विश्लेषण : एक फीसद का राज!
नरेन्द्र मोदी की सरकार, एक फीसद की सरकार है।’ मोदी राज की इससे सटीक आलोचना दूसरी नहीं होगी। इसे रखा है समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने।
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बेशक, वामपंथी पार्टियों द्वारा तो शुरू से ही मोदी राज के कॉरपोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ का राज यानी मुट्ठीभर के लिए और मुट्ठीभर के ही शासन होने पर जोर दिया जाता रहा था। यहां तक कि मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी भी कम से कम दो-तीन साल से मोदी सरकार को ‘सूट-बूट की सरकार’ करार देकर इसके आम जनता से दूर होने को रेखांकित करते आ रहे थे।
बहरहाल, मोदी राज का यह चरित्रांकन उसके पांच साल के शासन की असली प्राथमिकताओं को ही नहीं, उसकी इस चुनाव की रणनीतियों को भी बखूबी उजागर करता है। मालेगांव के आतंकवादी विस्फोटों की आरोपी जमानत पर चल रही प्रज्ञा सिंह ठाकुर को प्रतिष्ठित भोपाल संसदीय सीट से उम्मीदवार बनाकर भाजपा ने चुनाव की अपनी रणनीति का खुलासा कर दिया है। मोदी-शाह-भागवत तिकड़ी की इस बार की चुनावी रणनीति के केंद्र में है, राष्ट्र और हिंदू समुदाय की असुरक्षा का हौवा खड़ा करना और पाकिस्तान, कश्मीर और मुसलमानों को ‘खतरा’ बनाकर पेश करना।
दूसरी ओर, खुद को राष्ट्र और हिंदू का सबसे बड़ा रखवाला और उसी के दूसरे पहलू के तौर पर अपने राजनीतिक विरोधियों को पाकिस्तानपरस्त, मुस्लिमपरस्त, हिंदूविरोधी और भारतविरोधी प्रचारित करना। और इस सब की आड़ में खास तौर पर मेहनत की रोटी खाने वाली जनता के पांच साल के इस वास्तविक अनुभव को बहस से बाहर ही करने की कोशिश करना कि मोदी सरकार सिर्फ एक फीसद की सरकार साबित हुई है। याद रहे कि यह वही सबसे संपन्न एक फीसद है, जिसका अगर 2014 में भारत में पैदा हुई कुल संपदा के 49 फीसद पर कब्जा था, मोदी राज के चार साल में यह हिस्सा बढ़कर, 2018 तक 73 फीसद पर पहुंच चुका था। मतदान के पहले दो चरणों के बीच आए सुप्रीम कोर्ट के दो महत्त्वपूर्ण निर्णयों ने मोदी राज के एक फीसद के लिए ही राज होने को उजागर करने का ठीक काम किया है। इनमें एक निर्णय तो सीधे-सीधे ‘एक फीसद’ के साथ मोदी राज के ‘खास’ रिश्ते से ही जुड़ा हुआ है। हमारा इशारा चुनावी बांड की मोदी सरकार द्वारा लाई गई और लागू की गई योजना की ओर है। खुद चुनाव आयोग द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार इस योजना के जरिए दिए गए कुल राजनीतिक चंदे का 99.8 फीसद हिस्सा, सबसे कीमती यानी दस लाख और एक करोड़ रुपये के बांडों की शक्ल में ही दिया गया है। इसके बाद यह मानने के लिए किसी सबूत की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि पूरी योजना ‘एक फीसद’ को अपने ऊपर पर बरसाई गई कृपा का बदला उतारने का मौका देने के लिए बनाई गई है।
अचरज की बात नहीं है कि खास तौर पर ‘एक फीसद’ धनपतियों के राजनीतिक चंदे को चुनाव आयोग तथा आयकर विभाग समेत हर प्रकार की निगरानी से ओझल ही बना देने की इस कपट योजना के बचाव में सरकार की ओर से एटॉर्नी जनरल ने बाकायदा दलील दी कि राजनीतिक पार्टियों के साथ धनपतियों के लेन-देन की गोपनीयता बनाए रखना जनतंत्र के लिए जरूरी है। उन्होंने न सिर्फ यह तर्क पेश किया कि, ‘मतदाताओं को इससे क्या लेना है कि (राजनीतिक पार्टियों के पास) पैसा कहां से आ रहा है?’ साफ तौर पर मोदी सरकार यह दलील दे रही थी कि उसे (और जाहिर है कि भविष्य में देश में जो भी पार्टी सरकार में आए उसे भी) धनपतियों से कितना भी और कैसा भी पैसा लेने की खुली छूट होनी चाहिए। महत्त्वपूर्ण रूप से इसमें विदेशी स्त्रोतों से चंदे लेने की छूट और फर्जी कंपनियां खड़ी कर के उनके नाम पर कितना ही चंदा दिखाने की छूटें शामिल हैं। याद रहे कि चुनावी बांड योजना के लिए विदेशी राजनीतिक चंदे पर लगी रोक और किसी कंपनी के अपने पिछले तीन साल के औसत मुनाफे का ज्यादा से ज्यादा 7 फीसद तक चंदा ही दे सकने की सीमा को हटा लिया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने अंतरिम फैसले में तत्काल राजनीतिक पार्टियों को चुनावी बांड के जरिए प्राप्त हुए चंदे से संबंधित तमाम विवरण सीलबंद लिफाफे में 30 मई तक चुनाव आयोग को देने का आदेश दिया ही है। शीर्ष न्यायालय ने कहा है कि इस पर बहस में उठे सवाल और गहरी छानबीन का तकाजा करते हैं। याद रहे कि कॉरपोरेट चंदों को पूरी तरह से गोपनीय बनाने की इस व्यवस्था के जरिए कॉरपोरेटों पर सरकार की कृपा के बदले में राजनीतिक घूस वसूल करने का एक पूरी तरह से वैध दरवाजा खोल दिया गया है। राफेल घोटाले में ‘मनी ट्रेल’ इसीलिए सामने आ ही नहीं सकती है क्योंकि बड़ी घूस के लेन-देन को अब चुनाव बांड के जरिए पूरी तरह से वैध ही बना दिया गया है। पिछले ही दिनों आया सुप्रीम कोर्ट का दूसरा महत्त्वपूर्ण फैसला राफेल सौदे के ही संबंध में है। इस सौदे के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के पिछले साल के आखिर के फैसले पर पुनर्विचार की याचिका को सरकार की ओर से इस आधार पर बिना विचार किए सीधे-सीधे खारिज किए जाने की मांग की जा रही थी कि नये तथ्य, सरकारी गोपनीयता कानून का उल्लंघन कर चोरी किए गए दस्तावेज पर आधारित हैं। अदालत चोरी से हासिल किए गए दस्तावेज का संज्ञान कैसे ले सकती है! बहरहाल, इस मामले में सामने आ चुकी सचाइयों को भी गोपनीयता कानून के डंडे से दबाने की सरकार के सर्वोच्च कानूनी अधिकारी की दलीलों को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया है, और जनता के जानने के अधिकार को सरकारी गोपनीयता कानून के ऊपर जगह दी है। और राफेल मामले में मोदी सरकार को कथित रूप से ‘क्लीन चिट’ देने वाले अपने ही फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए मंजूरी दे दी है।
साफ है कि मोदी राज के ‘एक फीसद’ का राज होने की हकीकत पर पर्दा डालना ज्यादा से ज्यादा मुश्किल हो जाता जा रहा है। करोड़ों के रोजगार, किसानों की पैदावार के जायज दाम, आम जनता के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा आदि सब इसी हकीकत की भेंट ही तो चढ़े हैं। यह सचाई जैसे-जैसे खुल रही है, वैसे-वैसे लोगों का ध्यान बंटाने के लिए नये-नये स्वांग रचे जा रहे हैं। पाकिस्तान, पुलवामा, बालाकोट तथा कश्मीर में ‘दो प्रधानमंत्री’ से गुजरते हुए ‘अली बनाम बजरंग बली’ से होकर ‘हिंदुओं का अपमान’ के स्वांग से बढ़कर अब बात आतंक के आरोपियों को शुभंकर बनाए जाने तक पहुंच गई है। इस सब में मोदी-शाह-भागवत तिकड़ी की हताशा साफ-साफ दिखाई दे रही है। पहले चरण में 17वीं संसद के छठे हिस्से के लिए हुए मतदान का स्पष्ट संदेश है-एक फीसद के राज पर बहुमत के हौसले झूठे हैं।
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