पुनरावलोकन : क्यों बदले हैं चुनावी मझधार में मुद्दे
जैसे ही चुनाव झमाझम हिंदी पट्टी में घुसा है, अचानक लड़ाई का स्वर बदलता लग रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ठीक उसी समय अपने पिछड़ा ही नहीं, अति पिछड़ा होने की घोषणा की जब चुनाव उत्तर प्रदेश के पूरब की तरफ बढ़ने लगा।
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और इस बार तो किसी तरफ से यह उकसावा भी नहीं था। पिछली बार भी प्रियंका गांधी ने किसी बात पर गुस्सा होकर कहा था कि वे इतनी नीच राजनीति नहीं कर सकतीं। मोदी ने उसे नीच जाति की राजनीति और फिर अपनी ‘नीच’ जाति तक उतार दिया। प्रियंका चुप्पी साध गई। पर इस बार बसपा और सपा के नेता, जिनके गठबंधन के चलते उत्तर प्रदेश प्रधानमंत्री को अति पिछड़ा और पिछड़ा ही नहीं, नकली पिछड़ा बताने में जुट गए। लगता है कि उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा के सामाजिक आधार में मेल बना हुआ है तो बिहार में यादव और मुसलमान का ‘माय’ ही नहीं निषादों के आने से ‘मुनिया’ (मुसलमान, निषाद और यादव) नामक नया सूत्र बन रहा है।
होने को तो उत्तर प्रदेश और बिहार में पहले फेज से ही चुनाव जारी है, लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश का मुकाबला ठीक वैसा ही नहीं है, जैसा कि पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार ही नहीं, राजस्थान, मध्य प्रदेश और हरियाणा का भी है। जाति का खेल तो इन राज्यों में बिहार और उत्तर प्रदेश से भी ज्यादा चलता है। पश्चिम उत्तर प्रदेश में मुसलमानों का अनुपात ज्यादा है, यादव कम हैं, और दलितों में जाटव ज्यादा हैं। कई सीटों पर तो सपा-बसपा के हाथ मिलाने से अगर उनके कोर वोटर हाथ आ जाएं तो उनके उम्मीदवार को जीत मिलने में मुश्किल नहीं हो सकती। ऐसे में इस गठजोड़ से बने सामाजिक समीकरण को सांप्रदायिकता ही काट सकती थी।
पहला फेज हिंदुत्व मिश्रित राष्ट्रवाद का बनाने की कोशिश की गई। वही फार्मूला पूरब में और अन्य इलाकों में नहीं चल सकता। इसलिए सुर बदले हैं। और मोदी जी ने अपनी जाति और हर गांव में एक दो घर होने की बात करके पिछड़े ही नहीं, अति पिछड़ी जमात को आकर्षित करने की कोशिश की जो मंडल, दलित आरक्षण और मुसलमान ‘तुष्टिकरण’ वगैरह से भी अछूता रह गया था और बिहार में पचपनिया या पचफोड़न नाम से गोलबंद होकर नीतीश कुमार की जीत में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। अचानक अब हर विश्लेषण और गिनती में अति पिछड़ों का हिसाब लगने लगा है, जिनकी संख्या हर क्षेत्र में 15-16 फीसद से लेकर 30-35 फीसद तक है। काफी लोग इसकी गिनती इसी अंदाज में करते हैं, जैसे यह उसी तरह मोदी का वोटर है जैसे ब्राह्मण-बनिया या फिर सपा-बसपा-राजद के लिए यादव-मुसलमान और दलित। सो, अब भाजपा की सारी उम्मीदें उस पट्टी में इस जमात से हो तो कोई हैरानी नहीं, जहां भाजपा का स्ट्राइक रेट पिछली बार शत-प्रतिशत से लेकर नब्बे फीसद तक था। बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड में गठबंधन और मध्य प्रदेश, राजस्थान और छतीसगढ़ में हाल में मिली पराजय के बाद हर तरफ भाजपा और नरेन्द्र मोदी का कद ‘कुछ कम’ होने की चर्चा है, तो प. बंगाल और ओडिशा को छोड़कर लगभग हर राज्य में विपक्ष की सीटें बढ़ने का अनुमान लगाया जा रहा है।
पिछली बार अगर शरद पवार और मुलायम सिंह को ‘बिकाऊ’ मानकर ‘इंडिया शाइनिंग’ का नारा देने वाले एक बार फिर अटल सरकार का नारा दे रहे थे तो इस बार भी मायावती और ममता बनर्जी के प्रति यह शक-शुबहा पैदा करने की कोशिश हो रही है। इस बार मोदी खुद ही प्रो-इंकम्बेंसी की बात कर रहे हैं। उनका यह दावा इस अर्थ में तो सही है कि भाजपा के ज्यादातर उम्मीदवार उन्हीं के नाम के सहारे हैं। जी हां, इस चुनाव में मोदी सबसे बड़े व्यक्तित्व और मुद्दा, दोनों ही हैं। भाजपा उम्मीदवारों के लिए उनका नाम, उनकी तरह से आए संसाधन सबसे बड़ा सहारा हैं, तो विपक्ष के लिए उनके हवाई वादे और उसके बरक्स खराब प्रदशर्न सबसे बड़ा मुद्दा। क्षेत्रीय नेताओं और अपने दम पर चुनाव जीतने के साथ आसपास की सीटों पर पार्टी उम्मीदवारों को भी मदद पहुंचाने वाले उम्मीदवारों का अभाव भाजपा को नुकसान पहुंचा रहा है, तो विपक्ष खासकर कांग्रेस के न्याय, कर्जमाफी और खेती के लाभकारी मूल्य जैसे मुद्दे भी भाजपा विरोधी वोट का हिसाब बढ़ा रहे हैं। विपक्ष का चुनाव लड़ने का तरीका भी भाजपा को परेशानी दे रहा है। बार-बार ताल ठोंककर प्रियंका के सामने आने से मोदी ने भले राहत की सांस ली हो पर पूरब की राजनीति में कांग्रेस के कुछ उठकर सपा-बसपा गठबंधन को ज्यादा नुकसान करने की संभावना खत्म होने से वह दुखी भी है। जाहिर है कि वह सबसे ज्यादा दुखी तो उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा के गठबंधन और बिहार में लालू प्रसाद यादव की अनुपस्थिति के बावजूद विपक्षी महागठबंधन बनने और सारी सीटों पर सीधी टक्कर होने से हैं।
इस बार पांच बड़े राज्यों में विपक्षी गठजोड़ है। इससे चुनाव साफ बदला लग रहा है। मुद्दे तो तीसरा फेज आते-आते बदलने लगे थे। मोदी द्वारा पिछड़ा राग अलापना और भोपाल से आतंकी कार्रवाई में मुकदमा और जेल झेलने वाली साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को उतारना बता रहा है कि भाजपा के लिए चुनावी चुनौती हल्की नहीं है। सिर्फ हल्की का मामला भी नहीं है-कहीं न कहीं पुलवामा और बालाकोट से माइलेज लेने की कोशिश भी ज्यादा असर करती नहीं दिखती।
माइलेज लेने का चौतरफा प्रयास होते-होते प्रधानमंत्री ने सीधे चुनावी भाषण में उस नाम पर वोट मांग लिया। अब वे प्रधानमंत्री हैं, सुनवाई रु कवा सकते हैं। इसलिए उनको योगी, मायावती और सिद्धु जैसा दंड नहीं मिला है, लेकिन इस प्रकरण की सुनवाई का बड़ा मुद्दा न बनना भी यही बताता है कि न शासक जमात के लिए पुलवामा बड़ा मुद्दा दिख रहा है, न विपक्ष इससे आतंकित है। राममन्दिर पहले ही दरकिनार हो चुका था, सरकार की उपलब्धियां या पिछले चुनावी वादों पर मोदी और उनके रणनीतिकार बात होने देना नहीं चाहते। इसलिए पिछड़ा कार्ड चलने से लेकर मतदान के समय का शो, रोड शो और अक्षय कुमार शो जैसी चालाकियां की जा रही हैं। विपक्षी कांग्रेस का न्याय भी कोई बड़ा मुद्दा नहीं बन रहा है, न राफेल और उससे निकला चौकीदार चोर है वाला अभियान। मुद्दा है और कहीं-कहीं साफ असर डाल रहा है पर चुनावी चर्चा में मोदी के नाम-काम और तौर-तरीकों की तरह मुख्य मुद्दा नहीं है। एक चुनावी डिस्कोर्स से लेकर वैकल्पिक एजेंडा कांग्रेस के पास ही लगता है-लीडर भी उसके पास ही है। लेकिन ज्यादा बड़ा कमाल क्षेत्रीय दलों ने किया है, जिनके पास लीडर के सवाल पर अनेक दावेदार हैं, लेकिन एजेंडे के नाम पर शून्य। लग रहा था कि ऊंचे कद के मोदी और उनके मुकाबले में आने को परेशान राहुल या कांग्रेस की तुलना में यह राजनीति कितना चलेगी। साफ लगता है कि चुनाव में जातीय अंकगणित और क्षेत्रीय मसले झमाझम चल रहे हैं। इस बदली लड़ाई में भाजपा के साढ़े चार सौ से ज्यादा उम्मीदवारों को मोदी के नाम के अलावा कोई सहारा नहीं लगता।
अधिकांश भाजपा सांसदों से काफी नाराजगी है, और भाजपा नेतृत्व ने भी उम्मीद के अनुसार ज्यादा सांसदों को टिकट से बेदखल नहीं किया पर वे लड़ाई सिर्फ और सिर्फ मोदी के नाम पर लड़ रहे हैं, और मतदाता भी उनकी नालायकी की चर्चा करते हुए अभी भी मोदी की काबलियत पर भरोसा बनाए हुए हैं। लेकिन चुनाव शास्त्र की एक बात मोदी के खिलाफ जाती है। वह है विपक्ष का पहले से ज्यादा एकजुट होना। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, कर्नाटक और महाराष्र्ट् समेत करीब दो सौ से ज्यादा सीटों पर भाजपा और एनडीए को 2014 की तुलना में साझा विपक्षी उम्मीदवार का सामना है। पहले विपक्षी एकता सूचकांक में एक फीसद अंक की बढ़ोतरी से तीन सीटों का अंतर आ जाता था। अब राजनैतिक लड़ाई ज्यादा तीखी होने से एक प्रतिशत अंक से सात अंकों का अंतर आने लगा है। इसलिए मोदी अपनी मेहनत और प्रबंधन से चाहे जितना आगे लगें, इन दो अनदेखे तथ्यों को भी ध्यान में रखें।
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