बतंगड़ बेतुक : आखिर हार कौन रहा है

Last Updated 05 May 2019 06:52:50 AM IST

उसके मुंह में पान मसाले की चुभलन चल रही थी, उसके चेहरे से उलझन सी झलक रही थी और उसके सर पर उंगलियों की खुजलन चल रही थी।


बतंगड़ बेतुक : आखिर हार कौन रहा है

उसने एक हाथ से हमारा एक चरण न छुआ-सा छुआ, वह हमारा पार्वर्ती हुआ और फिर हमसे या अपने आपसे बोला, ‘इन चुनावों ने जो किया है सो किया है मगर हमारे अच्छे-खासे दिमाग का दही कर दिया है। अब तुम्हीं बताओ दद्दा, जिसे देखो वह लंबी-लंबी कुलांचे भर रहा है, हर कोई अपने जीत के दावे कर रहा है। समझ में नहीं आता कि जब सभी जीतेंगे तो आखिर हारेगा कौन?’
हमने सोचा कि हम भी अपना गणित लगाएं, चुनावी हार-जीत पर अपने विचार बताएं और इस भ्रमित-सी आत्मा के दुविधाभरे संकट मिटाएं। हम कुछ कहते उससे पहले ही वह फिर शुरू हो गया, ‘अब देखो दद्दा, भक्त कहते हैं कि जीतेगा तो सिर्फ  दमदार प्रधानमंत्री फिर जीतेगा नहीं तो कोई नहीं जीतेगा। उनके दमदार प्रधानमंत्री ने बता दिया है कि तीसरा चरण खत्म होते न होते महामिलावटी गठबंधन बौखला गया, चौथे चरण की समाप्ति पर चारों खाने चित हो गया, पांचवे चरण में पूरी तरह पिट जाएगा, छठवें चरण में उसका कुहासा छट जाएगा और सातवें चरण तक महामिलावट का सूपड़ा साफ हो जाएगा। सिर्फ  मोदी जीतेगा, मोदी ही जीतेगा।’

हमने अपने विचार प्रकट करने के लिए मुंह खोलना चाहा तो हमें रोक कर वह फिर शुरू हो गया, ‘और दद्दा, उधर देखो, वह हमारा दावेदार-होनहार प्रधानमंत्री दम भर रहा है कि दमदार प्रधानमंत्री को बेदम करके ही दम लेगा। 23 मई के बाद वही प्रधानमंत्री पद की शपथ लेगा क्योंकि उसने दमदार प्रधानमंत्री का चेहरा पढ़ लिया है और यह चेहरा सिकुड़ रहा है। अगर किसी का चेहरा सिकुड़ रहा है तो उसकी हार पक्की और जिसे अपने दुश्मन का चेहरा सिकुड़ता हुआ दिखाई दे तो उसकी जीत नक्की।’ हमें ध्यान आया कि हमारे दमदार प्रधानमंत्री को हर सभा में चोर बताने वाले हमारे बालवीर दावेदार प्रधानमंत्री ने अपनी चुनावी सभा में कहा था कि दमदार प्रधानमंत्री का चेहरा सिकुड़ गया है क्योंकि जनता का उस पर से विश्वास उठ गया है। लेकिन हम अभी तक नहीं समझ पाए कि हमारे इस वयस्क बालक ने चेहरे की सिकुड़न कैसे आंकी थी, किस फीते से नापी थी? हमारे भीतर कुछ खयाल कुड़मुड़ाए, कुछ कहने के लिए हमारे होंठ फड़फड़ाए परंतु उसने हम पर रोक लगा दी और अपनी बात फिर आगे बढ़ा दी, बोला, ‘दद्दा, लगता है कि सबकी आशंका मिट गयी है, सबकी जीत पक्की हो गयी है।
जो पहले जीता था वह फिर जीत का दावा कर रहा है, जो हार के फिर लड़ रहा है वह भी जीत का दावा कर रहा है। जो पहले कभी नहीं जीता वह भी इस बार जीत का झंडा तान रहा है और जो हार-हार कर हार चुका है वह भी जीत पक्की मान रहा है।’ हमें नहीं सूझा कि कहें तो क्या कहें? समझ नहीं पा रहे थे कि जीत इंसान की सबसे बड़ी ताकत होती है या सबसे बड़ी कमजोरी। मगर समझ रहे थे कि जीत पाने का उन्माद बहुत गहरा होता है और जीत का नशा हर नशे से भारी होता है। वह बोला, ‘दद्दा, समंदर किनारे वालों का तो पता नहीं लेकिन इधर गंगा किनारे वालों की थाह नहीं मिलती।
उत्तर प्रदेश का मठाधीश मंतर मार के कहता है कि मोदी की लहर जीतेगी, पुरातन पार्टी का अध्यक्ष भइया कहता है कि बहन की शख्सियत जीतेगी, दनुआ दलित कहता है बहनजी का हाथी जीतेगा, यादवलाल समाजवादी कहता है कि भइयाजी की साइकिल जीतेगी। हिंदू कहता है हिंदुत्व जीतेगा, मुसलमान कहता है इस्लाम जीतेगा। ये कहता है इसकी जाति जीतेगी, वो कहता है उसकी जाति जीतेगी। समझ में नहीं आता दद्दा, ये सब जीतना क्यों चाहते हैं?’ यह कहकर उसकी मुद्रा दार्शनिक हो गई, उसकी जुबान भी थोड़ी चुप हो गई। उसने जैसे वाणी को थोड़ा विराम दिया हो और हमें कुछ कहने का अवसर प्रदान किया हो। हम बोले, ‘भाई, ये सांसद बनना चाहते हैं इसलिए जीतना चाहते हैं।’ वह रहस्यमयी मुस्कान चेहरे पर उतार लाया, बोला, ‘सांसद बनकर ये क्या करेंगे?’ हमने कहा, ‘अपना कर्तव्य पूरा करेंगे, देश की सेवा करेंगे। हमारे यहां देश उसी से सेवा कराता है जो चुनाव जीत जाता है।’
वह बोला, ‘तो ये सारी मारा-मारी देश सेवा के लिए है। हम तो समझ रहे थे कि ये चुनाव इसलिए लड़ रहे हैं कि कोई जीतकर सरकार में जा घुसे और कोई विपक्ष में घुस ले, फिर देश को अपनी सेवा में लगा ले और जितना माल-मत्ता बना सके, बना ले।’ हम चाहते थे कि कहें कि भई ऐसी बात नहीं है लेकिन वह बोला, ‘दद्दा, ईवीएम चाहे जो फैसला करे, चाहे जिसको पक्ष बनाए और चाहे जिसको विपक्ष बनाए लेकिन हमें पूरा भरोसा है कि इस चुनाव में सब जीत रहे हैं। अपने नकली चेहरों और असली इरादों के साथ सब जीत रहे हैं।’ हमें नहीं सूझा कि क्या कहें, कहें या चुप रहें। हां, एक सवाल जरूर कुलांचे मार रहा था कि अगर ये सब जीत रहे हैं तो आखिर हार कौन रहा है?

विभांशु दिव्याल


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