बिहार : मुखर होतीं अति पिछड़ी जातियां
लोकसभा चुनाव का परिणाम ऐतहासिक होने वाला है। बिहार फिर मार्गदशर्क की भूमिका में रहेगा क्योंकि जातियों के राजनीतिकरण से पिछड़ी जातियों की सामाजिक-राजनीतिक हिस्सेदारी में भागेदारी मिली है।
बिहार : मुखर होतीं अति पिछड़ी जातियां |
इसके बाबजूद अभी भी कुछ जातियां इस हिस्सेदारी से वंचित है। हालांकि ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण निरंतर गति में रहने वाला बिहार जैसा प्रदेश समग्र विकास के लिए मूलभूत ढांचा तैयार नहीं कर पाया। लेकिन फिर भी ‘जातियों के राजनीतिकरण’ की प्रयोगशाला की समान व्यवस्था होने से लोकतांत्रिक निवेश के अवसर को गति प्रदान करने का उसे अवसर मिलेगा। इससे राजनीतिक बदलाव के कारण नया नेतृत्व उभर सकेगा।
जब हम बिहार में अन्य पिछड़ा वर्ग के नेताओं के उद्भव को देखते हैं, तो पाते हैं कि अन्य पिछड़ा वर्ग की केवल दो जातियों (यादव और कुर्मी) को लोकतंत्र ने सबसे ज्यादा लाभान्वित किया जबकि बाकी अन्य पिछड़ी जातियां विकास की सीढ़ी के ऊपर तक नहीं पहुंच पाई। बिहार में लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री तथा पिछड़े वर्ग के नेता के रूप में उभरे। पिछड़ी जातियों ने राजनीति की प्रक्रिया को प्रतिद्वंद्विता की तरह समझा। इससे जातियां आपस में बंट गई। संगठित होकर नेतृत्व विकसित करने लगीं। इस सोशल इंजीनियरिंग के कारण बिहार में लालू और नीतीश कुमार का उद्भव हुआ। जब 1990 में लालू यादव सत्ता में आए तब बिहार के सामने मूल रूप से तीन प्रकार की सामाजिक-आर्थिक मांगें थीं। पहली मांग जनता के उस बहुसंख्यक हिस्से से आई जो खेती से संबंधित थी, और भूमिहीन भी। अन्य पिछड़ा वर्ग से थी। उसकी लालू से अपेक्षा थी कि रूपांतरण की गति को तेज करें। दूसरी मांग उन लोगों की थी जो द्विज या उच्च जातियों के थे। उनकी अपेक्षा नवीन आर्थिक सुधार (1991) के लागू होने से प्राप्त अवसरों में भागीदारी करने की थी। तीसरी मांग उन अल्पसंख्यकों की थी जो भागलपुर दंगे के बाद जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार की सुरक्षा चाहते थे। उच्च जातियों को लालू से बहुत अपेक्षाएं नहीं रह गई थीं।
बिहार के विधानसभा चुनाव (2005-2006) में एक विमुक्त (विचारधारा से परे) राजनेता नीतीश का उद्भव हुआ। 14वीं विधानसभा के नतीजे ने नीतीश को शासनादेश दिया। नीतीश कुर्मी हैं, और उनका समर्थन कार्यकर्ता आधारित पार्टी भाजपा ने किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने कोइरी जाति के साथ सशक्त गठजोड़ बनाया। इस गठजोड़ ने कोइरी-कुर्मी को लालू के यादव वोट बैंक के समानांतर खड़ा कर दिया। मगर एक तरफ वे हमेशा कार्यकर्ता आधारित दल (भाजपा) पर आश्रित रहे और दूसरी तरफ कोइरी वोट बैंक पर। 2012 के बाद कोइरी जाति के साथ उनका सशक्त गठजोड़ हिलने लगा क्योंकि प्रमुख कोइरी नेताओं ने उनके मंत्रिमंडल और पार्टी से इस्तीफा दे दिया। सोलहवें विधानसभा चुनाव में नीतीश और लालू के बीच चुनाव पूर्व गठबंधन हुआ। यह अनैतिक था क्योंकि राष्ट्रीय जनता दल प्रमुख विपक्षी दल था और नीतीश का उद्भव राष्ट्रीय जनता दल की पराजय पर आधारित था। प्रतिक्रम भी था। यह सुविधा का संबंध था जो अधिक नहीं चला। नीतीश दोबारा एनडीए गठबंधन में गए, लेकिन उन्होंने स्वयं को ऐसे नेता के रूप में बेनकाब कर दिया, जिसके पास जन समर्थन नहीं होता है। भाजपा के पास बिहार में जनाधार वाला पिछड़े वर्ग से कोई नेता नहीं है। सुशील कुमार मोदी की सीमाएं हैं। कुछ समय में तीन नये राजनीतिक चेहरों (उपेन्द्र कुशवाहा, जीतन राम मांझी और मुकेश सहनी) ने जातियों के राजनीतिकरण को और अधिक बल दिया।
जब हम समकालीन जाति के राजनीतिकरण को देखते हैं तो पाते हैं कि बिहार में तीसरी जाति कोइरी है, जो यादव के बाद सबसे ज्यादा संख्या है। प्रजातंत्र लगातार प्रगतिशील चेहरों की खोज करता है, इसलिए जाति के राजनीतिकरण के माध्यम से अभी न जाने कितने प्रगतिशील चेहरे सामने आने हैं। उनमें एक नाम हो सकता है विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी दल) के मुखिया मुकेश सहनी का। वह अपनी मल्लाह जाति को बिहार में एकजुट करने में सफल दिख रहे हैं। इस प्रकार पिछले पांच वर्षो में बिहार में अनेक नये दल बने पर राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और वीआईपी अपनी जाति को गोलबंद करने में सफल हुए हैं, जिसका परिणाम हमें 17वें लोक सभा चुनाव एवं 17वें बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में दिखेगा, जिससे जातियों के राजनीतिकरण के माध्यम से प्रजातंत्र और मजबूत होगा।
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