मुद्दा : फिर मार दी गई ईमानदारी
पंजाब की राजधानी चंडीगढ़ से सटे खरड़ शहर में विगत दिनों जोनल लाइसेंसिंग अथॉरिटी में अधिकारी नेहा शौरी की उनके दफ्तर में ही दिन दहाड़े गोली मार कर की गई।
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इस हत्या ने सत्येंद्र दुबे और मंजूनाथ जैसे ईमानदार सरकारी अफसरों की नृशंस हत्याओं की यादें ताजा कर दीं। नेहा बेहद मेहनती और कर्त्तव्यपरायण अधिकारी थीं। बेईमानों को छोड़ती नहीं थीं। इसका खमियाजा उन्हें जान देकर देना पड़ा। कहा जा रहा है कि 2009 में जब वह रोपड़ में तैनात थीं, उस दौरान उन्होंने आरोपित के मेडिकल स्टोर का घोर अनियमितताओं के चलते लाइसेंस कैंसिल कर दिया था। बदला लेने के लिए उन पर सुनियोजित हत्या के मकसद से हमला हुआ।
नेहा की हत्या ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि देश में ईमानदारी से काम करना कठिन होता जा रहा है। सत्य के साथ खड़ा होने वाले अफसरों का सरकार भी कभी अपेक्षित साथ नहीं देती। समाज भी आदर या सुरक्षा देने को तैयार नहीं। ईमानदार अफसरों को भटकना पड़ता है। भ्रष्ट राजनेताओं और उच्चाधिकारियों द्वारा प्रमोशन से अकारण वंचित किया जाता है। साथ ही ट्रांसफर की तलवार तो उन पर हमेशा लटकी रहती है। हरियाणा कैडर के आईएएस अशोक खेमका को न जाने कितनी ही बार यहां से वहां ट्रांसफर किया जाता रहा क्योंकि वे सच के साथ हमेशा खड़े होते हैं। इसलिए कि वह सही मायनों में सही है। इन परिस्थितियों में खेमका जैसे अफसर तो हमेशा परेशान ही रहेंगे। नेहा जैसे अफसर मारे ही जाते रहेंगे। विगत वर्ष हिमाचल प्रदेश के कसौली शहर में अवैध होटल और निर्माण सील करने पहुंची महिला अधिकारी शैलबाला की होटल मालिक ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। दोनों संगीन मामले पुख्ता सुबूत हैं कि समाज के शक्तिशाली वर्ग को कानून का भय नहीं रह गया है।
राम मनोहर लोहिया ने 21 दिसम्बर, 1963 को भ्रष्टाचार के खात्मे पर संसद में बहस में अति महत्त्वपूर्ण भाषण दिया था। कहा था, ‘सिंहासन और व्यापार के बीच संबंध भारत में जितना दूषित, भ्रष्ट और बेईमान हो गया है, उतना दुनिया के इतिहास में कहीं नहीं हुआ है। अंग्रेजों का लगान वसूलना हो या नेताओं की जेबें भरना हो, यह व्यवस्था तो वैसी ही रही। आका बदल गए, उनके रूप बदल गए पर विचार तो वहीं हैं। जनता का शोषण तब भी था, अब भी है। भ्रष्ट राजनीतिज्ञों ने लोक सेवा को ऐसा बना दिया है कि हमारी सामाजिक कल्याण की इच्छा शक्ति और श्रेष्ठ प्रशासन की भावनाएं ही खत्म होती जा रही हैं। हममें से कुछ लोगों का ध्यान केवल अपनी नौकरी, शानदार सरकारी सुख-सुविधाओं, विदेश भ्रमण और विलासिता-वैभव तक केंद्रित रह गया है।’ मैं डॉ. लोहिया के विचारों से शत-प्रतिशत सहमत हूं।
15 अगस्त, 1947 को सत्ता-परिवर्तन तो हो गया पर व्यवस्था-परिवर्तन कहां हुआ? जागरूक नागरिकों को याद ही होगा सत्येंद्र दुबे और मंजूनाथ की कहानी? सत्येंद्र दुबे नेशनल हाईवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया में प्रोजेक्ट डायरेक्टर थे। उन्होंने प्रधानमंत्री की महत्त्वाकांक्षी स्वर्णिम चतुर्भज सड़क योजना में व्याप्त भ्रष्टाचार को नजदीक से देखा। उन्होंने तब प्रधानमंत्री अटलबिहारी वापजेयी को एक सीलबंद चिट्ठी लिखी जिसमें योजना में व्याप्त करप्शन का पूरा कच्चा चिट्ठा था। इस पत्र को लिखने के कुछ दिनों बाद सत्येंद्र दुबे की हत्या हो गई थी।
अब बात कर लेते हैं 27 वर्षीय एस. मंजुनाथ की। वह उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन में मैनेजर के रूप में कार्यरत थे। तेरह सितम्बर, 2005 को पेट्रोल पंप मित्तल ऑटोमोबाईल का निरीक्षण करने के दौरान उन्हें गड़बड़ियां मिलीं। उनकी शिकायत पर पेट्रोल पंप को निलंबित कर दिया गया। उन्नीस नवम्बर को मंजुनाथ ने फिर वहां का निरीक्षण किया। लेकिन, इस बार पेट्रोल पंप मालिक के बेटे ने अपने साथियों के साथ मिलकर उनकी गोली मारकर दिन दहाड़े निर्ममता से हत्या कर दी। इसका खुलासा 20 नवम्बर को तब हुआ जब हाईवे पर पेट्रोलिंग करती पुलिस जीप ने एक मारु ति कार को पकड़ा जिसमें मंजुनाथ के शव के साथ अभियुक्त सवार थे, जो शव को कहीं ठिकाने लगाने जा रहे थे। यानी ईमानदारी और कर्त्तव्यपरायणता की कीमत ईमानदार अफसर बार-बार चुका ही रहे हैं। दरअसल, जिनमें कर्त्तव्यपरायणता का गुण होगा, वे तो हर दौर में सामने आते रहेंगे। पर क्या हमारा समाज भी कभी इन कर्त्तव्यपरायण सरकारी अफसरों को सम्मान दे पाएगा? क्या सरकारी तंत्र इनको कभी पर्याप्त तरजीह और सुरक्षा मुहैया करा पायेगा? इन प्रश्नों को कभी हमें खुद से पूछना चाहिए।
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