खान-पान : बच्चों की सेहत से खिलवाड़

Last Updated 13 Mar 2019 04:19:04 AM IST

मशहूर कवि केदारनाथ अग्रवाल ने ‘अंडे पे अंडा’ कविता लिखते समय जब सरकार की ताकत आजमाइश पर व्यंग्य किया था, तब कहां सोचा था कि अंडा सचमुच राजनीतिक हथकंडा बन जाएगा।


खान-पान : बच्चों की सेहत से खिलवाड़

मांसाहार-शाकाहार पर समुदायों की गोलबंदी की जाएगी। अंडा यह सब कर रहा है। धार्मिंक आस्था के नाम पर लोगों को अंधकूप में धकेल रहा है। इसीलिए कई राज्यों के स्कूली मिड डे मील से अंडा गायब है। इन राज्यों में भाजपा की भी सरकार है, दूसरी पार्टयिों की भी।
शाकाहारी मतदाताओं का पूरा ख्याल रखना है, और अपना भी। भले ही ऐसे मतदाताओं का प्रतिशत सिर्फ 21 प्रतिशत हो। फूड एक्टिविस्ट्स अंडे के पक्ष में दलील दे रहे हैं, सर्वोच्च न्यायालय साफ कह रहा है कि राज्य हफ्ते में एक की बजाय कम से कम तीन दिन अंडा या दूध जरूर सप्लाई करें। लेकिन सरकारें टस से मस नहीं होतीं। बिहार सरकार को तो सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में आड़े हाथों लिया है। एक गैर-सरकारी संगठन की याचिका पर अदालत ने राज्य सरकार से पूछा है कि अपने स्कूलों में बच्चों को हफ्ते में सिर्फ एक उबला अंडा क्यों खिला रही है?
यह अंडा राजनीति का दौर है। उत्तर प्रदेश से लेकर मध्य प्रदेश और राजस्थान से लेकर दिल्ली और मिजोरम तक बच्चों को अंडे खिलाने से परहेज करते हैं। बिहार के बाद देश के सबसे अधिक कुपोषित बच्चों वाले राज्य उत्तर प्रदेश में सरकार हर साल ‘पवित्र महीनों’ के दौरान ‘पवित्र नगरियों’ में मांसाहार बेचने पर पाबंदी लगा देती है। हालांकि राज्य की आधी से अधिक आबादी शाकाहारी और अंडाहारी है, फिर भी बच्चों को स्कूलों में अंडे नहीं दिए जाते। मध्य प्रदेश में जैन संतों के दबाव में पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बच्चों की थाली में अंडे परोसने से इनकार कर दिया था। अब कांग्रेस की सरकार है, पर फिलहाल अंडा थाली तक नहीं पहुंचा है।

दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने बच्चों को अंडे और केले खिलाने के चुनावी वादे को अब तक पूरा नहीं किया है। झारखंड सरकार को बच्चों को हफ्ते में तीन अंडे खिलाना महंगा पड़ रहा है। वह अब दो अंडे ही खिला रही है। महाराष्ट्र सरकार 16 आदिवासी जिलों में एपीजे अब्दुल कलाम अमृत योजना के तहत तो अंडे खिला रही है, लेकिन स्कूलों में बच्चे दोपहर को सिर्फ शाकाहारी खाना खाते हैं। राजस्थान, गुजरात, हरियाणा और पंजाब जैसे राज्यों में शाकाहारी लोग बड़ी संख्या में हैं। आधे से ज्यादा आबादी अंडे या मांसाहारी खाना नहीं खाती। इसीलिए यहां बच्चों को दूध दिया जाना जरूरी है। इनमें हरियाणा मिड डे मील में दूध और पंजाब खीर परोसता है। पर गुजरात अपवाद है। अमूल और दुग्ध क्रांति के बावजूद स्कूलों में बच्चों को दूध नहीं दिया जाता। 
मशहूर अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने अपने लेख ‘कास्ट, क्लास एंड एग्स’ में लिखा है कि अंडा खिलाने से परहेज करना, जाति और वर्ण से भी ताल्लुक रखता है। खाने की च्वाइस और उसकी शेयरिंग पर पाबंदी लगाने से एक तरह से जाति व्यवस्था मजबूत होती है। जो ऐसी पाबंदी लगाता है, वह खुद प्रिविलेज्ड क्लास का होता है। उसका फायदा इसी में होता है कि जाति व्यवस्था कायम रहे। अंडा खाना क्यों जरूरी है? इसलिए कि भारत में कुपोषित बच्चों की संख्या सबसे अधिक है। नियमित अंडा खाने से उनके विकास में मदद मिलती है। उन्हें मिड डे मील में अंडे इसलिए खिलाए जाने चाहिए कि इससे स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति बढ़ती है। फिर पोल्ट्री स्थानीय रोजगार का भी जरिया है, जिसमें ग्रामीण परिवार और महिलाओं के स्वयंसहायता समूह शामिल होते हैं। इससे स्वरोजगार को बढ़ावा मिलता है। अंडे खिलाना सुरक्षित भी है। उसमें फूड प्वाइजनिंग का खतरा नहीं होता। दूध जल्दी खराब हो जाता है, और उसे बांटना मुश्किल भी होता है। यूं दूध कितना शाकाहारी है, इसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तक तय नहीं कर पाए थे। वह दूध को भी मांसाहारी ही मानते थे।
अंडा इसलिए जरूरी है कि पिछले साल मिड डे मील पर एक सरकारी संयुक्त समीक्षा मिशन कह चुका है कि हमारे देश में 40% बच्चे खाली पेट स्कूल आते हैं। अक्सर उनका पहला भोजन मिड डे मील ही होता है। इसे पौष्टिक होना ही चाहिए। लेकिन शाकाहारी जनसंख्या वाले मॉडल को जगह-जगह लागू किया जाएगा तो इसी तर्क के आधार पर कहीं अल्पमत में रहने वाले शाकाहारी और कहीं अल्पमत में रहने वाले मांसाहारी लोगों को अपने संविधान प्रदत्त अधिकार को अमल में लाने में मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। कम से कम इस अंडा राजनीति से बच्चों के स्वास्थ्य को तो दूर ही रखा जाना चाहिए। अच्छी सेहत की गारंटी संविधान प्रदत्त अधिकार ही तो है।

माशा


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