महिला आरक्षण : पहल पर अमल करें
ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने घोषणा की है कि हम एक तिहाई सीटें महिला प्रत्याशियों को देंगे।
महिला आरक्षण : पहल पर अमल करें |
प्रगतिशील दृष्टि से यह घोषणा क्रांतिकारी है और उससे देश के दूसरे राजनीतिक दलों पर भी दबाव बनेगा कि वे भी अपने प्रत्याशियों के चयन में महिला प्रत्याशियों को वरीयता दें। सत्रहवीं लोक सभा चुनाव में देश के 90 करोड़ मतदाताओं को भाग लेने का मौका मिलेगा, इनमें से करीब आधी महिला मतदाता हैं। पर व्यावहारिक राजनीति इस आधार पर नहीं चलती। आने दीजिए पार्टयिों की सूचियां, जिनमें पहलवानों की भरमार होगी। राजनीति की सफलता का सूत्र है ‘विनेबिलिटी’ यानी जीतने का भरोसा। यह राजनीति पैसे और डंडे के जोर पर चलती है।
पिछले लोक सभा चुनाव के परिणामों के विश्लेषण से एक बात सामने आई कि युवा और खासतौर से महिला मतदाताओं ने चुनाव में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यह भूमिका इस बार के चुनाव में और बढ़ेगी, पर राजनीतिक जीवन में उनकी भागीदारी आज भी कम है। कमोबेश दुनियाभर की राजनीति पुरुषवादी है, पर हमारी राजनीति में स्त्रियों की भूमिका वैश्विक औसत से भी कम है। सामान्यत: संसद और विधानसभाओं में महिला सदस्यों की संख्या 10 फीसद से ऊपर नहीं जाती। सोलहवीं लोक सभा के 542 सदस्यों में से स्त्री सदस्यों की संख्या 64 यानी कि 11.8 फीसद तक पहुंची। शुरुआती वर्षो में स्थिति और भी खराब थी। सन 1952 में पहली लोक सभा में केवल 4.4 फीसद महिला सदस्य थीं। सन 1977 में केवल 3.5 फीसद महिला सदस्य ही थीं। भारत के मुकाबले अफगानिस्तान की संसद में 27.7, पाकिस्तान में 20.6, बांग्लादेश में 19, नेपाल में 30 और सऊदी अरब की संसद में 19.9 फीसद महिलाएं हैं।
वैश्विक औसत 21 से 22 फीसद का है। इंटर पार्लियामेंट्री यूनियन की एक रिपोर्ट के अनुसार जन-प्रतिनिधित्व में स्त्रियों की भूमिका के लिहाज से भारत का दुनिया के देशों में 148वां स्थान है। इस विषय पर आगे बात करने से पहले नवीन पटनायक की पहल पर नजर डालें। पटनायक उस महिला आरक्षण विधेयक के पक्ष में थे, जो संसद से आज तक पास नहीं हो पाया है। सन 1996 से 2008 तक संसद में चार बार महिला आरक्षण विधेयक पेश किए गए हैं, पर राजनीतिक दलों ने उन्हें पास होने नहीं दिया। नवीन पटनायक को कम-से-कम इस बात का श्रेय दिया जा सकता है कि उन्होंने इसे दूसरे रास्ते से लागू करने की कोशिश की है। ओडिशा विधानसभा महिला आरक्षण के पक्ष में सर्वानुमति से एक प्रस्ताव पास करके केंद्र से मांग कर चुकी है कि स्त्रियों को जन-प्रतिनिधित्व में 33 फीसद आरक्षण दिया जाए। ओडिशा की कुल 21 लोक सभा सीटों में से पिछली बार 20 पर बीजू जनता दल को विजय मिली थी। इनमें केवल तीन महिला सदस्य थीं। एक तिहाई के वायदे को पूरा करने के लिए इस बार बीजद को 21 में से सात पर महिला प्रत्याशियों को टिकट देना होगा। सात महिला प्रत्याशी खड़े करने के लिए उन्हें कम-से कम तीन ऐसे प्रत्याशियों का पत्ता काटना होगा, जो पिछली बार जीते थे।
बैजयंत पांडा पहले से हट चुके हैं, इसलिए यह संख्या तीन है वरना चार होती। यह काम अपेक्षाकृत सरल है। ज्यादा मुश्किल काम तब होता, जब वे विधानसभा चुनाव में भी एक तिहाई महिलाओं को टिकट देने की घोषणा करते। पार्टयिों के प्रत्याशियों का चयन करते समय आंतरिक कोटा तय करने की बात आकषर्क जरूर है, पर व्यावहारिक रूप से यह भी काफी मुश्किल काम है। दिसम्बर के महीने में जब संसद में ट्रिपल तलाक विधेयक पर विचार चल रहा था, तब ममता बनर्जी ने कहा था कि राजनीतिक दलों को संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को 33 फीसद आरक्षण दिया जाना चाहिए। सच यह है कि ममता ने अपनी पार्टी में 33 फीसद सीटें महिलाओं को देने का फैसला नहीं किया है। सच यह है कि कांग्रेस और बीजेपी दोनों इस आरक्षण के पक्ष में हैं। दोनों चाहें तो यह विधेयक पास हो सकता है, पर पास नहीं होता। सवाल है कि ऐसा क्यों नहीं हो पाता है? 24 अप्रैल 1993 को भारत में संविधान के 73वें संशोधन के आधार पर पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दरजा हासिल कराया गया। यह फैसला ग्राम स्वराज के स्वप्न को वास्तविकता में बदलने की दिशा में एक कदम था, पर उतना ही महत्त्वपूर्ण महिलाओं की जीवन में भागीदारी के विचार से था। इसमें महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटों के आरक्षण की व्यवस्था थी। यह कदम क्रांतिकारी साबित हुआ। पंचायत राज में अब दूसरी पीढ़ी की युवा लड़कियां सामने आ रहीं हैं। महिलाओं की भूमिका में युगांतरकारी बदलाव आया है। अब यह आरक्षण 50 प्रतिशत हो रहा है।
जब स्थानीय निकायों में आरक्षण से बदलाव आया है, तो राष्ट्रीय स्तर पर क्यों नहीं? पार्टयिों के भीतर क्रमिक रूप से स्त्रियों के महत्त्व को स्थापित करने और सीटों के आवंटन में उन्हें वरीयता देने से ही अब यह काम होगा। दुनिया के कई देशों में इसे सफलता भी मिली है। मसलन स्वीडन की संसद में सीटों का कोटा नहीं है, बल्कि पार्टयिों के भीतर कोटा है। वहां संसद में 47 फीसद स्त्रियों की उपस्थिति है। अज्रेटीना में सीटों का भी कोटा है और पार्टयिों के भीतर भी कोटा है। वहां 40 फीसद स्थान स्त्रियों के पास है। नॉर्वे की संसद में 36 फीसद महिला सदस्य हैं। इस काम के लिए स्त्रियों की पहल और सामाजिक समर्थन की जरूरत भी है। हमारे यहां पहिया उल्टा घूम रहा है।
पहले राजनीति में साफ छवि के लोग जाते थे। अब अपराधियों की भूमिका बढ़ रही है। इस वजह से एक बड़ा तबका राजनीति को अच्छी निगाहों से नहीं देखता, खासतौर से स्त्रियां। जब महिलाएं बैंकों, कॉरपोरेट हाउसों, कारखानों, प्रयोगशालाओं, सेना, हवाई जहाजों, रेल-इंजनों और मीडिया हाउसों का संचालन कर रहीं हैं, तो वे संसद और विधानसभाओं की कार्य-पद्धति में भी क्रांतिकारी बदलाव ला सकतीं हैं। सत्ता के केंद्र की चाभी स्त्रियों के हाथ में लगेगी, तभी बड़े बदलावों की उम्मीद करनी चाहिए। जन-प्रतिनिधि के रूप में ही स्त्रियां उन संरचनात्मक अवरोधों को गिराएंगी, जो समस्या के रूप में हमारे सामने खड़े हैं। पर यह काम एकतरफा तरीके से नहीं हो सकता। नवीन पटनायक की इस पहल से कोई बड़ी उम्मीद नहीं लगाई जा सकती। इसे महिला वोटरों को खुश करने की कोशिश कह सकते हैं। फिलहाल इतना ही काफी है।
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