मुद्दा : क्यों छाई है सुस्ती?

Last Updated 25 Apr 2019 05:51:50 AM IST

सोलर एनर्जी यानी सौर ऊर्जा। इसका महत्त्व इस बात में है कि यह क्लीन और ग्रीन होने के साथ-साथ अक्षय यानी खत्म नहीं होने वाली ऊर्जा है।


मुद्दा : क्यों छाई है सुस्ती?

यह नष्ट होने वाली ईधन आधारित ऊर्जा का भी विकल्प है। सौर ऊर्जा की पर्यावरण अनुकूलता इसे विश्व स्तर पर स्वीकार्य बनाता है, और पर्यावरण की चिंता से दुनिया को जोड़ते हुए अपने लिए प्रतिबद्ध और अपरिहार्य भी। 
2010 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2022 तक 20 हजार मेगावाट सौर ऊर्जा के उत्पादन का लक्ष्य हासिल करने के मकसद के साथ जवाहरलाल नेशनल सोलर मिशन की शुरु आत की थी। यही लक्ष्य 5 साल बाद एक जुलाई, 2015 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बढ़ाकर एक लाख मेगावाट कर दिया गया। इसी साल दिसम्बर में पेरिस समझौते के बाद स्वच्छ पर्यावरण के प्रति वैश्विक जिम्मेदारी को स्वीकारते हुए भारत ने सौर ऊर्जा के त्वरित विकास की ओर कदम उठाने की कोशिश शुरू की। मोदी सरकार ने साल दर साल सौर ऊर्जा के उत्पादन की क्षमता स्थापित करने का जो लक्ष्य रखा था, उसके मुताबिक भारत के पास 2018-19 तक 45 हजार मेगावाट यानी 45 गीगावाट सौर ऊर्जा उत्पादन की क्षमता होनी चाहिए थी। मगर अब तक भारत 23 गीगावाट सौर ऊर्जा उत्पादन की क्षमता ही हासिल कर सका है।

केंद्र सरकार का दावा है कि 40 गीगावाट की उत्पादन क्षमता के लिए निविदा और स्थापना (इंस्टॉलेशन) का कार्य जारी है। इस दावे पर यकीन कर पाना मुश्किल है और इस गति से एक लाख मेगावाट सौर ऊर्जा की उत्पादन क्षमता का लक्ष्य अगले 20 साल में भी पूरा नहीं हो पाएगा। इस सुस्त रफ्तार की वजह समझने की कोशिश करें तो बड़ी वजह है कि भारत को उन उपकरणों को आयात करना पड़ता है, जो सौर ऊर्जा के उत्पादन की क्षमता विकसित करने के लिए जरूरी हैं। इसके लिए डॉलर चाहिए। डॉलर की चुनौती से निपटने का तरीका यही है कि सौर ऊर्जा के क्षेत्र में अधिकतम एफडीआई यानी विदेशी प्रत्यक्ष निवेश हो। यही रफ्तार बहुत धीमी है। ग्रीन एनर्जी पर 2017 में 11 बिलियन डॉलर का निवेश आया। 2018 की छमाही तक यह आंकड़ा 7.4 बिलियन डॉलर था, मगर बाद में घटता चला गया। सरकार ने फंड की कमी से निपटने के लिए बजट में नवीनीकरण ऊर्जा परियोजनाओं के लिए 3,762 करोड़ रुपये आवंटित किए। यहां तक कि अंतरिम बजट में भी 3,000.90 करोड़ रुपये का आवंटन किया। इसके बावजूद सौर ऊर्जा के उत्पादन की क्षमता के विकास में अपेक्षित गति प्राप्त नहीं हो सकी है। सौर ऊर्जा के विकास में जो बाधाएं हैं, उनमें महत्त्वपूर्ण यह भी है कि भारत के पास मास स्टोरेज यानी बड़े पैमाने पर सौर ऊर्जा के व्यापक संग्रहण की व्यवस्था विकसित नहीं हो पाई। इस क्षेत्र में चीन ने आत्मनिर्भरता हासिल कर ली है, और वह सौर ऊर्जा के निर्यात तक की स्थिति में आ चुका है। भारत के लिए सौर ऊर्जा का निर्यात अभी सपना है। सौर ऊर्जा की भारत में प्रति व्यक्ति खपत दुनिया में ऊर्जा खपत की एक तिहाई है। मूल रूप से परंपरागत ऊर्जा ही यह जरूरत पूरी करती है। भारत ने 2030 तक ऊर्जा पर परंपरागत निर्भरता को 40 फीसदी तक कम करने का लक्ष्य रखा है। यह पेरिस समझौते के अनुरूप हानिकारक उत्सर्जक गैसों के उपयोग को रोकने के दायित्व और प्रतिबद्धता से जुड़ा है। मगर इस उद्देश्य का सीधा और समानुपातिक सबंध सौर ऊर्जा के विकास से है। चिंता की बात यह है कि इसमें भी भारत पिछड़ रहा है। भारत ने जो एक लाख मेगावाट सौर ऊर्जा उत्पादन की क्षमता 2022 तक विकसित करने का लक्ष्य रखा है, उसमें से 40 हजार मेगावाट रूफटॉप सोलर एनर्जी के जरिए है, और बाकी ग्रिड से जुड़े सौर ऊर्जा प्रॉजेक्ट के जरिए। देश में जो क्षमता 2015 के बाद से बीते चार साल में हासिल की गई  है, उसमें रूफ टॉप सोलर एनर्जी का योगदान बेहद कम है। मौजूदा सौर ऊर्जा का यह महज 13 फीसद है। रूफ टॉप सौर एनर्जी के विकास से विद्युत वितरण से बचा जा सकता है। घरेलू और सार्वजनिक जरूरतों को पूरा करने के लिए यह बेहद कारगर है। किन्तु, इसकी लगातार उपेक्षा चिंताजनक और आश्चर्यजनक है।
प्रधानमंत्री ने दावा किया था कि एक गीगावाट सौर ऊर्जा की उत्पादन सुविधा होने से 4 हजार प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रोजगार पैदा होते हैं। इससे भी इस पर ध्यान देने की जरूरत थी। मगर बहु-प्रचारित योजना में सुस्ती ने 2022 तक एक लाख मेगावाट सौर ऊर्जा उत्पादन के लक्ष्य को कई दशकों तक न पूरा होने वाला सपना बना दिया है।

प्रेम कुमार


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