मुद्दा : कॅरियर काउंसलर से सावधान
देश भर के स्कूलों में इम्तिहानों का समय एक बार फिर शुरू हो गया है। 10 वीं और 12 वीं की बोर्ड की परीक्षाओं में पूरी तैयारी के साथ देशभर में लाखों बच्चे भाग ले रहे हैं।
मुद्दा : कॅरियर काउंसलर से सावधान |
इन परीक्षाओं के नतीजों से ही इन नौनिहालों के भविष्य का रास्ता साफ होगा। कुछ हफ्तों के बाद परीक्षाओं के परिणाम भी घोषित होने लगेंगे। आप देखेंगे कि जैसे ही नतीजे घोषित होंगे बस तब ही अपने को कॅरियर काउंसलर कहने वाले हजारों लोग सामने आ जाएंगे। ये दावा करेंगे कि अधिक अंक लेना ही काफी नहीं है। ये परीक्षाओं में उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वालों की उपलब्धियों को खारिज करते हुए आगे बढ़ेंगे। इनसे पूछो कि यदि शानदार अंक लेना व्यर्थ ही है तो फिर परीक्षाओं में अंक देने का झमेला ही खत्म कर देना चाहिए।
ये ठीक है कि जो परीक्षाओं में टॉपर नहीं होते हैं, वे भी कॅरियर की दौड़ में आगे बढ़ते हैं। उन्हें भी सफलता मिलती है क्योंकि जीवन में हरेक इंसान को आगे बढ़ने के तमाम अवसर मिलते ही रहते हैं। इस तरह के उदाहरणों की कोई कमी भी नहीं है। सचिन तेंदुलकर से लेकर बिल गेट्स का स्कूल में कोई बहुत चमकदार प्रदर्शन नहीं रहता था। तो क्या ये अपने या दूसरों के बच्चों को अच्छे अंक हासिल लेने के प्रति प्रेरित नहीं करते? क्या ये कम अंक लेने वाले बच्चों से अधिक प्रभावित होते होंगे? देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और उनके उतराधिकारी सर्वपल्ली राधाकृष्णन पहली कक्षा से लेकर अपने कॉलेज और यूनिर्वसटिी में सदैव शिखर पर ही रहे। तो क्या इनकी या इन जैसे मेधावी इनसानों की उपलब्धियों को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया जाए? यह तो कोई नहीं कह रहा कि कम अंक लाने या फिर फेल होने का अर्थ है सभी संभावनाओं का अंत हो जाना। इसका यह भी मतलब नहीं है कि कोई निराशा के सागर में गोते लगाने लगे। पंखे से लटककर आत्महत्या कर ले! परीक्षा में कम अंक लाने या फेल होने पर आत्म हत्या करना भी सरासर कायरता है।
पर अगर किसी के कम अंक आएं हैं तो उसे यह तो समझना ही होगा कि यह क्यों हुआ? उसे जानना-समझना होगा कि उसके अधिक अंक लेने वाले साथियों ने उसकी तुलना में कैसे बढ़त बनाई। यह माना जाना चाहिए कि परीक्षा भी एक प्रतियोगिता की तरह ही है। जैसे हम क्रिकेट, फुटबॉल, हॉकी या किसी अन्य खेल के मुकाबले में सिर्फ जीत के लिए मन बनाकर भाग लेते हैं, वैसे ही हमारा लक्ष्य परीक्षा में सिर्फ शिखर पर पहुंचने का होना चाहिए। हिंदी पट्टी के कमोबेश सभी राज्यों से ये खबरें आती रहती हैं कि बोर्ड की परीक्षा में सख्ती के कारण हजारों बच्चे परीक्षा केंद्र में पहुंचे ही नहीं। तो क्या अब भी हमारे यहां लाखों बच्चे नकल के सहारे ही किसी परीक्षा में पास हो जाने का ख्वाब देखते हैं? यदि देखते हैं तो यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। बेशक, सभी परीक्षार्थी तो टॉप नहीं कर सकते। कुछ तो फेल होंगे ही। यह भी सच है कि सभी बच्चे एक जैसे मेधावी भी नहीं होते। पांचों उंगलियां बराबर नहीं होतीं पर महत्त्व तो सबका ही है। पर इसके साथ ही ये सच है कि मेहनत से बहुत से बच्चे पहले की अपेक्षा बेहतर अंक लेने लगते हैं। यहां पर खेलों का भी उदाहरण देना समीचीन होगा। भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान विराट कोहली के बारे में क्रिकेट समीक्षक मानते हैं कि उन्होंने कड़ी मेहनत और लगन के सहारे ही अपने को सिद्ध किया। वे सचिन तेंदुलकर या ब्रायन लारा की तरह संभावनाओं से लबरेज नहीं थे। पर उन्होंने मेहनत के बल पर और अपनी कमियों में सुधार करके अपने लिये एक मुकाम हासिल कर लिया। बहुत साफ है कि यदि कोई चाहे तो वह अपने में लगातार सुधार करता रह सकता है। वह परीक्षाओं में बेहतर प्रदर्शन भी कर सकता है।
मिडिल की परीक्षा हो या मैट्रिक या फिर सिविल सर्विसेज की, उनमें टॉप करना या शानदार अंकों से सफल होना सदैव ही महत्त्वपूर्ण बना रहेगा। इस मसले पर गैर-जरूरी बहस से बचा ही जाना चाहिए। अच्छे अंक लेने का एक ही रास्ता है नियमित तरीके से पठन-पाठन। आपको कड़ी मेहनत करनी होती है। आप पूर्व में किसी खास परीक्षा में टॉपर रहे विद्यार्थियों से पूछिए कि वे इतने बेहतरीन अंक कैसे प्राप्त कर सके? यकीन मानिए कि सबके उत्तर एक ही होंगे। सब ये ही कहेंगे कि उन्होंने दिन-रात पढ़ाई की। इसलिए ही उन्हें अभूतपूर्व सफलता मिली। देखा जाए तो परीक्षार्थी का एकमात्र लक्ष्य शिखर को छूना ही होना चाहिए। इम्तिहान में मात्र उत्तीर्ण होने में क्या आनंद? उत्तीर्ण तो बहुत होते हैं, टॉपर गिनती के ही होते हैं। टॉपर बनिए। प्रयास करने में क्या हर्ज है?
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