सरोकार : शिक्षा में असमानता की गहरी जड़ें
हाई-स्कूल और इंटरमीडिएट की बोर्ड की परीक्षाएं जारी हैं। कुछ ही हफ्तों बाद , परीक्षा से खाली होकर, 12वीं के विद्यार्थी समूह अपने सपनों को उड़ान देने के मकसद से देश के अलग-अलग इलाकों के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिए प्रयास कर रहे होंगे।
सरोकार : शिक्षा में असमानता की गहरी जड़ें |
लेकिन क्या गांव-छोटे शहर और छोटे स्कूलों से पढ़ कर निकले छात्रों को नामी-गिरामी विश्वविद्यालयों में प्रवेश मिलता है? अपवाद छोड़ दें तो सवाल का जवाब होगा-नहीं।
दरअल,शिक्षा में असमानता की जड़ें गहरी हैं। इसका प्रमाण आप देश में सरकारी-निजी प्रबंधन द्वारा संचालित विभिन्न प्रकार के स्कूलों में देख सकते हैं। केंद्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय, सैनिक स्कूल अपने आप में बेहतर माने जाने वाले स्कूल हैं। वहां कक्षा छह में प्रवेश लेकर बारहवीं तक की पढ़ाई की जा सकती है। लेकिन गांव के सरकारी स्कूलों में पहले आप पांचवीं तक पढ़ें, फिर मिडिल स्कूल में एडमिशन लें, आठवीं करें, फिर किसी और स्कूल से हाई स्कूल-इंटरमीडिएट करें और फिर विश्वविद्यालय में नाम लिखाने के लिए भटकें!
देश में सस्ते और महंगे, आवासी और गैर-आवासी जैसे अनेक निजी स्कूल हैं, जहां प्रवेश का आधार आपकी सामाजिक-आर्थिक हैसियत होती है। ऐसा कैसे होता है कि एक प्रतिष्ठित स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में प्रवेश पा जाते हैं?
अपवाद छोड़ दें तो सामाजिक न्याय और आर्थिक सहायता, गरीबों के लिए आरक्षित सीटों की व्यस्था के बावजूद एलिट स्कूल का रास्ता, एलिट विश्वविद्यालय और अन्य नामी संस्थानों तक ही जाता है और शैक्षिक असमानता की खाई को और बृहद करता है। शिक्षा से उम्मीद थी कि सामाजिक असमानता को कम करेगी लेकिन इसका उल्टा हो रहा है। आप की सामाजिक हैसियत, आपने किस स्कूल से पढ़ाई की है, इससे तय होने लगी है। स्कूली स्तर पर शुरू हुई यह आर्थिक असमानता बाद में शैक्षिक उपलब्धियों में नजर आती है क्योंकि जिसके पास शिक्षा के अधिक संसाधन और एक्सपोजर होगा उसे उसका फायदा भी मिलेगा। सत्तर के दशक में समाज विज्ञानी बोरडुए ने भी सामाजिक उत्पादकता का सिद्धांत दिया था और बताया कि गरीब और संपन्न बच्चों के बीच शैक्षिक उपलब्धियों का अंतर उनकी बौद्धिकता की बजाय सांस्कृतिक पूंजी में फर्क के कारण होता है।
अभी देश में शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है और स्कूली शिक्षा-विश्वविद्यालय शिक्षा के अलग-अलग प्रबंध तंत्र से संचालित होती है, इनके भीतर ढांचागत बदलाव और पर्याप्त बजट का आवंटन किए बिना देश स्तर पर प्रासंगिक शिक्षा व्यवस्था बनाना मुश्किल है। 21वीं शताब्दी में शिक्षा को लेकर समाज के कमजोर लोगों की उम्मीदें बढ़ी हैं, तो ऐसे में हमें एक ऐसे शिक्षा तंत्र की जरूरत है जो शैक्षिक रास्ते से सामाजिक दूरियों को कम करे। क्या एक विभाजित शैक्षिक व्यवस्था एक मजबूत देश के निर्माण में सहायक होगी? इसका उत्तर वे छात्र देंगे जो अभी बारहवीं की परीक्षा के बाद अपने पसंद के विश्वविद्यालय में प्रवेश नहीं पा सकेंगे और निजी विश्वविद्यालय में एडमिशन के लिए उनके पास पैसा नहीं होगा।
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