विश्लेषण : उन्मत्त राष्ट्रवाद और चुनाव

Last Updated 15 Mar 2019 06:46:03 AM IST

पुलवामा की घटना से लेकर, चुनाव की तारीखों की घोषणा के बीच गुजरे तीन सप्ताह से कुछ ज्यादा के दौरान सत्ताधारी भाजपा ने जो कुछ कहा और किया है, उसके बाद इसमें किसी संदेह की गुंजाइश नहीं रह जाती है कि उसके हिसाब से उसके हाथ बाजी पलटने वाला मुद्दा लग गया है।


विश्लेषण : उन्मत्त राष्ट्रवाद और चुनाव

इसे तलवार और ढाल दोनों ही बनाकर, वह न सिर्फ मोदी राज की पांच साल की चौतरफा विफलताओं के लिए विपक्ष के हमलों से, अपना बचाव कर सकती है बल्कि अपने विरोधियों को बचाव पर भी डाल सकती है।
इसकी शुरुआत तो सीआरपीएफ जवानों की शहादत और अंत्येष्टियों का, सत्ताधारी भाजपा व संघ परिवार और उसके वफादार मीडिया द्वारा आतंकवाद और पाकिस्तान के विरोध के नाम पर, उन्माद जगाने के लिए इस्तेमाल किए जाने से ही हो चुकी थी। और पुलवामा के आतंकी हमले के जवाब के तौर पर, सीमा पार पाकिस्तान के खैबर-पख्तूनख्वा प्रांत में बालाकोट के जैश-ए-मोहम्मद का शिविर माने जाने वाले परिसर पर हवाई हमले किए जाने के बाद तो उन्मत्त राष्ट्रवादी दुहाई के सहारे चुनाव की वैतरणी पार करने की सत्ताधारी पार्टी की कोशिश, अपने पूरे कद में सामने आ गई। बेशक, यह कोई संयोग ही नहीं था कि पुलवामा पर हमले के बाद गुजरे तीन हफ्तों में नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार और पार्टी के अन्य शीर्ष नेताओं ने, अपने चुनाव-केंद्रित सरकारी-गैरसरकारी कार्यक्रमों का सिलसिला ज्यों का त्यों जारी रखा था, जबकि उनके विरोधी कई दिनों तक राजनीतिक आयोजनों से बचते रहे थे। सभी ने देखा है कि किस तरह इन कार्यक्रमों का, गाल-बजाऊ और छाती ठोकू आतंकवाद/ पाकिस्तान विरोध के प्रदर्शनों के जरिए, खासतौर पर मोदी की ‘हिम्मतवर और फैसलाकुन’ प्रधानमंत्री की छवि बनाने के लिए खुलकर इस्तेमाल किया जा रहा था।

पाकिस्तान की ओर से जवाबी कार्रवाई और नष्ट हुए भारतीय मिग विमान के पायलट, अभिनंदन की वापसी के बाद तो, प्रधानमंत्री और भाजपा ने, बालाकोट कार्रवाई और अभिनंदन के नाम को, सभाओं से लेकर पोस्टरों आदि तक में और सीधे-सीधे अपने कारनामे के तौर पर जोर-शोर से भुनाना शुरू कर दिया था। पुलवामा की घटना के दूसरे-तीसरे दिन से ही भाजपा अध्यक्ष, अमित शाह ने अपनी पार्टी की सभाओं में इसके दावे शुरू कर दिए थे कि देश में चूंकि अब पहले वालों की नहीं, मोदी की सरकार है, पुलवामा का पूरा बदला लिया जाएगा! उधर, खुद प्रधानमंत्री ने चुरू की सभा से ही, जहां से राजनीतिक सभाओं के मंच पर पृष्ठभूमि में शहीद जवानों की तस्वीरें लगाए जाने का चलन शुरू हुआ, बदले की भाषा का सिलसिला चालू कर दिया था। इस सिलसिले को बालाकोट की कार्रवाई और अभिनंदन की वापसी के बाद, अपने गृह प्रदेश में अहमदाबाद के अपने संबोधन में उन्होंने ‘घर में घुसकर मारने’, ‘सात पताल से निकालकर’ मारने आदि के सिद्धांत में अपने यकीन और ‘ज्यादा इंतजार नहीं करने’ अपने मिजाज का बखान करने तक पहुंचा दिया। यह पूरे मामले को, एक ‘निजी बदले’ की मुद्राओं में ही बदल देना था। और गाजियाबाद की सभा में प्रधानमंत्री ने ‘मोदी मार गया’, ‘मोदी मारकर चला गया’ के जुमलों से, इसे शुद्ध रूप से ‘निजी वीरता’ के दावों तक पहुंचा दिया!
अचरज नहीं कि इसी प्रक्रिया के हिस्से के तौर पर, पुलवामा की घटना के बाद के दौर में ही ‘नामुमकिन अब मुमकिन है’ के मोदी राज के सरकारी विज्ञापन अभियान के नारे को, भाजपा के ‘मोदी है तो मुमकिन है’ के नारे तक पहुंचा दिया गया। मोदी राज के लिए उग्र-राष्ट्रवादी छवि गढ़ने के इसी अभियान के दूसरे पहलू के तौर पर, विपक्ष को अगर राष्ट्रविरोधी नहीं तो कमतर राष्ट्रवादी साबित करने की कोशिश तो जरूर की जा रही थी। यह कहना गलत नहीं होगा कि फर्जी राष्ट्रवाद के इस हल्ले से, विपक्ष भी कुछ समय तक तो हतप्रभ ही बना रहा था, जिसने संघ-भाजपा के इस हथियार को और मारक बना दिया। फिर भी, उन्मत्त राष्ट्रवादी दुहाई की आड़ में, चुनावी बढ़त बनाने का यह खेल इतनी नंगई से खेला जा रहा था कि जल्द ही इसके खिलाफ चारों तरफ से आवाजें उठने लगीं और विपक्ष की भी मूच्र्छा टूटी।
अचरज नहीं कि खुद कई वरिष्ठ पूर्व-सैनिकों ने, सेना के नाम और उसकी कार्रवाई के प्रत्यक्ष राजनीतिक इस्तेमाल पर ही नहीं, सुरक्षा की चिंता के नाम पर युद्ध की पुकारों पर भी अपनी बेचैनी जतानी शुरू कर दी। ये पुकारें तो सिर्फ सुरक्षा के मुद्दों का राजनीतिक इस्तेमाल करने की कोशिश करती हैं और इस तरह सुरक्षा के मुद्दों पर जो सर्वानुमति रही भी है उसे भी तोड़कर, राष्ट्र को और असुरक्षित बनाने का ही काम करती हैं। बेशक, इसमें असुरक्षा का अनुपातहीन हौवा खड़ा कर, सुरक्षा बढ़ाने के वास्तविक प्रयासों का रास्ता रोकना या उन्हें मुश्किल बना देना भी शामिल है। कश्मीर, इसका जीता-जागता उदाहरण है कि कैसे सुरक्षा-सुरक्षा का जाप करने वाली मोदी सरकार ने, पांच साल में हालात को तेजी से बिगाड़कर, देश को असुरक्षित ही बनाया है। वायु सेना की जरूरत से बहुत कम लड़ाकू विमान खरीदे जाने और देश की सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी एचएएल से विमान बनाने का मौका छीनने वाले रफाल सौदे से लेकर, सुरक्षा के लिए वित्तीय संसाधनों की कमी पर मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली संसदीय कमेटी की रिपोर्ट तक, इसके साक्ष्यों की भरमार है कि मोदी राज में देश पहले से ज्यादा असुरक्षित ही हुआ है। देश की जनता भी अपने-अपने तरीके से इस सचाई को समझ रही है और सारे आसार इसी के हैं कि उन्मत्त राष्ट्रवाद का यह चुनावी हथियार, टीन की तलवार ही साबित होने जा रहा है। चुनाव की तारीखों के  ऐलान से ऐन पहले आए चुनाव-पूर्व सव्रेक्षणों में, हफ्तों तक मैदान में लगभग अकेले ही इस तलवार को भांजते रहने के बावजूद, एनडीए का बहुमत के आंकड़े से पीछे ही छूटते नजर आना, इसी का महत्त्वपूर्ण संकेतक है।
सी वोटर के सव्रे के अनुसार भी, एनडीए के 264 का आंकड़ा पार करने की संभावना नहीं है। याद रहे कि सीवोटर के ही जनवरी के सव्रे की तुलना में, राष्ट्रवाद के सारे दोहन के बावजूद, मार्च के सव्रे में एनडीए के खाते में सिर्फ 31 सीट की बढ़ोतरी दिखाई देती है और इसमें से भी ज्यादातर बढ़ोतरी, इसी दौरान महाराष्ट्र व तमिलनाडु में भाजपा द्वारा किए गए गठजोड़ों का ही नतीजा है। जैसे-जैसे जनता के वास्तविक हितों से जुड़े मुद्दे अपना असर दिखाएंगे, वैसे-वैसे फर्जी राष्ट्रवाद की तलवार और खुट्टल होती जाएगी। टीन की ही साबित होगी संघ परिवार की उन्मत्त राष्ट्रवाद की तलवार।

राजेंद्र शर्मा


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