आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस : मानव सभ्यता का संकट

Last Updated 15 Mar 2019 06:43:35 AM IST

हर नई प्रौद्योगिकी जीवन को बेहतर बनाने के जितने दावों के साथ मानव जीवन में प्रवेश करती है, उससे जुड़ी आशंकाएं भी उतनी ही मजबूत होती हैं।


आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस

‘आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस’ (एआई)  की प्रौद्योगिकी भी इस सिद्धांत का अपवाद नहीं है बल्कि कई मायनों में यह पूर्व की तुलना में अधिक आशंकामूलक है। दरअसल, पूर्व की लभभग सभी वैज्ञानिक अविष्कारों को उसकी सैद्धांतिकी में कमोबेश अच्छा माना जाता रहा है और चिंता की मूल बात उसके ‘व्यावहारिक अनुप्रयोग’ से जुड़ी होती थी। उदाहरण के लिए परमाणु से विद्युत भी बनाया जा सकता है और उसका उपयोग कर विध्वंसक बम भी निर्मिंत किया जा सकता है। इसमें चिह्नित करने लायक बात यह है कि इसके दुरु पयोग का दायित्व ‘मानव समुदाय’ पर आता है न कि यह अपने आप में ही बुरी खोज थी। पर आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस इन दोनों ही मानकों पर अलग है।

सबसे पहले अगर उन दावों की पड़ताल करें, जो आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के औचित्य को सही ठहराते हैं तो वे निश्चित ही उत्साहजनक हैं। सबसे प्रमुख खासियत तो यही है कि ये ‘त्रुटिरहित’ होते हैं। इस कौशल का उपयोग जटिल चिकित्सकीय उपचार और अंतरिक्ष अन्वेषण में किया जा सकता है, जो अन्यथा मानव द्वारा एकदम सटीकता से कर पाना संभव नहीं है। इसी प्रकार इसका उपयोग वाहन चालक के रूप में किया जा सकता है और चूंकि इसका एलगोरिद्म ट्रैफिक नियमों से संचालित होता है इसलिए वाहन दुर्घटना की संभावना शून्य रहेगी। फिर, एकदम जोखिम वाले कार्य जैसे-खदान में खनन जैसे कार्यों के लिए प्रशिक्षित रोबोट का उपयोग किया जा सकता है ताकि मानव को अपनी जान जोखिम में न डालनी पड़े। इसके अतिरिक्त शिक्षा क्षेत्र से लेकर रोजमर्रा के जीवन की ढेर सारी जरूरतों में भी इसका प्रयोग किया जा सकेगा।
सबसे बढ़कर इसकी खूबी यह है कि इससे वैसे सुदूर क्षेत्र जहां शिक्षा या चिकित्सा की सुविधाएं ‘प्रत्यक्ष’ रूप से प्रेषित कर पाना दुष्कर है, उस कमी को ये नई प्रौद्योगिकी आसानी से भर देती है। कह सकते हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस कैसे मानव समुदाय की संरचना को ही आमूलचूल ढंग से परिवर्तित करने में सक्षम है? यहां इस्रइली इतिहासकार ‘युवल नोवा हरारी’ की ‘ट्वेंटीवन लेसंस फॉर ट्वेंटी फस्र्ट सेंचुरी’ नामक पुस्तक का उल्लेख प्रासंगिक होगा, जिसमें विस्तार से आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के खतरे की पड़ताल की गई है। दरअसल, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस अपने स्वरूप में मानव समुदाय की सहभागी नहीं बल्कि कई बार एक ‘विकल्प’ के रूप में भी नजर आती है। औद्योगिक क्रांति के बाद जब मशीनों का प्रयोग पहली बार बड़े पैमाने पर शुरू हुआ तो उसने सिर्फ  मानव ‘श्रम’ को विस्थापित किया किंतु मानव मस्तिष्क का महत्त्व अपनी जगह बना रहा। फिर वो मशीनें अपने संचालन के लिए मानव पर ही आश्रित थीं। किंतु, एआई न केवल अपने आप संचालित होंगी बल्कि यह मानव मस्तिष्क को भी विस्थापित करने में सक्षम होंगी क्योंकि यह बुद्धिमत्ता से युक्त मशीन है। इस तरह यह मानव सभ्यता के विकास के मूल कारक‘मस्तिष्क’ को ही चुनौती देता है। दूसरे, औद्योगिक क्रांति के बाद जो संरचना निर्मिंत हुई, वह कितनी भी शोषणपूर्ण क्यों न हो किंतु वह पूंजी और श्रमिक के सहयोग पर ही टिकी थी। सम्प्रति हमारे पास इस एआई संरचना से लड़ने का कोई वैकल्पिक मॉडल नहीं है क्योंकि मनुष्य का ‘अप्रासंगिक’ हो जाना नितांत ही नई परिघटना है। तीसरे, पूर्व के प्रौद्योगिकी विकास के उलट इस पर सत्ता का न्यूनतम नियंत्रण है। ऐसे में इस प्रौद्योगिकी को नियंत्रित कर पाना कठिन है। चौथा, एआई ‘मौलिकता’ की मान्यता को भी सिर के बल खड़ा कर रहा है।
अभी तक यह माना जाता रहा है कि मशीन कुछ भी कर ले किंतु मौलिकता पर मानव समुदाय का ही अधिकार है। एआई इसे ‘मिथक’ सिद्ध करने में सक्षम है। पांचवें बिंदु के रूप में एआई के ‘सकल खतरे’ का उल्लेख आवश्यक होगा। ऐसा होना बहुत सामान्य सी बात है कि एआई के एलगोरिद्म में कोई तकनीकी खराबी आ जाए फिर इससे संचालित वाहन और चिकित्सकीय उपचार के खतरे को वहन कर पाना मानव समुदाय के लिए संभव होगा? अर्थात एकल इकाई के रूप में भले ही एआई की चुनौती कम गंभीर प्रतीत होती हो किंतु इसका सकल नुकसान सभ्यता को नाश करने में भी समर्थ है। अंत में यह कहने में कोई संकोच नहीं कि अपनी तमाम खूबियों के बावजूद एआई जिस आवृत्ति से मानव सभ्यता की बुनियाद को ही चुनौती देती है, उसका मानव जीवन में प्रवेश एक गंभीर परिघटना होगी।

सन्नी कुमार


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