विरासत : आडवाणी होने की चुनौती

Last Updated 01 Apr 2019 04:42:25 AM IST

लोकसभा चुनाव पर गहरी नजर रखने वाले विश्लेषकों को भी यह याद नहीं होगा कि गुजरात के गांधीनगर संसदीय क्षेत्र से नामांकन दाखिल करते समय इससे पहले कभी नेताओं का इतना बड़ा जमावड़ा हुआ होगा।


विरासत : आडवाणी होने की चुनौती

भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के नामांकन में पार्टी के दो पूर्व अध्यक्षों के साथ राजग के कई बड़े नेता शामिल हुए। चूंकि अमित शाह भाजपा के अध्यक्ष हैं, इसलिए उनके नामांकन को राष्ट्रीय सुर्खियां बनाने की कोशिश अस्वाभाविक नहीं मानी जा सकती। अमित शाह के हवाई अड्डे से लेकर गांधीनगर पहुंचने तक कार्यकर्ताओं की उमड़ी भीड़ और उनके उत्साह प्रदर्शन को भी इस मायने में सहज माना जा सकता है। अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे नेताओं के नामांकन को भी प्रभावी बनाने की पूरी कोशिश होती थी। 2014 में आडवाणी के नामांकन में स्वयं नरेन्द्र मोदी अपने प्रचार अभियान से समय निकालकर आए थे। शीर्ष नेताओं के नामांकन को इसी तरह जनाकषर्क बनाने की कोशिश सभी पार्टयिां करती हैं। इससे देशव्यापी संदेश जाता है और पार्टी कार्यकर्ताओं-समर्थकों का मनोविज्ञान प्रभावित होता है।

किंतु अमित शाह के नामांकन का राष्ट्रीय राजनीति और भाजपा के लिए कुछ दूसरे महत्त्वपूर्ण संकेत भी हैं। अमित शाह पहली बार लोक सभा चुनाव लड़ रहे हैं और वह भी गांधीनगर सीट से जिसका प्रतिनिधित्व 1991 से लालकृष्ण आडवाणी कर रहे थे। 1991 में आडवाणी का कद रामरथ यात्रा के बाद पार्टी एवं देश में अटल बिहारी वाजपेयी से भी बड़ा हो गया था। 1996 में जब हवाला कांड में नाम आने के कारण आडवाणी चुनाव नहीं लड़े तो प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित हो चुके वाजपेयी वहां से उम्मीदवार हुए। केवल इसलिए कि लोगों की नजर में वह भाजपा के लिए महत्त्वपूर्ण संसदीय क्षेत्र बना रहे। इससे पहला निष्कर्ष यही निकलता है कि पार्टी में नेतृत्व के सम्पूर्ण हस्तांतरण के साथ अगली पीढ़ी के स्थानापन्न का भी संकेत दिया जा रहा है। यानी मोदी अगर वाजपेयी के स्थान पर विराजमान हैं तो शाह आडवाणी के उत्तराधिकारी बन रहे हैं। हालांकि आडवाणी और वाजपेयी पार्टी के सर्वस्वीकृत स्वाभाविक नेता थे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पूरी स्वीकृति उनको प्राप्त थी। वाजपेयी पं. दीनदयाल उपाध्याय एवं बलराज मधोक के काल में ही पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में शुमार हो चुके थे। आडवाणी का उस श्रेणी में प्रवेश बाद में हुआ। किंतु उपाध्याय की हत्या के बाद इन दोनों के नाम से ही पहले जनसंघ तथा बाद में भाजपा को देश जानता था। जोशी भी जनसंघ से ही पार्टी के नेता रहे, पार्टी अध्यक्ष भी बने, पर उनका कद कभी इतना बड़ा नहीं हुआ।
इस पृष्ठभूमि में विचार करें। नरेन्द्र मोदी तो भाजपा के सर्वस्वीकृत और स्वाभाविक नेता बन चुके हैं पर अमित शाह के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। वे राष्ट्रीय राजनीति में मोदी द्वारा लाए गए और अध्यक्ष बनाए गए हैं। अमित शाह अध्यक्ष अवश्य हैं, लेकिन अभी तक उनका कद वह नहीं बना है, जो वाजपेयी के बाद आडवाणी का था। इसलिए गांधीनगर से उम्मीदवार घोषित कर एक संदेश तो दे दिया गया कि वे पार्टी में दूसरे स्थान के नेता हैं। पर इतने मात्र से सर्वस्वीकृति का संदेश नहीं निकल सकता था। इसलिए पार्टी के दो पूर्व अध्यक्षों नितिन गडकरी एवं राजनाथ सिंह के साथ दो सबसे पुराने साथी शिवसेना एवं अकाली दल के दोनों प्रमुख नेताओं उद्धव ठाकरे और प्रकाश सिंह बादल को भी वहां आमंत्रित किया गया। रामविलास पासवान भी पहुंचे जो इस समय गठबंधन के एक प्रमुख घटक हैं। कोशिश नीतीश कुमार को लाने की भी थी। इन नेताओं का उनके नामांकन में आना और वहां प़क्ष में बोलने से यह संदेश निकला कि अमित शाह की स्वीकृति भाजपा के साथ राजग में भी हो चुकी है। भाजपा के दो पूर्व अध्यक्ष यदि मंच से अमित शाह के संगठन कौशल का प्रमाण पत्र दे रहे हैं तो इससे ज्यादा और क्या चाहिए? नितिन गडकरी ने कहा कि अमित भाई के काल में ही हमारी पार्टी दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बनी। इसी तरह भाजपा के अछूत काल के दो पुराने साथी अगर आकर अमित शाह की प्रशंसा कर रहे हैं, दूसरे साथियों को मिलाकर चलने के उनके व्यवहार को जनता के समक्ष रख रहे हैं तो इसका संदेश साफ है-अमित शाह को दूसरी पीढ़ी के पार्टी के दूसरे नंबर के नेता के रूप में स्वीकृत कराना। यह काम लगभग पूरा हो गया है।
भाजपा एवं भारतीय राजनीति के लिए इसका महत्त्व समझना कठिन नहीं है। भाजपा के दूसरे क्रम के नेता की भूमिका चाहे पार्टी सत्ता में रहे या विपक्ष में आने वाले कुछ वर्षो तक तो भारतीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण रहेगी। तो क्या यह मान लिया जाए कि मोदी अमित शाह को अपने उत्तराधिकारी के रूप में खड़ा करने का मन बना चुके हैं? सारे घटनाक्रम उसी दिशा में संकेत दे रहे हैं। हालांकि वर्तमान वैचारिक-राजनीतिक परिस्थितियों में आडवाणी का स्थानापन्न आसान नहीं है। आडवाणी का उभार तब हुआ, जब भाजपा की सत्ता को देश ने देखा नहीं था। उन्होंने पूरे संघ परिवार की सोच, रणनीति एवं प्रबंधन से भाजपा को वैचारिक धार दिया और उसे जनसमर्थन मिलता गया। तब से वे संगठन परिवार के भी सबसे प्रिय नेता बन गए। अब लोगों ने भाजपा को केन्द्र से प्रदेश तक सत्ता में देखा है। उसके बारे में सकारात्मक-नकारात्मक धारणाएं बन चुकी हैं। आडवाणी विपक्ष के नेता के रूप में उभरे। अमित शाह सत्तारूढ़ दल के नेता हैं। भले भाजपा सत्ता के माध्यम से विचारधारा पर मुखर होकर काम नहीं करे, लेकिन इसी आधार पर तीखी लड़ाई देश में चल रही है। इस वैचारिक लड़ाई के बीच अपने समर्थकों का विश्वास बनाए रखने तथा विरोधियों का डटकर सामना करने की बड़ी चुनौती उनके सामने है। गांधीनगर में यदि वे विजयी होते हैं और पार्टी सत्ता में पहुंचती है तब यह पता चलेगा कि वाकई इन चुनौतियों का सामना वे मोदी के साथ कैसे करते हैं। यदि पार्टी सत्ता से वंचित होती है तो वे फिर से वैचारिक धार को जगाकर किस तरह मोदी और अपनी टीम के साथ भाजपा की दिशा-दशा तय करते हैं। यह सब करते हुए वाजपेयी के सहयोगी माने गए आडवाणी ने लंबे समय के लिए बिल्कुल अपना अलग व्यक्तित्व भी खड़ा किया। शाह वैसा कर पाएंगे? वैसे अभी यह स्पष्ट नहीं है कि संघ ने उनको मोदी बाद भाजपा का भावी नेता माना है या नहीं।

अवधेश कुमार


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