित करना है। डॉ. अम्बेडकर अपने लाहौर वाले भाषण में कहते हैं कि सुधार की दो अलग किस्मों और उनके बीच मौजूद फर्क को समझना आवश्यक है-एक है हिंदू परिवार में सुधार और दूसरा है हिंदू समाज के पुनर्गठन द्वारा सामाजिक सुधार विधवा पुनर्विवाह, बाल विवाह, स्त्री शिक्षा आदि विषय पारिवारिक सुधार के अंतर्गत आते हैं तथा जाति प्रथा को समाप्त करना सामाजिक सुधार के अंतर्गत आता है। डॉ. अम्बेडकर बताते हैं कि सोशल कांफ्रेंस एक ऐसी संस्था में सुधार से था। इसमें अधिकतर सवर्ण जातियों के प्रबुद्ध लोग थे जो जाति को समाप्त करने के लिए आंदोलन करना जरूरी नहीं समझते थे या उनमें ऐसा आंदोलन करने का साहस नहीं था।
डॉ. अम्बेडकर ने ये बात ब्रिटिशकालीन भारत में स्वतंत्रता के लिए आंदोलन करने वाली पार्टी कांग्रेस के बारे में की थी। कांग्रेस अपनी स्थापना के बाद शुरु आती दिनों में जब सम्मेलन करती थी तो उसी पंडाल में सोशल कांफ्रेंस के भी कार्यक्रम होते थे। यह कार्यक्रम सामाजिक सुधार के लिए होता था और इसमें जाति को खत्म करने पर कड़ा एतराज जाहिर किया जाता था। यह एतराज इस हद तक बढ़ा कि पंडाल में आग लगी दी गई और फिर कांग्रेस के सम्मेलन के साथ सोशल कांफ्रेंस के कार्यक्रम होने बंद हो गए। इस तरह डॉ. अम्बेडकर कांग्रेस के सुधार के कार्यक्रमों व नारों का विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। इसी तरह वह शिक्षित होने पर जोर देते हैं, और उनके इस कार्यक्रम को जोर शोर से लागू करने के लिए अभियान चलाने की जरूरत  महसूस होती है तो सवाल खड़ा होता है कि यह अभियान परिवार सुधार के अंतर्गत आता है, या सामाजिक सुधार के अंतर्गत। क्योंकि उन्होंने जब शिक्षित होने की बात की तो दूसरी तरफ उनकी यह भी शिकायत सामने आई कि पढ़े- लिखे लोगों ने उन्हें धोखा दिया।
ाह शिकायत आखिरी दिनों में आगरा की अपनी ऐतहासिक सभा में की। सोशल कांफ्रेंस का उदाहरण शिक्षित होने और धोखे के बीच की कड़ियों को समझने के लिए दिया गया है। सोशल कांफ्रेंस कांग्रेस से जुड़ी थी और कांग्रेस का महाधिवेशन जिस पंडाल में होता था, उसी में सोशल कांफ्रेंस का सम्मेलन होता था। लेकिन सोशल कांफ्रेंस में जो वर्चस्व रखते थे, वे कहते थे कि राजनीतिक सुधार से उन्हें कोई दिक्कत नहीं लेकिन वे सामाजिक सुधार की बातों से सहमत नहीं हैं। वे इतने उग्र थे कि सोशल कांफ्रेंस के पंडाल में आग तक लगी दी।
शिक्षित होने के अर्थ क्या है? क्या यह पारिवारिक सुधार से जुड़ा है, या सामाजिक सुधार से। पारिवारिक सुधार से जुड़ा है तो डॉ. अम्बेडकर की शिकायत मौजूद बनी हुई है और जिनके लिए डॉ. अम्बेडकर का शिक्षित होने का नारा महज पारिवारिक सुधार तक सीमित है। जाहिर है कि उन्हें इस सवाल का जवाब नहीं देना है कि डॉ. अम्बेडकर को उन्होंने क्या दिया है। डॉ. अम्बडेकर जिन तकरे का इस्तेमाल जाति प्रथा के खिलाफ लड़ने के लिए करते हैं, उस तर्क का तरीका उनके ऊपर भी लागू होता है, जो डॉ. अम्बेडकर को अपनी मुक्ति का विचारक मानते हैं।
शिक्षित होने की व्याख्या बहुजन नजरिये से आज की सबसे बड़ी जरूरत है। जैसे डॉ. अम्बेडकर ने पूना पैक्ट से पहले  मांग की कि अछूतों को अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार होना चाहिए। मगर उनकी इस मांग के समानांतर रखा गया कि अछूत अपने बीच के प्रतिनिधि का चुनाव कर सकते हैं, लेकिन यह चुनने का अधिकार केवल उनका नहीं होगा। उनके बीच के प्रतिनिधि का चुनाव सब मिलकर करेंगे
यानी दलित नेता तो हो सकता है लेकिन दलितों के नेता की जरूरत नहीं। शिक्षित होने की व्याख्या किस तरह की जा सकती है। क्या शिक्षित होने का अर्थ केवल डिग्री लेने और नौकरी पाने तक सीमित है?  कैसा, कैसे और किसके लिए शिक्षित बनें ये जरूरी प्रश्न हैं, और इनकी सामाजिक सुधार के नजरिये से व्याख्या ही डॉ. अम्बेडकर के शिक्षित होने के नारे को सार्थक कर सकती है।

अनिल चमड़िया


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