कच्चे तेल का भाव : वैश्विक सियासत के आर्थिक नतीजे

Last Updated 25 Apr 2019 05:54:11 AM IST

कच्चा तेल सिर्फ आर्थिक उत्पाद नहीं है। बहुत गहरे में यह राजनीतिक उत्पाद है। हाल में कच्चे तेल के भाव ऊपर जा रहे हैं।


कच्चे तेल का भाव : वैश्विक सियासत के आर्थिक नतीजे

ब्रेंट कच्चे तेल के  भावों का भारत के लिए खास महत्त्व है, इसके भाव हाल में एक ही दिन में तीन प्रतिशत से ज्यादा उछल गए। ये पिछले छह महीनों के उच्चतम स्तर पर जा चुके हैं। अभी भाव 74 डॉलर प्रति बैरल (यानी 159 लीटर) है। भावों में तात्कालिक  तेजी की वजह है कि अमेरिका ने चेतावनी दी है कि 2 मई, 2019 से भारत समेत कई देशों को ईरान से कच्चा तेल खरीदना बंद करना चाहिए।
अमेरिका और ईरान की रंजिशें बहुत पुरानी हैं। दोनों एक दूसरे को लगभग आतंकवादी मुल्क मानते हैं। अमेरिका का शुबहा है कि ईरान परमाणु बम तकनीक पर बहुत आगे के स्तर का काम कर रहा है। उसे हर हाल में रोकना चाहता है। इसके दूसरे आयाम भी हैं। ईरान मूलत: शिया-संप्रदाय प्रधान देश है, और अमेरिका का खास दोस्त देश सऊदी अरब मूलत: सुन्नी-संप्रदाय। ईरान को बाजार से खदेड़ देना सिर्फ  आर्थिक वजहों से नहीं हो रहा। अमेरिका कच्चे तेल के बाजार में अपने दोस्तों को सबसे ऊपर देखना चाहता है। ईरान से कच्चा तेल न खरीदने की चेतावनी देने के साथ अमेरिका ने यह भी कहा है कि ईरान के बाजार से बाहर होने से तेल आपूर्ति में जो भी कमी आएगी, उसकी पूर्ति अमेरिका के मित्र देश-सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और खुद अमेरिका करेगा। नोट करने की बात यह भी है कि अब विश्व के तेल बाजार में अमेरिका खरीदार होने के साथ-साथ खुद निर्यातक भी बन रहा है। अमेरिका ने शेल तकनीक से तेल पैदा करने की जुगत जमा ली है, और तेल वहां भी होने लगा है। अलबत्ता, थोड़ी महंगी दरों पर।

वित्तीय वर्ष 2018-19 के पहले दस महीनों में भारत ने अपने कुल तेल आयात का करीब 3 प्रतिशत अमेरिका से प्राप्त किया यानी अमेरिका तेल बाजार का एक खिलाड़ी आने वाले सालों में हो सकता है, यह बात भी नोट की जानी चाहिए। अमेरिका तेल बाजार में खरीदार, विक्रेता और अंपायर सब कुछ बनना चाहता है, जो अस्वाभाविक भी नहीं। कोई भी देश अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपनी राजनीतिक हैसियत का आर्थिक इस्तेमाल करता है। अमेरिका भी कर रहा है। अमेरिका भारत से कह रहा है कि हम पाक आतंकी मसूद अजहर पर आपका अंतरराष्ट्रीय साथ दे रहे हैं, तो आप भी हमारी  चिंताओं को समझें और ईरान से कच्चा तेल न खरीदें। इस चक्कर में हो यह रहा है कि तेल के बाजार से एक महत्त्वपूर्ण विक्रेता बाहर हो रहा है। किसी बाजार से किसी महत्त्वपूर्ण विक्रेता के कम होने के क्या खतरे होते हैं, यह  ऐसे समझना चाहिए। जैसे आलू बाजार में पांच आलू विक्रेता हैं, एक विक्रेता बाजार से कम हो जाए तो आपूर्ति कम हो जाएगी। आपूर्ति कम होने का मतलब है कि खरीदने वाले  कम  न हुए, बेचने वाले कम हो गए। तो आलू के भाव ऊपर जाएंगे। आलू बाजार से लेकर तेल बाजार तक बाजार के नियम एक से ही हैं। 
कच्चे तेल के बाजार से एक महत्त्वपूर्ण विक्रेता कम हुआ तो बाकी सारे विक्रेता तेल के भाव बढ़ाएंगे। यही हो रहा है जो ब्रेंट दिसम्बर, 2018 के अंत में 52 डॉलर प्रति बैरल मिल रहा था, आज 74 डॉलर प्रति बैरल के भाव पर पहुंच गया है। अक्टूबर, 2018 में ब्रेंट के भावों का स्तर 86 प्रति बैरल तक जा चुका है। गौरतलब है कि कच्चे तेल का बाजार सघन राजनीति से प्रभावित है। अमेरिका को ईरान पसंद नहीं है। वेनेजुएला के वर्तमान शासक पसंद नहीं हैं। वेनेजुएला तेल का बड़ा आपूर्तिकर्ता है। वेनेजुएला इस समय भीषण राजनीतिक अनिश्चितताओं के रूबरू है यानी कुल मिलाकर तेल की आपूर्ति पर आशंकाओं के बादल घिरे हैं, जबकि तेल की मांग की कमी के आसार नहीं दिखाई पड़ रहे। भारत को जब विश्व की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के तौर पर चिह्नित  किया जाता है, तो इसका एक आशय यह भी होता है कि भारत में ऑटोमोबाइल की सेल बढ़ रही है, और कच्चे तेल की मांग लगातार बढ़ रही है। ईरान के कच्चे तेल के बाजार से बाहर होने का भारत को महंगा कच्चा तेल खरीदना पड़ेगा। कच्चा तेल ग्लोबल बाजारों से डॉलर में खरीदा जाता है यानी भारत को ज्यादा डॉलर खर्चने होंगे यानी ज्यादा डॉलर की मांग होगी।
ज्यादा डॉलर की मांग का एक आशय हुआ कि रुपया कमजोर होगा यानी पहले अगर एक डॉलर के बदले 63 रुपये आते थे, और आज करीब 70 रुपये आ रहे हैं यानी वही डॉलर अब ज्यादा रुपये खरीदने की हैसियत रखता है। डॉलर की हैसियत बढ़ती तब है, जब उसकी मांग बढ़ती है। कच्चे तेल के भाव ऊपर की ओर जाएं तो रुपया कमजोर होता है। अक्टूबर, 2018 में ब्रेंट के भाव जब 86 डॉलर प्रति बैरल चले गए थे, तब रुपया बहुत ही कमजोर होकर 74.34 रुपये प्रति डॉलर के स्तर पर आ गया था यानी एक डॉलर से 74 रुपये 34 पैसे लिए जा सकते थे। गिरता रुपया अर्थव्यवस्था की चिंता का विषय हो जाता है, इसमें आयात महंगे हो जाते हैं। इसलिए जैसे ही ब्रेंट के महंगे होने की खबर आई, आशंकाओं के चलते शेयर बाजार सूचकांक करीब 500 बिंदु गिर गया। कुल मिलाकर ईरान के कच्चे तेल के बाजार से बाहर होने से तेल की आपूर्ति पर संकट नहीं आएगा पर भाव जरूर बढ़ जाएंगे। 
एक अनुमान के मुताबिक कच्चे तेल के भावों में एक डॉलर की बढ़ोत्तरी से भारत को करीब 10,700 करोड़ रुपये की चपत लगती है यानी इतना ज्यादा पैसा देना पड़ता है। अगर ब्रेंट के भाव अभी के 74 डॉलर से बढ़कर 84 डॉलर प्रति बैरल हो गए तो एक लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का घाटा होगा। यह रकम कितनी बड़ी है, इसे यूं समझा सकता है। सरकार की इच्छा है कि वस्तु एवं सेवाकर से हर महीने एक लाख करोड़  रुपये का संग्रह हो जाए। इतना संग्रह हर महीने हो नहीं पाता, यह अलग बात है। बढ़ते आयात खर्च का एक आशय यह भी है कि सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़ सकता है। कच्चे तेल के बढ़े हुए भाव विकट महंगाईकारी होते हैं। लगभग हर वस्तु की लागत में परिवहन लागत शामिल करनी पड़ती है, महंगा कच्चा तेल हर आइटम की लागत बढ़ा देता है, महंगाई बढ़ने का मतलब है कि देर सबेर ब्याज दर भी बढ़ती हैं, जिससे कारोबारी परेशान होते हैं। कुल मिलाकर अमेरिका और तमाम देशों की राजनीतिक रंजिशें भारतीय अर्थव्यवस्था को बुरी तरह से प्रभावित कर सकती हैं, ऐसी आशंका सच साबित ना हो, यह शुभकामना सबको करनी चाहिए।

आलोक पुराणिक


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