मुद्दा : लब की आजादी पर पांबदी
दिसम्बर 3, 1950 को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था-‘मैं प्रेस पर पाबंदी लगाने की जगह उसकी आजादी के बेजा इस्तेमाल के तमाम खतरों के बावजूद पूरी तरह आजाद प्रेस रखना चाहूंगा क्योंकि प्रेस की आजादी एक नारा नहीं, भारतीय लोकतंत्र का अभिन्न अंग है।’
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लेकिन हाल ही में पेरिस स्थित गैर-सरकारी संस्था ‘रिपोर्ट्स विदाउट बॉर्डर्स’ द्वारा जारी ‘वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स-2019’ में प्रेस की स्थिति पर चिंताजनक तथ्य सामने आ रहे हैं।
दरअसल, 2019 के इस सूचकांक में भारत दो पायदान नीचे खिसक गया है। गौरतलब है कि वर्ष 2018 में जारी सूचकांक में भारत 138वें पायदान पर था, जबकि 2019 में वह खिसकर 140वें पायदान पर पहुंच गया। एक सौ 80 देशों की इस सूची में नॉर्वे को पहला स्थान मिला है, जबकि तुर्केमेनिस्तान को आखिरी स्थान पर रखा गया है। रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में पत्रकारों के प्रति दुश्मनी की भावना दिनोंदिन बढ़ रही है, और यही कारण है कि भारत में पिछले साल कम से कम छह पत्रकारों की हत्या कर दी गई। इसके मुताबकि पत्रकारों के खिलाफ हिंसा के पीछे पुलिसिया हिंसा, माओवादियों के हमले, अपराधी समूहों या भ्रष्ट राजनीतिज्ञों के प्रतिशोध जैसे तमाम कारण हैं। प्रेस की आजादी को रेखांकित करने वाली इस रिपोर्ट में मीडिया की स्वतंत्रता, पारदर्शिता, मीडिया के लीगल फ्रेमवर्क, अवसंरचना की गुणवत्ता इत्यादि मानकों को आधार बनाया जाता है। जाहिर है कि भारत इन सभी मामलों में फिसड्डी साबित हो रहा है, जो भारत में प्रेस की स्थिति इस कदर पिछड़ रही है।
आंकड़ों की बात करें तो पिछले एक दशक में भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में प्रेस की आजादी में बेहद कमी आई है। इसे इस तरह समझिए कि वर्ष 2009 में भारत जहां 105वें पायदान पर था, वहीं 2019 में भारत 140वें पायदान पर है, और पिछड़ने का यह सिलसिला लगातार जारी है। इससे पता चलता है कि किस प्रकार धीरे-धीरे भारत में अभिव्यक्ति की आजादी पर बंदिश लगाई जाती रही है। फिर यह कहना वाकई बेमानी होगा कि भारत का लोकतंत्र एक सफल लोकतंत्र है। यह भी ठीक नहीं होगा कि हम अपने लोकतंत्र का बखान करते में इस कदर आत्ममुग्ध हो जाएं कि हमें वस्तुस्थिति का भान ही न रहे। गौर करने वाली बात है कि मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, और भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश। लेकिन इस कथन पर अगर किसी को शक हो तो इसमें कोई हैरानी नहीं होगी।
दरअसल, भारत को सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश कहना दशकों से एक मिथक ही प्रतीत हो रहा है। इसे इस तरह समझ सकते हैं कि दुनिया के 180 देशों में से 139 देशों में लबों को जो आजादी है, वह भारत में नहीं। पत्रकारों की हत्या और पत्रकारिता का एक चुनौतीपूर्ण बन जाना यकीनन लोकतंत्र के चौथे खंभे के दरकने की निशानी है। नॉर्वे जैसा छोटा मुल्क जब पहले पायदान पर हो तब यह सोचने की जरूरत है कि हम खुद को कैसे सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश कहने के हकदार हैं?
जब यूनाइटेड किंगडम 33वें और अमेरिका 48वें पायदान पर हो तब मंथन करने की जरूरत है कि हमारा लोकतंत्र सबसे सफल कैसे है। सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि अफगानिस्तान जैसा देश भी हमसे कहीं बेहतर है। ऐसे में कई ऐसे सवाल हैं, जो मन में कौंध रहे हैं। सबसे पहला तो यह कि अगर प्रेस की आजादी इसी तरह सवालों के घेरे में रही तो पारदर्शिता के साथ मीडिया अपना काम कैसे करेगा? अगर प्रेस का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा तो सामाजिक सरोकार के मुद्दे को उठाएगा कौन? अगर सरकार से सवाल करने वाले ही अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहे हों तब लोकतांत्रिक मूल्यों को खत्म होने से कौन बचाएगा? जाहरि है कि ऐसे में विचारों का स्वतंत्र प्रसारण संभव नहीं हो पाएगा। अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगने से वाद-विवाद की संकल्पना पर भी विराम लगेगा जिससे नये-नये तथ्य प्रकाश में नहीं आ सकेंगे।
हमें यह भी समझना होगा कि एक स्वतंत्र प्रेस के माध्यम से ही जनता तक सच को पहुंचाया जा सकता है, जिससे सही और संतुलित जनमत तैयार होने में मदद मिलती है। लेकिन, अगर ऐसा नहीं होता सका तो एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में ईमानदार और कर्मठ व्यक्ति के चुनाव की कोशिश भी जाती रहेगी। बहरहाल, देश के हुक्मरानों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे प्रेस और अभिव्यक्ति की आजादी के लिए स्वस्थ माहौल विकसित करने की भरसक कोशिश करें। सियासत से परे हट कर देशहित में कोशिश करनी होगी ताकि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को महफूज किया जा सके।
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