अर्थव्यवस्था : चुनावी समर में नई चुनौतियां
चुनावी मौसम में भाजपा नीत मोदी सरकार अपने विकास कार्यों को सबसे बड़े हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रही है। जनता के बीच जाकर पार्टी इसी मुद्दे पर वोट मांग रही है।
अर्थव्यवस्था : चुनावी समर में नई चुनौतियां |
इस दरम्यान आर्थिक विकास को जो आंकड़े आए हैं, उनसे सरकार को बड़ा झटका लगा है। चालू वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर धीमी पड़कर 6.6 फीसद रही है। आर्थिक वृद्धि दर का यह आंकड़ा पिछली पांच तिमाहियों में सबसे कम है। इसके बावजूद भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बना हुआ है। इस मामले में अपने प्रतिद्वंद्वी चीन की आर्थिक वृद्धि दर अक्टूबर-दिसम्बर तिमाही में 6.4 फीसद रही है।
चिंता की बात यह है कि तीसरी तिमाही का आंकड़ा सरकार के 6.7 फीसद के अनुमान से कम है। इस वजह से उसे वित्त वर्ष 2018-19 के लिए अपने विकास दर के अनुमान को 7.2 फीसद की तुलना में घटाकर सात फीसद करना पड़ा है। इससे पिछले वित्त वर्ष में देश की जीडीपी वृद्धि 7.2 फीसद रही थी। चुनावी समर के दौरान अर्थव्यवस्था में सुस्ती के आंकड़ों ने सरकार की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। आर्थिक वृद्धि के आंकड़ों पर विपक्षी दल हमलावर हो गए हैं। इनकी ओर से बार-बार यही सवाल पूछा जा रहा है कि मोदी सरकार रोजाना देश में विकास की गंगा बहने का दावा कर रही है तो फिर आर्थिक वृद्धि दर में गिरावट क्यों आ रही है ? देखा जाए तो विपक्ष के इस सवाल में दम भी है। आर्थिक विकास दर के आंकड़ों की गणना पिछले साल के प्रदर्शन के आधार पर की जाती है। यह सच है कि पिछले साल की तुलना में तीसरी तिमाही की जीडीपी में कमी आई है। सरकार इस आंकड़े को किसी भी सूरत में झुठला नहीं सकती क्योंकि यह उसी के द्वारा जारी किए गए हैं।
सरकार की चिंता की यही सबसे बड़ी वजह है क्योंकि चुनाव प्रचार के दौरान विपक्षी दल इस मुद्दे पर सरकार को घेरने के लिए सवालों की बौछार करेंगे। सरकार के थिंक टैंक ने विपक्षी हमलों के बचाव के लिए निश्चित तौर तैयारी की होगी। इस बीच उम्मीद की किरण यह है कि तीसरी तिमाही में अचल पूंजी निर्माण की वृद्धि दर 10.6 फीसद के स्तर पर मजबूत रही। हालांकि सीएसओ ने इसमें पूरे वित्त वर्ष के लिए 10 फीसद की वृद्धि का अनुमान लगाया है, जो इस बात का संकेत है कि सकल अचल पूंजी निर्माण के निवेश में भी मंदी की आशंका है। इसके दो प्रमुख कारण हैं। पहला, आम चुनाव से पहले आचार संहिता की बंदिशें और दूसरा गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) में नकदी का संकट। हालांकि ये दोनों ही समस्याएं अस्थायी हैं। यदि चुनाव के बाद केंद्र में मजबूत सरकार गठित होती है तो ये दोनों ही समस्याएं जल्द दूर हो सकती हैं, जिसका अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। हमारी क्षमता का उपयोग अब भी 74.8 फीसद पर टिका हुआ है, जबकि इसमें वृद्धि की अच्छी संभावनाएं हैं। क्षमता के उपयोग में वृद्धि से विकास दर को रफ्तार दी जा सकती है। विशेष रूप से बुनियादी ढांचा क्षेत्र को इसकी खासी जरूरत है। अर्थव्यवस्था में कुछ ऐसे कारक हैं, जो सरकार की पेशानी पर बल डाल रहे हैं।
केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) के चालू वित्त वर्ष के लिए दूसरे अग्रिम अनुमान के अनुसार पूरे वित्त वर्ष के दौरान कृषि क्षेत्र की विकास 2.7 फीसद रहेगी, जो इससे पिछले वित्त वर्ष में पांच फीसद थी। वोट बैंक की दृष्टि से यह सरकार के लिए सबसे बड़ी चिंता का विषय है। देश की कुल निजी खपत में ग्रामीण क्षेत्र का 45 फीसद योगदान है। हालांकि कृषि क्षेत्र अब ग्रामीण विकास का एकमात्र चालक नहीं रह गया है। फिर भी यह अर्थव्यवस्था का महत्त्वपूर्ण अंग है, जो देश में 42 फीसद आबादी की रोजी-रोटी का जरिया है और जीडीपी में इसका 15.5 फीसद योगदान है। कृषि क्षेत्र की विकास में गिरावट का सीधा अर्थ है कि खेती पर निर्भर लोग विकास में बाकी आबादी से पिछड़ रहे हैं। ऐसे में कृषि को संरचनात्मक सुधारों की जरूरत है। इनके जरिए ही इस क्षेत्र को पटरी पर लाया जा सकता है। दूसरी ओर, वैश्विक अर्थव्यवस्था में मंदी की आहट तेज हो गई है। हाल के दिनों में अमेरिकी अर्थव्यवस्था के जारी हुए आंकड़ों से मंदी की आशंकाओं को बल मिला है। चीन के घटनाक्रम के बाद घरेलू अर्थव्यवस्था की चिंताएं और बढ़ गई हैं। आर्थिक सुस्ती को दूर करने के लिए चीन ने प्रोत्साहन के रूप में कई उपाय किए हैं। यह हालात सिर्फ चीन के ही नहीं है। यूरो जोन की अर्थव्यवस्था भी संकट के दौर से गुजर रही है। यहां की जीडीपी में 1.1 से 1.7 फीसद की वृद्धि का अनुमान लगाया गया है। यहां के केंद्रीय बैंक ने सात मार्च को बड़े उपायों का ऐलान किया है। यूरो जोन की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वर्ष 2018 की चौथी तिमाही में मंदी के दौर से बमुश्किल बच पाई है।
भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए कच्चे तेल की कीमतें खतरा बनी हुई हैं। हालांकि नवम्बर में ब्रेंट क्रूड 100 डॉलर प्रति डॉलर की ओर पहुंचा था जो अब काफी नीचे आ गया है। इससे सरकार को अपनी वित्तीय सेहत सुधारने में काफी हद तक मिली है, लेकिन ओपेक के उत्पादन में कटौती के संकेतों से तेल की कीमतें फिर से बढ़ सकती हैं। इन तमाम जोखिमों के बावजूद वित्त वर्ष 2019-20 की दूसरी तिमाही से आर्थिक वृद्धि दर में सुधार की उम्मीद बन रही है। मोदी सरकार ने आर्थिक सुधारों की दिशा में दिवालिया एवं समाधान कानून, जीएसटी, रेरा और कालेधन के प्रवाह पर नकेल कसने जैसे कई अहम कदम उठाए हैं।
अर्थव्यवस्था को इन सुधारों का लाभ लंबी अवधि तक मिलेगा। जाहिर है इससे विकास की रफ्तार का दौर लंबे समय तक बनी रहेगी। इसके बावजूद सरकार को भूमि सुधार, श्रम सुधार और कृषि बाजार को मुक्त करने की दिशा में और व्यापक कदम उठाने की जरूरत है। बुनियादी ढांचा और कौशल विकास के क्षेत्र में निवेश बढ़ाना समय की जरूरत है। सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में विनिवेश की प्रक्रिया को तेज करना जरूरी है। उम्मीद है कि चुनाव के बाद बनने वाली नई सरकार इन मुद्दों को अपनी प्राथमिकता में शामिल करेगी। यदि इस दिशा में गंभीरता से विचार नहीं किया गया है वैश्विक अर्थव्यवस्था में व्याप्त संकट की तपिश से बच पाना मुश्किल हो जाएगा।
| Tweet |