विश्लेषण : कैसे रुकेगा चोर-चोर!

Last Updated 09 May 2019 04:54:20 AM IST

राजनीतिक बयानबाजी मर्यादा रेखाओं को पार कर रही है। राफेल विमान के सौदे से जुड़े एक आदेश के संदर्भ में राहुल गांधी को अपने बयान ‘चौकीदार चोर है’ पर सुप्रीम कोर्ट से बिना शर्त के माफी मांगनी पड़ी है।


विश्लेषण : कैसे रुकेगा चोर-चोर!

हलफनामा दाखिल करते हुए उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से प्रार्थना की है कि अब अवमानना के इस मामले को बंद कर देना चाहिए। अदालत राफेल मामले पर अपने 14 दिसम्बर, 2019 के आदेश पर पुनर्विचार की अर्जी पर भी विचार कर रही है। अब 10 मई को पता लगेगा कि अदालत का रु ख क्या है? अपने माफीनामे में राहुल ने कहा है कि अदालत का अपमान करने की उनकी कोई मंशा नहीं थी। भूल से यह गलती हो गई।
इस चुनाव में कांग्रेस ने ‘चौकीदार चोर है’ को अपना प्रमुख राजनीतिक नारा बनाया है। यह नारा राफेल सौदे से जोड़कर कांग्रेस ने दिया है। अब बीजेपी ने पलटवार करते हुए ‘खानदान चोर है’ का नारा दिया है। चुनाव के केवल दो दौर शेष हैं। इधर झारखंड की एक रैली में मोदी ने राहुल को संबोधित करते हुए कहा, ‘आपके पिता जी को आपके राज-दरबारियों ने मिस्टर क्लीन बना दिया था, लेकिन देखते-ही-देखते भ्रष्टाचारी नम्बर वन के रूप में उनका जीवनकाल समाप्त हो गया।’ ‘चौकीदार चोर है’ के जवाब में यह सीधी चोट है। सुप्रीम कोर्ट में राहुल की माफी का मतलब यह नहीं है कि कांग्रेस पार्टी ‘चौकीदार चोर है’ के नारे से हट गई है। राहुल के वकील अभिषेक सिंघवी का कहना है कि यह पार्टी का राजनीतिक नारा है। और पार्टी उस पर कायम है।

यह बात उन्होंने हलफनामे में भी कही है। पर अब बीजेपी ने जब राजीव गांधी को भी घेरे में ले लिया है, तब सवाल उठाए जा रहे हैं कि क्या दिवंगत व्यक्ति को लेकर इस प्रकार की राजनीति करना क्या उचित है? बीजेपी का कहना है कि हम केवल वास्तविक स्थिति को बयान कर रहे हैं, इसमें गलत क्या है? मोदी अरसे से खुद को जनता के चौकीदार के रूप में पेश करते रहे हैं। इस बीच, राफेल मामले को लेकर दायर की गई कुछ याचिकाओं पर गत 14 दिसम्बर, 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार को क्लीन चिट दी। इस पर राहुल गांधी ने कहा कि हम साबित करके रहेंगे कि विमान-सौदे में ‘चोरी’ हुई है। अदालत में फैसले पर पुनर्विचार के लिए अर्जी दी गई। अपनी बात को पुख्ता करने के लिए कुछ ऐसे दस्तावेज अदालत में पेश किए जो गोपनीय की परिभाषा में आते हैं। सरकार ने गोपनीय दस्तावेज को इस तरह से पेश करने पर आपत्ति व्यक्त की। इस पर अदालत ने 10 अप्रैल, 2019 को कहा कि गोपनीय दस्तावेज लगाए जा सकते हैं। अदालत की इस व्याख्या के संदर्भ में राहुल गांधी ने बेसाख्ता कहा कि इससे साबित है कि ‘चौकीदार चोर है।’ राहुल का यह सार्वजनिक वक्तव्य अवमानना के दायरे में आ गया। ‘चौकीदार चोर है’ की प्रतिक्रिया में जब बीजेपी ने ‘खानदान चोर है’ का नारा दिया और राजीव गांधी तक का नाम घसीट लिया तो प्रियंका गांधी भी मैदान में उतर आई।
उन्होंने मंगलवार को अम्बाला की एक चुनावी रैली में नरेन्द्र मोदी पर निशाना साधते हुए कहा, ‘ऐसा अहंकार दुर्योधन में भी था।’ उन्होंने ‘दिनकर’ की एक कविता को उद्धृत किया, ‘जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है।’ प्रियंका के हमले के जवाब में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि 23 मई को तय होगा कि कौन दुर्योधन है, और अर्जुन कौन है? इन दोनों वक्तव्यों के रूपकों और मुहावरों की अनदेखी की जा सकती है, पर मर्यादा रेखाएं टूटने का खतरा अभी आगे भी है। प्रियंका के बयान के अगले रोज बुधवार को राजद की नेता राबड़ी देवी ने कहा, ‘उन्होंने दुर्योधन बोल कर गलत किया है। दूसरा भाषा बोलना चाहिए उनको। वो सब तो जल्लाद हैं, जल्लाद।’ कहना मुश्किल है कि राबड़ी जिस ‘दूसरा भाषा’ की बात कह रही हैं, उससे उनका आशय क्या है? राजनीतिक विरोध की भाषा किस स्तर पर जाकर मर्यादा खोती है, इसे समझने की जरूरत है। यह भी देखना चाहिए कि इसकी शुरुआत कहां से होती है? सितम्बर, 2016 में सर्जिकल स्ट्राइक के बाद राहुल गांधी ने कहा था कि पीएम मोदी सैनिकों के खून की दलाली कर रहे हैं। नवम्बर,  2016 में नोटबंदी के बाद उन्होंने कहा कि ‘मुझे संसद में बोलने का मौका नहीं दिया जा रहा है। मैं बोलूंगा, तो भूकम्प आ जाएगा।’
फिर राफेल सौदे को लेकर उनकी पार्टी ने अपना अभियान शुरू कर दिया। हाल में एक पत्रिका को दिए इंटरव्यू में राहुल गांधी ने कहा है कि ‘मैं नरेन्द्र मोदी की ईमानदार छवि को ध्वस्त कर देना चाहता हूं।’ जाहिर है कि राजनीति अब बेहद कड़वे मोड़ पर आ गई है। दोनों तरफ की भाषा में जहर है। यह ऊंचे स्तर की भाषा है। निचले स्तर पर काट डालने और मार डालने की बातें हो रही हैं। चुनाव के हर दौर में बंगाल से जबर्दस्त खूंरेजी की खबरें आ रही हैं। हाल में फिल्म कलाकार अक्षय कुमार के साथ टीवी इंटरव्यू में मोदी ने कहा कि ‘ममता दीदी साल में आज भी मेरे लिये एक-दो कुर्ते भेजती हैं। साल में एक-दो बार मिठाई जरूर भेज देती हैं।’ इस जवाब को सुनकर ममता बनर्जी ने कहा, ‘हम मोदी को मिट्टी के लड्डू और पत्थर के रसगुल्ले भेजेंगे।’ इस बयान की कड़वाहट राजनीति के गिरते स्तर को ही बयान कर रही है। राजनीति के साथ मीडिया का दायरा भी बढ़ रहा है। फेकन्यूज बढ़ रही हैं, और आचार संहिता के उल्लंघन की शिकायतें भी बढ़ रही हैं। चुनाव आयोग की मर्यादा पर भी प्रहार हो रहे हैं। ये बातें भी सुप्रीम कोर्ट के सामने जा रही हैं, या भविष्य में जाएंगी। सवाल है कि क्या राजनेताओं को कुछ भी बोलने का अधिकार है?
बीजेपी के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली का कहना है कि ‘हमारे संविधान ने हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी है। आचार संहिता के नाम पर अभिव्यक्ति को दबाया नहीं जा सकता।’ पर सच यह है कि हमें अभिव्यक्ति का असीमित अधिकार प्राप्त नहीं है। उस पर विवेक-सम्मत पाबंदियां भी संविधान ने लगाई हैं। 2014 के चुनाव के ठीक पहले सुप्रीम कोर्ट में दो बार ‘हेट स्पीच’ का मामला उठा था। अदालत ने 12 मार्च, 2014 को एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए विधि आयोग को निर्देश दिया था कि वह नफरत भरे बयानों खास तौर से चुनाव के दौरान ऐसी हरकतों को रोकने के लिए दिशा-निर्देश तैयार करे। ऐसे बयान देने वालों को सजा न मिल पाने का कारण यह नहीं है कि हमारे कानूनों में खामी है। कारण यह है कि कानूनों को लागू करने वाली एजेंसियां ही शिथिल हैं। अदालत की उस बात को हम पिछले चुनाव के बाद अब याद कर रहे हैं।

प्रमोद जोशी


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