मीडिया : सांस्कृतिक राजनीति, मीडिया और मोदी

Last Updated 05 May 2019 06:57:37 AM IST

मास मीडिया की भाषा प्रार्थना की भाषा नहीं होती। वह अनिवार्यत: ‘ताकत’ की भाषा होती है। ‘अथॉरिटी’ की भाषा होती है। ‘निर्विकल्पक’ और ‘निश्चित’ और आत्मविश्वास से भरी होती है। यहां ‘किंतु परंतु’ या ‘करूं कि न करूं’ या ‘ये करूं कि वो करूं’ जैसे कंफ्यूजन को जगह नहीं होती।


मीडिया : सांस्कृतिक राजनीति, मीडिया और मोदी

आज के तुरंता मीडिया में किसी भी कहानी के हीरो को ‘कंफ्यूज्ड’ नहीं दिखना चाहिए। असली हीरो तो अपने लक्ष्य तक पहुंच कर ही दम लेता है। वही नायक होता है। नायक का मानी ही है: नैया को ‘नय’ करने वाला यानी नैया का खेवनहार, संचालक या ड्राइवर! नये मीडिया अध्ययन कहते हैं कि टीवी हो या सोशल मीडिया, सभी मूलत: ‘सांस्कृतिक राजनीति’ के माध्यम हैं। ‘सांस्कृतिक राजनीति’ यानी ऐसी राजनीति जो ‘भावमूलक’, ‘भावोत्तेजक’ सांस्कृतिक चिह्नों या तकरे के जरिए काम करे। आज का मीडिया ताकत का निर्माता और विक्रेता है। फिल्म हो या विज्ञापन या खबरें या चरचाएं, सब में ‘ताकत’ काम करती है। हम उसमें निहित और सक्रिय ताकत की तारीफ करते हैं। कौन दमदार है? किस की बात दमदार रही? किसने दमदार तरीके से बाजी मारी? ताकत के ये विमर्श कुश्ती की तरह होते हैं। आप कायदे से जीतें या ‘फाउल’ करके जीतें, जो जीता वही सकिंदर! यहां तर्क और तथ्यों से अधिक ‘जीत’ ही बिकती है। हारे के साथ कोई नहीं होता। इसीलिए कहा जाता है ‘हारे को हरिनाम!’

टीवी हो या सोशल मीडिया हो या राजनीति, इनमें जो जितना जोर से बोलता है, उतना ही हीरो बनता है। जो जितना ‘अपनी’ चलाता है, उतना ही ताकतवर कहलाता है। हम ही कहते हैं कि देखो इतनी ‘अति’ करके भी वो बच गया। हम उसकी चतुराई के, कौशल और रु तबे के कायल हो उठते हैं, और उसकी ‘कॉपी’ करना चाहते हैं। कमजोर लोग ऐसी ताकत के सबसे बड़े गरहक होते हैं। औरतें, युवा सब ताकतवर को चाहते होते हैं। भरत का नाटय़शास्त्र भी ‘नायक’ (हीरो) के बारे में ऐसा ही कहता है कि नायक वही जो कहानी को उसके ‘फलागम’ तक ले जाए। फलागम तक कोई यों ही नहीं पहुंच जाता। कठिन संघर्ष करके ही पहुंचता है। उस संघर्ष के लिए ताकत चाहिए। ‘संस्कृति’ इसी तरह ‘राजनीति’ करती है। इसी मानी में समकालीन राजनीति, एक खास किस्म की ‘सांस्कृतिक राजनीति’ है, जिसकी ‘ताकत की भाषा’ को  विपक्ष अभी तक नहीं समझ पाया है। इसीलिए एक ओर ‘ताकत ही भाषा’ है, दूसरी ओर है रिरियाहट या शिकायत।
मीडिया सिर से पैर तक ताकत का ही विनिवेश करता है। उसके एक एक फ्रेम में, एक-एक बाइट में, एक-एक एंकर या रिपोर्टर में, एक-एक सीन में ताकत बोलती है। वही उनको ‘मानी’ देती है। उनको सक्रिय करती है। मीडिया की इसी ताकत के हम कायल होते हैं। शायद इसीलिए मीडिया वालों को हम अपने से अधिक ताकतवर मानते हैं। समझते हैं कि वे ही देश को चलाते हैं। उनसे बड़े-बड़े डरते हैं। उनके सामने पड़ते ही हम कह उठते हैं, अरे आप को टीवी में देखा है। और जो चेहरा पिछले पांच बरस से मीडिया में दिन रात छाया हो, उसे आप क्या कहेंगे? वह तो मीडिया का सबसे बड़ा चेहरा हुआ यानी सबसे अधिक दमदार चेहरा। हम उसके टिकाऊपन के कायल होते हैं कि देखो वो तब से अब तक जैसा का तैसा ही है। दृश्य की भाषा ताकत को इसी तरह ‘ठोस’ बनाती है।
 पिछले पांच बरस में मीडिया में जितने अधिक समय मोदी ‘दिखे’ हैं, अन्य कोई नहीं दिखा। इन दिनों तो मीडिया और मोदी एक दूसरे के ‘कंप्लीट सिंक’ में नजर आते हैं। पिछले पांच बरसों में बनी और बनाई गई मोदी की ‘देहभाषा’ को पढ़िए। उन्होंने हर रोज अपनी ताकत के नये-नये चिह्न बनाए हैं। राहुल उनके बरक्स ‘प्रति-ताकत’ के चिह्न नहीं बन सके। जब लोग कहते हैं कि मोदी बहुत ‘मीडिया सावी’ हैं, तो उसका अर्थ यही है कि मोदी अपनी राजनीति के लिए मीडिया का भरपूर इस्तेमाल करना जानते हैं।
उनकी ‘देह भाषा’ को परिभाषित करने वाले जितने चिह्न हैं, वे सब ताकत के चिह्न हैं, जिनको मीडिया पिछले पांच बरस से लगातार संप्रेषित करता आ रहा है। उदाहरण के लिए: उनका गरीब वर्ग का होना, उनका दिन-रात मेहनत करना, छप्पन इंच की छाती होना, दमदार भाषण देना, विपक्ष का उपहास उडाते हुए ताली पिटवाना, नामदार बरक्स कामदार का विलोम बनाना, ‘मोदी है तो मुमकिन है’ से लेकर ‘देशप्रेम यानी मोदी’, ‘सर्जिकल स्ट्राइक यानी मोदी’ या ‘घर में घुसकर मारने वाला मोदी’-मोदी की ताकत के  ऐसे चिह्न हैं, जो मोदी के नायकत्व को दिन-रात स्थापित करते रहते हैं। अफसोस कि समूचा विपक्ष मोदी की मीडिया-प्रेषित ‘सांस्कृतिक राजनीति’ के सामने असहाय-सा नजर आता है।

सुधीश पचौरी


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